शुक्रवार, 5 नवंबर 2021

👉 जीवन साधना के त्रिविध पंचशील (भाग १)

साधना चाहे घर पर की जाय अथवा एकान्तवास में रहकर, मनःस्थिति का परिष्कार उसका प्रधान लक्ष्य होना चाहिए। साधना का अर्थ यह नहीं कि अपने को नितान्त एकाकी अनुभव कर वर्तमान तथा भावी जीवन को नहीं, मुक्ति- मोक्ष को, परलोक को लक्ष्य मानकर चला जाय। साधना विधि में चिन्तन क्या है, आने वाले समय को साधक कैसा बनाने और परिष्कृत करने का संकल्प लेकर जाना चाहता है, इसे प्रमुख माना गया है। व्यक्ति, परिवार और समाज इन तीनों ही क्षेत्रों में बँटे जीवन सोपान को व्यक्ति किस प्रकार परिमार्जित करेंगे, उसकी रूपरेखा क्या होगी, इस निर्धारण में कौन कितना खरा उतरा इसी पर साधना की सफलता निर्भर है।
   
कल्प साधना में भी इसी तथ्य को प्रधानता दी गयी है। एक प्रकार से यह व्यक्ति का समग्र काया कल्प है, जिसमें उसका वर्तमान वैयक्तिक जीवन, पारिवारिक गठबंधन तथा समाज सम्पर्क तीनों ही प्रभावित होते हैं। कल्प साधकों को यही निर्देश दिया जाता है कि उनके शान्तिकुञ्ज वास की अवधि में उनकी मनःस्थिति एकान्त सेवी, अन्तर्मुखी, वैरागी जैसी होनी चाहिए। त्रिवेणी तट की बालुका में माघ मास की कल्प साधना फूस की झोपड़ी में सम्पन्न करते हैं। घर परिवार से मन हटाकर उस अवधि में मन को भगवद् समर्पण में रखते हैं। श्रद्धा पूर्वक नियमित साधना में संलग्न रहने और दिनचर्या के नियमित अनुशासन पालने के अतिरिक्त एक ही चिन्तन में निरत रहना चाहिये, कि काया कल्प जैसी मनःस्थिति लेकर कषाय- कल्मषों की कीचड़ धोकर वापस लौटना है। इसके लिए भावी जीवन को उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा निर्धारित करने का ताना- बाना बुनते रहना चाहिये।
   
व्यक्ति, परिवार और समाज के त्रिविध क्षेत्रों में जीवन बंटा हुआ हैं, इन तीनों को ही अधिकाधिक परिष्कृत करना इन दिनों लक्ष्य रखना चाहिये। इस सन्दर्भ में त्रिविध पंचशीलों के कुछ परामर्श क्रम प्रस्तुत हैं। भगवान बुद्ध ने हर क्षेत्र के लिए पंचशील निर्धारित किये थे। प्रज्ञा साधकों के लिए उपरोक्त तीन क्षेत्र के लिए इस प्रकार हैं:-

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८३)

भगवत्कृपा के स्रोत हैं- भक्ति और भक्त

भगवत्कृपा के स्रोत हैं- भक्ति और भक्त। इस सच की अनुभूति सभी के अन्तःकरण में प्रकाशित हो उठी। सप्तर्षियों के साथ देवगण, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर एवं महर्षियों का समुदाय पुलकित हो उठा। उन्हें यह प्रगाढ़ता से अनुभव हुआ कि भक्ति जीवन को रूपान्तरित करने वाला रसायन है। इससे मानव जीवन दिव्य एवं पावन बनता है। देवर्षि ने भक्तिगाथा के जो कथासूत्र बुने थे, उनमें अनगिन मन सहजता से गुंथ गए। कृषक पति-पत्नी की भक्तिकथा ने सभी के चिन्तन को एक नवीन दिशा दी। वे सोचने लगे लगे कि भक्ति सचमुच ही असम्भव को सहज सम्भव बना देती है। इस भक्ति का निर्मल स्रोत है भक्त, जिसके माध्यम से भगवत्कृपा का अजस्र स्रोत प्रवाहित होता है। भक्ति एवं भक्त दोनों ही ऐसे माध्यम हैं- जिनसे भगवान की कृपा का स्पर्श पाया जा सकता है। प्रभु के पावन स्पर्श की, उनके सान्निध्य की अनुभूति पायी जा सकती है। भक्तों का सान्निध्य भी भगवान के सान्निध्य से कहीं कम नहीं है क्योंकि भगवान तो सदा ही अपने भक्तों के अन्तःकरण में विराजते हैं।

भक्त-भक्ति एवं भगवान की ये विचारकड़ियाँ अनायास ही गुंथती-जुड़ती रहीं। देवर्षि नारद द्वारा उच्चारित भक्तिसूत्र सभी की अन्तर्चेतना में प्रकाश किरणों की तरह जगमगाते रहे। इस बीच स्वयं देवर्षि मौन रहे। सप्तर्षियों में सभी के लिए समादरणीय महर्षि पुलह ने देवर्षि के मुख की ओर देखा, पर बोले कुछ नहीं। हालांकि उनकी दृष्टि में एक नेह भरा आह्लाद था। सम्भवतः वह भक्ति के नए सूत्र को सुनना चाहते थे। महर्षि पुलह की इन विचारविथियों ने अन्य महर्षिजनों को भी छुआ। उनके भाव भी स्पन्दित हुए और तब ब्रह्मर्षि मरीचि ने सभी की वाणी को शब्द देते हुए कहा, ‘‘देवर्षि हम सभी आपके नए सूत्र का सत्योच्चार सुनने के लिए उत्सुक हैं। आप भक्तिकथा की नयी कड़ी से हम सभी को कृतार्थ करें।’’ ब्रह्मर्षि मरीचि के इस कथन समाप्ति के साथ ही एक हिमपक्षी की मधुर ध्वनि वातावरण में स्पन्दित हुई। कुछ ऐसे कि जैसे उसने भी अपनी वाणी से ब्रह्मर्षि मरीचि के कथन का अनुमोदन किया हो।

उत्तर में देवर्षि के अधरों पर एक मीठी सी स्मित रेखा झलकी। और उन्होंने अपने हृदय कोष से नए सूत्र रत्न को प्रकाशित किया-
‘मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा’॥ ३८॥

‘परन्तु (प्रेमाभक्ति का साधन) मुख्यतया (भगवद्भक्त) महापुरुषों की कृपा से अथवा भगवत्कृपा के लेशमात्र से होता है।’ भक्त महापुरुषों का संग, सदा ही भगवत्कृपा की पारसमणि की भांति होता है, जिसका तनिक सा स्पर्श भी रूपान्तरण करने में समर्थ है। इस अमोघ सामर्थ्य को सभी अनुभवी जानते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५५

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...