मंगलवार, 16 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 16 May 2023

हमें अपने गुण, कर्म एवं स्वभाव का परिष्कार करना चाहिए। अपनी विचार पद्धति एवं गतिविधि को सुधारना चाहिए। जिन कारणों से निम्नस्तरीय जीवन बिताने को विवश होना पड़ रहा है उन्हें ढूँढना चाहिए और साहस एवं मनोबलपूर्वक उन सभी कारणों के कूड़े-कचरे को मन-मंदिर में से झाड़-बुहार कर बाहर फेंक देना  चाहिए। हम अपने उद्धार के लिए-उत्थान के लिए कटिबद्ध होंगे तो सारा संसार हमारी सहायता करेगा।

अध्यात्मवाद का ढाँचा इस उद्देश्य को लेकर खड़ा किया गया है कि व्यक्ति अपने आप में पवित्र, विवेकी, उदार और संयमी बने। दूसरों से ऐसा मधुर व्यवहार करे जिसकी प्रतिक्रिया लौटकर उसके लिए सुविधा और प्रसन्नता उपस्थित करे। ऐसी विचारणा और गतिविधि व्यक्ति अपना सके तो समझना चाहिए उसने अध्यात्मवाद के तत्त्वज्ञान को समझ लिया और लोक कल्याण के लक्ष्य तक पहुँचने का सुनिश्चित मार्ग पकड़ लिया।

यह संसार कुएँ की आवाज की तरह है, जिसमें हमारे ही उच्चारण की प्रतिध्वनि गूँजती है। यह संसार दर्पण की तरह है, जिसमें विभिन्न व्यक्तियों के माध्यम से अपना ही स्वरूप दिखाई पड़ता है। इस संसार के बाजार में कोई सुख-सुविधा अपने सद्गुणों के मूल्य पर ही खरीदी जाती है। जब हम अपने आपको सुधारने के लिए अग्रसर होते हैं, तो निश्चित रूप से यह दुनिया हमारे लिए अपेक्षाकृत अधिक सुधरी हुई, सुंदर और मधुर बन जाती है।

साहस ही जीवन की विशेषताओं को व्यक्त करने का अवसर देता है।मनुष्य में सभी गुण हों, वह विद्वान् हो, पंडित हो, शक्तिशाली हो, धनवान् हो, सद्गुण संपन्न हो, लेकिन उसमें साहस न हो तो वह अपनी विशेषताओं का, योग्यताओं का कोई उपयोग नहीं कर सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 14 May 2023

बुरे आदमी बुराई के सक्रिय, सजीव प्रचारक होते हैं। वे अपने आचरणों द्वारा बुराइयों की शिक्षा लोगों को देते हैं। उनकी कथनी और करनी एक होती है। जहाँ भी ऐसा सामंजस्य होगा उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। हममें से कुछ लोग धर्म प्रचार का कार्य करते हैं पर वह सब कहने भर की बातें होती हैं। इन प्रचारकों की कथनी-करनी में अंतर रहता है। यह अंतर जहाँ भी रहेगा वहाँ प्रभाव क्षणिक ही रहेगा।   

अपने को अपने तक ही सीमित रखने की नीति से मनुष्य एक बहुत बड़े लाभ से वंचित हो जाता है, वह है दूसरों की सहानुभूति खो बैठना।

अखण्ड विश्वास के साथ जब कोई आस्तिक भूत, भविष्य और वर्तमान के साथ अपना संपूर्ण जीवन परमात्मा अथवा उसके उद्देश्यों को सौंप देता है, तब उसे अपने जीवन के प्रति किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं रहती। तब भी यदि वह चिन्ता करता है तो समझना चाहिए कि उसने अपना दायित्व पूरी तरह से सर्वशक्तिमान् को सौंपा नहीं है अथवा उसकी ईमानदारी में विश्वास नहीं करता।

दोष दिखाने वाले को अपना शुभ चिंतक मानकर उसका आभार मानने की अपेक्षा मनुष्य जब उलटे उस पर कु्रद्ध होता है, शत्रुता मानता और अपना अपमान अनुभव करता है, तो यह कहना चाहिए कि उसने सच्ची प्रगति की ओर चलने का अभी एक पैर उठाना भी नहीं सीखा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 मन को बालक्रीड़ाओं में भटकने न दें (भाग 2)

देखना यह है कि जीवन सम्पदा को किस निमित्त लगाया जाये? इसके लिए प्रचलन देखने की आवश्यकता है। मछलियों में बड़ी छोटी को निगल जाती है और उस बड़ी को मछुए के जाल में अपना प्राण गँवाना पड़ता है। प्रचलन ऐसा ही है। बहुमत ऐसे ही निरर्थक काम करता रहता है। समस्त पृथ्वी पर जितने मनुष्य रहते हैं, उतने दृश्य और अदृश्य कृमि कीटक एक मील की परिधि में रहा करते हैं। पर उनकी उपयोगिता क्या? पेट प्रजनन के कुचक्र में इधर से उधर भटकते रहते हैं। इसी स्तर का जीवन अधिकाँश मनुष्य जीते हैं। उनकी नकल क्या करनी? वनमानुषों, नर पशुओं का अनुकरण भी कोई करने लायक बात है।

बहुसंख्यक लोगों का क्रिया-कलाप ही प्रचलन कहाता है। बहुसंख्यक तो अपनी आत्मा सत्ता के अस्तित्व तक को भुला बैठे हैं। उन्हें अपना आपा काया मात्र के रूप में परिलक्षित होता है। अपनापन उन्हें शरीर तक सीमित प्रतीत होता है इसलिए उसी की सुख-सुविधा साधने में जीवन को रुचिपूर्वक खपाते रहते हैं। पेट की भूख, जननेन्द्रिय की तरंग, धन की ललक, बड़प्पन की बड़ाई की सनक। बस इसी सीमा में उनके क्रिया-कलाप बनते हैं। बच्चे जनने और उन्हें पालने में तो चुहिया भी प्रवीण होती है।

वह तीन सप्ताह में प्रौढ़ हो जाती है और एक बार में आठ दस बच्चे जनती है। यह प्रजनन वर्ष में प्रायः चार बार होता है। इस प्रकार तीस-चालीस बच्चों की जननी वह एक वर्ष में ही बन जाती है। हर बार पति बदलने पड़ते हैं इस प्रकार ढेरों की वह पर्यंक शाथिनी बन लेती है। इसमें कौन-सा व कैसा बड़प्पन? क्या गौरव, क्या महत्व? मनुष्य भी किशोरावस्था में ही प्रजनन कर्म में लगता है और बच्चे पैदा करने के अतिरिक्त उन्हें पालता भी है। यही जाल-जंजाल इतना बड़ा है जिसका कि ताना-बाना बुनते बुढ़ापा आ धमकता है और मौत अपने थैले में चना चबैना की तरह समेट ले जाती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1986 पृष्ठ 3

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1986/February/v1.3


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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