सोमवार, 3 अप्रैल 2017
👉 राष्ट्र निर्माण के लिए राष्ट्र भाषा की प्रगति अनिवार्य है
🔵 बाबू राजेंद्र प्रसाद का विद्यारंभ संस्कार उस समय के अनुसार एक मौलवी के पास उर्दू-फारसी में कराया गया था। नतीजा यह हुआ कि वे स्कूल और कालेज में भी इंटर तक अंग्रेजी के साथ उर्दू-फारसी ही पढ़ते चले गए। पर जब वे कलकत्ता जाकर बी० ए० में भर्ती हुए, तो उनके सामने कई भाषाओं में से एक चुनने का प्रश्न आया। यद्यपि उन्होंने अब तक हिंदी नही पढी़ थी और कालेज में हिंदी के अध्ययन की व्यवस्था नहीं थी, तो भी उनका सुझाव विशेष रूप से हिंदी की ही तरफ हुआ। संभवत: इसका कारण उनकी राष्ट्रीय और जातीय भावनाएँ ही थी। उनके कई मित्रों ने कहा कि तुम हिंदी लेकर बडी़ गलती कर रहे हो। जब अब तक तुमने हिंदी नहीं पढी़ तब एकाएक बी० ए० में लेने का नतीजा यह होगा कि तुम्हे बहुत कम नंबर मिलेंगे और तुम्हारा डिवीजन खराब हो जायेगा। पर राजेंद्र बाबू ने उनका समाधान यह कहकर दिया कि हिंदी तो हमारी मातृभाषा है उसके न सीख सकने या नंबर कम आने का संदेह करना व्यर्थ है। हमको आखिर अपनी इस मातृभूमि और मातृभाषा की हृदय से सेवा करके अपना कर्तव्य पालन करना ही होगा। तब उसको बिना सीखे किस प्रकार काम चल सकता है ?
🔴 उन्होंने सब विचार त्यागकर हिंदी ही ली और घर पर निजी तौर पर अध्ययन करके बहुत अच्छे नंबरों से पास हो गये।
🔵 राजेद्र बाबू ने जैसा सोचा था, वही कुछ समय पश्चात् सामने आया। राष्ट्रीय आंदोलन के साथ देश में राष्ट्रभाषा की आवश्यकता और उसके प्रचार के लिये प्रयत्न करने की तरफ नेताओं का ध्यान गया। श्री पुरुषोत्तमदास जी टंडन तथा उनके सहयोगियों ने प्रयाग मे हिंदी-साहित्य सम्मेलन की स्थापना की जिसका उद्देश्य राष्ट्रभाषा के रूप मे समस्त भारत में हिंदी का प्रचार करना था।
🔴 सम्मेलन का तीसरा वार्षिकोत्सव सन् १९१३ मे कलकता में हुआ और राजेंद्र बाबू को स्वागत समिति का प्रधानमंत्री बनाया गया। उसी समय पटना में आल इंडिया कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था,। पर आप हिदी साहित्य सम्मेलन की व्यवस्था में इतने व्यस्त रहे कि पटना न जा सके। सन् १९२३ में "हिंदी साहित्य सम्मेलन" के , सभापति भी बनाए गए। प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलनों के कई अधिवेशनों में आपने अध्यक्षता की थी।
🔵 आपने जो हिंदी प्रचार का काम १९१३ मे उठाया था वह आजन्म चलता ही रहा। आगे चलकर आप ही सम्मेलन की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष बनाए गए और उसके द्वारा मदास तथा आसाम जैसे दूरवर्ती प्रांतो में वर्षों तक हिंदी के पठनपाठन और प्रचार की व्यवस्था की गई। कुछ लोग उस समय इस प्रचार की उपयोगिता न समझकर, उसकी विपरीत आलोचना करते थे। ऐसे लोगों को उत्तर देते हुए आपने लिखा था- "राष्ट्र के लिये राष्ट्रभाषा आवश्यक है और वह भाषा हिंदी ही हो सकती है।" इसमें दक्षिण वालों ने पूरा सहयोग दिया। इधर कई वर्षों से इस कार्य में होने वाला वहाँ का सारा खर्च वहाँ के लोगों से ही मिल जाता है और उत्तर भारत से वहाँ पर धन नहीं भेजना पडता। मैं समझता हूँ कि इसी प्रकार अन्य हिंदी प्रांतों में भी कुछ दिनों काम करने के बाद हमारा वैसा ही अनुभव होगा। हिंदी-प्रचार को मैं भीख की झोली नही मानता और न यह मानता हूँ कि इसके पीछे कोई द्वेष बुद्धि है। इसका एक उद्देश्य है सारे देश के लिए एक राष्ट्रभाषा का प्रचार। किसी भी प्रांतीय भाषा को मिटाने ता कमजोर करने की इच्छा किसी के दिल में स्वप्न में भी नहीं आई और न आएगी। हम राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य मात्र कर रहे है और उसे करते रहने में ही हमारा और देश का कल्याण है।''
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 118, 119
🔴 उन्होंने सब विचार त्यागकर हिंदी ही ली और घर पर निजी तौर पर अध्ययन करके बहुत अच्छे नंबरों से पास हो गये।
🔵 राजेद्र बाबू ने जैसा सोचा था, वही कुछ समय पश्चात् सामने आया। राष्ट्रीय आंदोलन के साथ देश में राष्ट्रभाषा की आवश्यकता और उसके प्रचार के लिये प्रयत्न करने की तरफ नेताओं का ध्यान गया। श्री पुरुषोत्तमदास जी टंडन तथा उनके सहयोगियों ने प्रयाग मे हिंदी-साहित्य सम्मेलन की स्थापना की जिसका उद्देश्य राष्ट्रभाषा के रूप मे समस्त भारत में हिंदी का प्रचार करना था।
🔴 सम्मेलन का तीसरा वार्षिकोत्सव सन् १९१३ मे कलकता में हुआ और राजेंद्र बाबू को स्वागत समिति का प्रधानमंत्री बनाया गया। उसी समय पटना में आल इंडिया कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था,। पर आप हिदी साहित्य सम्मेलन की व्यवस्था में इतने व्यस्त रहे कि पटना न जा सके। सन् १९२३ में "हिंदी साहित्य सम्मेलन" के , सभापति भी बनाए गए। प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलनों के कई अधिवेशनों में आपने अध्यक्षता की थी।
🔵 आपने जो हिंदी प्रचार का काम १९१३ मे उठाया था वह आजन्म चलता ही रहा। आगे चलकर आप ही सम्मेलन की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष बनाए गए और उसके द्वारा मदास तथा आसाम जैसे दूरवर्ती प्रांतो में वर्षों तक हिंदी के पठनपाठन और प्रचार की व्यवस्था की गई। कुछ लोग उस समय इस प्रचार की उपयोगिता न समझकर, उसकी विपरीत आलोचना करते थे। ऐसे लोगों को उत्तर देते हुए आपने लिखा था- "राष्ट्र के लिये राष्ट्रभाषा आवश्यक है और वह भाषा हिंदी ही हो सकती है।" इसमें दक्षिण वालों ने पूरा सहयोग दिया। इधर कई वर्षों से इस कार्य में होने वाला वहाँ का सारा खर्च वहाँ के लोगों से ही मिल जाता है और उत्तर भारत से वहाँ पर धन नहीं भेजना पडता। मैं समझता हूँ कि इसी प्रकार अन्य हिंदी प्रांतों में भी कुछ दिनों काम करने के बाद हमारा वैसा ही अनुभव होगा। हिंदी-प्रचार को मैं भीख की झोली नही मानता और न यह मानता हूँ कि इसके पीछे कोई द्वेष बुद्धि है। इसका एक उद्देश्य है सारे देश के लिए एक राष्ट्रभाषा का प्रचार। किसी भी प्रांतीय भाषा को मिटाने ता कमजोर करने की इच्छा किसी के दिल में स्वप्न में भी नहीं आई और न आएगी। हम राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य मात्र कर रहे है और उसे करते रहने में ही हमारा और देश का कल्याण है।''
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 118, 119
👉 धारा को चीरकर चल पड़ने जैसा पराक्रम
🔵 प्राणी का धर्म है-प्रगति, अग्रगमन। धर्म से यहाँ अर्थ है- स्वभाव। इसके बिना न तो किसी को चैन मिलता है, न सन्तोष, न सुख। कहा जाता है कि प्राणी सुख की खोज में फिरते रहते हैं। यह कथन तब ही सही हो सकता है, जब उसके प्रयासों के साथ सुविधा नहीं, प्रगति भी जुड़ी हुई हो। निम्नस्तरीय प्राणी सुविधा से सन्तुष्ट हो सकते हैं, किन्तु जिनका अन्तराल जीवित है, उनका गुजारा प्रगति की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए बिना हो ही नहीं सकता।
🔴 इस स्तर के लोगों को सुविधा नहीं, उस गौरव को अर्जित करने की प्यास रहती है, जो अपनी पीठ आप थपथपा सकें। साहस और पराक्रम के क्षेत्र में अपनी स्थिति सामान्य जन समुदाय की तुलना में अधिक ऊँची, अधिक अच्छी सिद्ध कर सके। प्रगति इसी को कहते हैं। जिन्हें असामान्य कहा जाता है, उनका काम इससे कम में चलता नहीं। वे वर्चस्व प्रकट किये बिना रह भी नहीं सकते। सुविधाएँ उनका प्रगति पथ कभी अवरुद्ध नहीं करती, न ही वे सुविधाओं पर निर्भर रहते हैं।
🔵 वरिष्ठता सिद्ध करने की उत्कण्ठा यदि उथलेपन की स्थिति में हुई, तो वह भोंड़े प्रदर्शन एवं एक कदम आगे बढ़ने की उद्दण्डता के रूप में प्रकट होने लगती है। अहमन्यता अपना उद्धत प्रदर्शन न कर पाए, इसके लिए तत्त्ववेत्ता-दूरदर्शियों ने मानवी मनोविज्ञान को समझते हुए इस प्रवृत्ति को उत्कृष्टता के साथ जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने आत्मोत्कर्ष के लिए कुछ उपयोगी क्षेत्र निर्धारित कर यह सिद्ध किया कि उस राजमार्ग पर चलने में दूसरों को चकाचौंध करने वाला, साधक अपनी अन्तरात्मा को गौरवान्वित करने वाला श्रेय-सन्तोष परिपूर्ण मात्रा में प्राप्त कर सकता है।
🔴 वैभव तो चतुराई से कम किया भी जा सकता है किन्तु व्यक्तित्त्व का निर्माण तो मनुष्य की अपनी कलाकारिता, सूझबूझ, एकाग्रता और ऐसे पराक्रम का प्रतिफल है जो संसार के अन्यान्य उपार्जनों की तुलना में कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रयत्न साध्य है। उसमें संकल्प शक्ति, साहसिकता और दूरदर्शिता का परिचय देना पड़ता है। जनसाधारण द्वारा अपनायी गयी रीति-नीति से ठीक उस दिशा में चलना उस मछली के पराक्रम जैसा है, जो प्रचण्ड प्रवाह को चीरकर उसके विपरीत चलती है। ऐसे नरपुंगवों को ही विश्वविजेता की उपमा दी गयी है, जो महानता को अंगीकार कर प्रतिकूलताओं से टकराते हुए आगे-सतत आगे ही बढ़ते रहते हैं। इस मार्ग को अपनाना ही मनुष्य की सबसे बड़ी दूरदर्शिता है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप
🔴 इस स्तर के लोगों को सुविधा नहीं, उस गौरव को अर्जित करने की प्यास रहती है, जो अपनी पीठ आप थपथपा सकें। साहस और पराक्रम के क्षेत्र में अपनी स्थिति सामान्य जन समुदाय की तुलना में अधिक ऊँची, अधिक अच्छी सिद्ध कर सके। प्रगति इसी को कहते हैं। जिन्हें असामान्य कहा जाता है, उनका काम इससे कम में चलता नहीं। वे वर्चस्व प्रकट किये बिना रह भी नहीं सकते। सुविधाएँ उनका प्रगति पथ कभी अवरुद्ध नहीं करती, न ही वे सुविधाओं पर निर्भर रहते हैं।
🔵 वरिष्ठता सिद्ध करने की उत्कण्ठा यदि उथलेपन की स्थिति में हुई, तो वह भोंड़े प्रदर्शन एवं एक कदम आगे बढ़ने की उद्दण्डता के रूप में प्रकट होने लगती है। अहमन्यता अपना उद्धत प्रदर्शन न कर पाए, इसके लिए तत्त्ववेत्ता-दूरदर्शियों ने मानवी मनोविज्ञान को समझते हुए इस प्रवृत्ति को उत्कृष्टता के साथ जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने आत्मोत्कर्ष के लिए कुछ उपयोगी क्षेत्र निर्धारित कर यह सिद्ध किया कि उस राजमार्ग पर चलने में दूसरों को चकाचौंध करने वाला, साधक अपनी अन्तरात्मा को गौरवान्वित करने वाला श्रेय-सन्तोष परिपूर्ण मात्रा में प्राप्त कर सकता है।
🔴 वैभव तो चतुराई से कम किया भी जा सकता है किन्तु व्यक्तित्त्व का निर्माण तो मनुष्य की अपनी कलाकारिता, सूझबूझ, एकाग्रता और ऐसे पराक्रम का प्रतिफल है जो संसार के अन्यान्य उपार्जनों की तुलना में कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रयत्न साध्य है। उसमें संकल्प शक्ति, साहसिकता और दूरदर्शिता का परिचय देना पड़ता है। जनसाधारण द्वारा अपनायी गयी रीति-नीति से ठीक उस दिशा में चलना उस मछली के पराक्रम जैसा है, जो प्रचण्ड प्रवाह को चीरकर उसके विपरीत चलती है। ऐसे नरपुंगवों को ही विश्वविजेता की उपमा दी गयी है, जो महानता को अंगीकार कर प्रतिकूलताओं से टकराते हुए आगे-सतत आगे ही बढ़ते रहते हैं। इस मार्ग को अपनाना ही मनुष्य की सबसे बड़ी दूरदर्शिता है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप
👉 उपासना के तत्व दर्शन को भली भान्ति हृदयंगम किया जाय (भाग 2)
🔵 चन्द्रमा तभी चमकता है जब वह सूर्य का प्रकाश पाता है। अपने आप में वह प्रकाशवान नहीं, उसकी अकेली कोई सत्ता नहीं। सूर्य का आलोक जब उसे प्राप्त नहीं होता तो अमावस्या के दिन चन्द्रमा के यथा स्थान रहते हुए भी उसका अस्तित्व लुप्त प्रायः ही रहता है। परमात्मा वह दिव्य शक्ति आलोक से भरा प्रकाश पुंज है जिससे हम सभी अनुप्राणित प्रकाशवान होते हैं। उपासना हमें उसके समीप ले जाकर स्थायी बल प्राप्त कराती है। जितना सामीप्य हमें ईश्वर का–परमात्मा सत्ता का–मिलता है, उतनी ही श्रेष्ठताएँ हमारे अन्तःकरण में उपजती तथा बढ़ती चली जाती हैं। इसी अनुपात में हमारी आत्मिक शाँति–प्रगति का पथ–प्रशस्त होता चला जाता है।
🔴 उपासना का बहिरंग स्वरूप क्या हो– इसके विस्तार में अभी न जाकर यह देखा जाय कि परमेश्वर साधक के आन्तरिक स्तर को कैसा चाहता है? रामकृष्ण परमहंस कहते थे–”ईश्वर का दर्शन तब होता है जब पाँच सत्प्रवृत्तियाँ अन्दर प्रवेश पाने व फलने–फूलने लगती है। ये पाँच सत्प्रवृत्तियाँ हैं–उत्कृष्टता, निर्मलता, सहृदयता, उदारता, आत्मीयता। ये ही परमात्मा के–ईश्वरीय सत्ता के–भी गुण हैं। जैसे −जैसे इन गुणों का अनुपात अपने अन्दर बढ़ने लगता है, समझना चाहिए जीव उतना ही ईश्वर के समीप पहुँच गया है।”
🔵 इन पाँच सत्प्रवृत्तियों को परमेश्वर का प्रतिनिधि–पंचदेव भी कह सकते हैं। इन्हीं पाँच पाण्डवों को आजीवन आँतरिक असुर कौरवों से लड़ना होता है। जब असुरता के उन्मूलन का हृदय मंथन आक्रोश पूर्वक हो रहा हो–स्पष्ट मान लेना चाहिये कि जीव रूपी अर्जुन ने गीता का ज्ञान स्वीकार कर लिया और वह कृष्ण की आज्ञा मान कर्त्तव्य पारायण–सच्चा योगी–ईश्वर भक्त हो गया। उपासना स्थली पर बैठकर इन सद्गुणों के सम्वर्धन का ही ध्यान किया जाय तो उल्टे ऋषिकेश को ही पार्थ अर्जुन का रथ चलाने–सफलता का पथ–प्रशस्त करने आना पड़ता है। भक्त और भगवान के बीच अनादिकाल से यही क्रम चलता आया है व चलता रहेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 -अखण्ड ज्योति – मार्च 1982 पृष्ठ 2
🔴 उपासना का बहिरंग स्वरूप क्या हो– इसके विस्तार में अभी न जाकर यह देखा जाय कि परमेश्वर साधक के आन्तरिक स्तर को कैसा चाहता है? रामकृष्ण परमहंस कहते थे–”ईश्वर का दर्शन तब होता है जब पाँच सत्प्रवृत्तियाँ अन्दर प्रवेश पाने व फलने–फूलने लगती है। ये पाँच सत्प्रवृत्तियाँ हैं–उत्कृष्टता, निर्मलता, सहृदयता, उदारता, आत्मीयता। ये ही परमात्मा के–ईश्वरीय सत्ता के–भी गुण हैं। जैसे −जैसे इन गुणों का अनुपात अपने अन्दर बढ़ने लगता है, समझना चाहिए जीव उतना ही ईश्वर के समीप पहुँच गया है।”
🔵 इन पाँच सत्प्रवृत्तियों को परमेश्वर का प्रतिनिधि–पंचदेव भी कह सकते हैं। इन्हीं पाँच पाण्डवों को आजीवन आँतरिक असुर कौरवों से लड़ना होता है। जब असुरता के उन्मूलन का हृदय मंथन आक्रोश पूर्वक हो रहा हो–स्पष्ट मान लेना चाहिये कि जीव रूपी अर्जुन ने गीता का ज्ञान स्वीकार कर लिया और वह कृष्ण की आज्ञा मान कर्त्तव्य पारायण–सच्चा योगी–ईश्वर भक्त हो गया। उपासना स्थली पर बैठकर इन सद्गुणों के सम्वर्धन का ही ध्यान किया जाय तो उल्टे ऋषिकेश को ही पार्थ अर्जुन का रथ चलाने–सफलता का पथ–प्रशस्त करने आना पड़ता है। भक्त और भगवान के बीच अनादिकाल से यही क्रम चलता आया है व चलता रहेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 -अखण्ड ज्योति – मार्च 1982 पृष्ठ 2
👉 आत्मचिंतन के क्षण 4 April
🔴 भजन-पूजन आध्यात्मिक उन्नति की ओर बढ़ने के लिए एक उपाय है, स्वयं में अध्यात्म नहीं। अध्यात्मवाद का आशय कुछ ऊंचा और विस्तृत है। उसे आत्म-विज्ञान अथवा जीवन-विज्ञान ही मानना चाहिये। अध्यात्म द्वारा ही मनुष्य का आत्म-सुधार, आत्म-विकास हो जाने से मनुष्य के पास सुख-शाँति उसी प्रकार आ जाती है, जिस प्रकार सूर्य उदय होने पर संसार को प्रकाश स्वतः प्राप्त हो जाता है।
🔵 भजन-पूजन का मूल आशय यह होता है कि मनुष्य अपनी बुराइयों तथा विकारों से मुक्त हो। धार्मिक क्रियाओं में निरत होना एक प्रकार से आचरण निर्माण का संकल्प है। जो व्यक्ति पूजा-पाठ करता है, उसके माध्यम से परमात्मा से संपर्क बढ़ाता है, वह उस उच्चादर्श के कारण बाध्य है कि अपनी बुराइयाँ दूर करे और गुण ग्रहण करे। जो ऐसा नहीं करता, वह उस पुण्य क्रिया से वंचित करता है और परमात्मा के उस पवित्र सम्बन्ध का अपमान करता है। ऐसी वंचक उपासना करने वाले लोग आनन्द और सुख के कल्याणकारी परिणाम से वंचित ही रहते हैं।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 जीवन वीणा की तरह है। यदि इसके तार ज्यादा कस दोगे तो वह टूट जायेगा यदि ढीले छोड़ दोगे तो उसमें से स्वर नहीं निकलेगा। जीवन को यदि विलासमय बनाओगे तो संसार की तृष्णा में फंसे रह जाओगे और यदि अत्यन्त कष्टमय बनाओगे तो जीते जी मर जाओगे अतः मध्य मार्ग अपनाओ। जब तार न ज्यादा कसे होते हैं और न ढीले होते हैं, तभी वीणा बजती है। जीवन के तार भी मध्यम स्तर पर कसो, तभी निर्वाण प्राप्त कर सकोगे।
🌹 महात्मा गौतम बुद्ध
🔵 भजन-पूजन का मूल आशय यह होता है कि मनुष्य अपनी बुराइयों तथा विकारों से मुक्त हो। धार्मिक क्रियाओं में निरत होना एक प्रकार से आचरण निर्माण का संकल्प है। जो व्यक्ति पूजा-पाठ करता है, उसके माध्यम से परमात्मा से संपर्क बढ़ाता है, वह उस उच्चादर्श के कारण बाध्य है कि अपनी बुराइयाँ दूर करे और गुण ग्रहण करे। जो ऐसा नहीं करता, वह उस पुण्य क्रिया से वंचित करता है और परमात्मा के उस पवित्र सम्बन्ध का अपमान करता है। ऐसी वंचक उपासना करने वाले लोग आनन्द और सुख के कल्याणकारी परिणाम से वंचित ही रहते हैं।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 जीवन वीणा की तरह है। यदि इसके तार ज्यादा कस दोगे तो वह टूट जायेगा यदि ढीले छोड़ दोगे तो उसमें से स्वर नहीं निकलेगा। जीवन को यदि विलासमय बनाओगे तो संसार की तृष्णा में फंसे रह जाओगे और यदि अत्यन्त कष्टमय बनाओगे तो जीते जी मर जाओगे अतः मध्य मार्ग अपनाओ। जब तार न ज्यादा कसे होते हैं और न ढीले होते हैं, तभी वीणा बजती है। जीवन के तार भी मध्यम स्तर पर कसो, तभी निर्वाण प्राप्त कर सकोगे।
🌹 महात्मा गौतम बुद्ध
👉 नवरात्रि साधना का तत्वदर्शन (भाग 5)
🔴 सृष्टि जितनी पुरानी है, उससे भी कहीं अधिक आयु की यह गायत्री माता है। फिर 16 साल की यह सुन्दर नयन-नक्शों वाली युवती क्यों बनायी ! अरे! हमने आपको विचार करना सिखाया कि युवा नारी के बारे में आपको पवित्र दृष्टि रखते हुए यौन शुचिता का अभ्यास करना चाहिए । आप बेहूदे हैं। नारी को बाहर के तरीके से देखते हैं । नारी में आपको माता, बहन, बेटी नहीं दिखाई पड़ती । आपको तो सब वेश्या ही वेश्या दिखाई पड़ती हैं। हम आपकी दृष्टि बदलना चाहते हैं। कामुकता प्रधान चिंतन से आपको निकालकर एक नई दृष्टि देना चाहते हैं । यही मानसिक ब्रह्मचर्य है। आपको इसका, मर्यादा का पालन करना चाहिए, यह हमने आपको सिखाया।
🔵 आप कहेंगे गुरुजी हम तो ब्रह्मचारी हैं। एक बार जेल चले गये थे, मारपीट हो गयी थी तो हम ढाई वर्ष पत्नी से दूर जेल में रहे। हाँ साहब आप तो पक्के ब्रह्मचारी हो गए। अखण्ड ब्रह्मचर्य से भारी तेजस्वी आँखों में आशीर्वाद-वरदान की क्षमता आप में आ गयी। पागल हैं न आप। ढेरों आदमी बीमार होते हैं, नपुँसक हो जाते हैं, सब ब्रह्मचारी होते हैं काहे का ब्रह्मचारी। मित्रों ! ब्रह्मचर्य चिन्तन शैली है। आपके विचारों का प्रतीक है, जो आपके जीवन में एक अंग बन गए हैं।
🔴 जो संस्कार आपके जन्म-जन्मान्तरों से चले आ रहे हैं, उनका एक रूप आपकी कुदृष्टि व विचारों की झलकी के रूप में देखने को मिलता है । किसी जमाने में आप 84 लाख योनियों में एक कुत्ते भी थे क्या? हाँ गुरुजी जरूर रहे होंगे। बढ़ते- बढ़ते तभी तो आदमी बने हैं। जब कुत्ते रहे होंगे तब आपके सामने माँ-बहन का कोई रिश्ता था? नहीं साहब हमारी माँ एक बार हमारे सामने आ गई। कुआर का महीना था। माँ और औरत में हम फर्क नहीं कर सके व उससे हमने बच्चा पैदा कर दिया। उस योनि में हमें न बेटी का ख्याल था, न बहिन का, न माँ का।
🔵 बिरादरी तो बिरादरी है उसमें भला क्या फर्क करना । आप अभी करते हैं क्योंकि आप आदमी हैं। समाज की मर्यादाओं का एक नकाब आपके ऊपर पड़ा हुआ है । यदि यह नकाब ऊपर उठा दिया जाय, आपको नंगा करके देखा जाय तो वस्तुतः आप अभी भी उस बिरादरी में हैं, जिसका मैं जिक्र कर रहा था। बार बार नाम लूँगा तो आपको बुरा लगेगा । लेकिन है कि नहीं, छाती पर हाथ रख कर देखिये।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1992/April/v1.57
🔵 आप कहेंगे गुरुजी हम तो ब्रह्मचारी हैं। एक बार जेल चले गये थे, मारपीट हो गयी थी तो हम ढाई वर्ष पत्नी से दूर जेल में रहे। हाँ साहब आप तो पक्के ब्रह्मचारी हो गए। अखण्ड ब्रह्मचर्य से भारी तेजस्वी आँखों में आशीर्वाद-वरदान की क्षमता आप में आ गयी। पागल हैं न आप। ढेरों आदमी बीमार होते हैं, नपुँसक हो जाते हैं, सब ब्रह्मचारी होते हैं काहे का ब्रह्मचारी। मित्रों ! ब्रह्मचर्य चिन्तन शैली है। आपके विचारों का प्रतीक है, जो आपके जीवन में एक अंग बन गए हैं।
🔴 जो संस्कार आपके जन्म-जन्मान्तरों से चले आ रहे हैं, उनका एक रूप आपकी कुदृष्टि व विचारों की झलकी के रूप में देखने को मिलता है । किसी जमाने में आप 84 लाख योनियों में एक कुत्ते भी थे क्या? हाँ गुरुजी जरूर रहे होंगे। बढ़ते- बढ़ते तभी तो आदमी बने हैं। जब कुत्ते रहे होंगे तब आपके सामने माँ-बहन का कोई रिश्ता था? नहीं साहब हमारी माँ एक बार हमारे सामने आ गई। कुआर का महीना था। माँ और औरत में हम फर्क नहीं कर सके व उससे हमने बच्चा पैदा कर दिया। उस योनि में हमें न बेटी का ख्याल था, न बहिन का, न माँ का।
🔵 बिरादरी तो बिरादरी है उसमें भला क्या फर्क करना । आप अभी करते हैं क्योंकि आप आदमी हैं। समाज की मर्यादाओं का एक नकाब आपके ऊपर पड़ा हुआ है । यदि यह नकाब ऊपर उठा दिया जाय, आपको नंगा करके देखा जाय तो वस्तुतः आप अभी भी उस बिरादरी में हैं, जिसका मैं जिक्र कर रहा था। बार बार नाम लूँगा तो आपको बुरा लगेगा । लेकिन है कि नहीं, छाती पर हाथ रख कर देखिये।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1992/April/v1.57
👉 पूरा हुआ शक्तिपीठ की स्थापना का संकल्प
🔵 पहले मैं विभिन्न आध्यात्मिक विचारों में मत भिन्नता के कारण समझ नहीं पाता था कि किसे सही माना जाए। चमत्कारों की कहानियाँ अलग दुविधा में डालतीं, वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता, ऐसा कैसे संभव है।
🔴 द्विविधा से घिरा अंतर्मन किसी गहरे में ऐसा कोई विश्वसनीय आधार खोज रहा था, जिसका आलम्बन लेकर आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ा जा सके। ऐसे में जब अखण्ड ज्योति पत्रिका में वैज्ञानिक अध्यात्म की विलक्षण व्याख्या मिली तो मैं सहज ही आकृष्ट होता चला गया।
🔵 पहली बार ९ दिनों का सत्र करने शांतिकुंज पहुँचा तो ऐसा प्रभावित हुआ कि जीवन दिशा ही पलट गई। फिर तो मैं गुरुदेव का ऐसा भक्त हो गया, लगता कि अपना सब कुछ उनको दे डालूँ, तो भी कम ही है। गुरुदेव को आज तक कितने ही रूपों में देखा- सभी अविस्मरणीय, सभी प्रेरक।
🔴 बात उन दिनों की है, जब पटना में शक्तिपीठ बनाने की तैयारियाँ चल रही थीं। संकल्प लिया जाना था। मथुरा से आदरणीय लीलापत शर्मा जी का लिखा हुआ पत्र देकर चितरंजन जी को हरिद्वार भेजा गया।
🔵 वे शान्तिकुञ्ज पहुँचकर गुरुदेव से मिले। संकल्प की बात सुनते ही गुरुदेव आग बबूला हो उठे। उन्होंने डाटकर कहा- किसने भेजा? डरते हुए चित्तरंजन जी ने मथुरा से लाया हुआ पत्र दिखाया। गुरुदेव उसी तरह फिर बोले- लीलापत कौन है? भाग जा। शक्तिपीठ क्या उसके बाप का है?
🔴 उसने लौटकर सारी घटना बताई। मैंने सोचा, मैं ही जाकर देखूँ, हो सकता है उस समय कुछ वैसा कारण हो गया हो। इस बार मैं स्वयं शान्तिकुञ्ज पहुँचा। सबसे पहले जाकर आद. वीरेश्वर उपाध्याय जी से मिला। उनसे सब बातें बताई और आग्रह किया कि संकल्प के लिए समय निर्धारित कराएँ।
🔵 उन्होंने गुरुदेव से भेंट कर संकल्प का समय ले लिया। अगले ही दिन का समय मिला था। सुबह- सुबह तैयार होकर मैं गया। लेकिन गुरुदेव ने मेरी तरफ देखा तक नहीं। मेरे साथ उपाध्याय जी भी थे। मैंने उनकी तरफ देखा। वे भी हैरान थे। काफी समय बीत गया, तो उन्होंने गुरुदेव का ध्यान आकृष्ट कराया- ये संकल्प के लिए आए हैं। गुरुजी ने बिना मेरी ओर देखे ही दो- टूक जवाब दिया- संकल्प नहीं होगा। इतना कहकर वे मौन हो गए।
🔴 असमंजस की मनःस्थिति में वापस लौटा। मैंने उपाध्याय जी से पूछा- कैसा टाइम लिया था आपने? वे कहते तो क्या कहते। वे खुद ही हैरत में थे।
🔵 मैं समझ नहीं पा रहा था कि अब आगे क्या करूँ। लौट जाऊँ या एक बार फिर प्रयास करके देखूँ। अगर बिना संकल्प किए लौटना पड़ा, तो लौटकर लोगों को क्या जवाब दूँगा? सच- सच बता भी दूँ, तो जब संकल्प के लिए मना करने का कारण पूछा जाएगा तो क्या कहूँगा? लोग तो यही सोचेंगे कि मेरी ही तरफ से कोई लापरवाही बरती गई होगी।
🔴 पूज्य गुरुदेव द्वारा शक्तिपीठ स्थापना के लिए इस कठोरता से मना करने के कारणों तक पहुँचने के लिए मैं बेचैन हो उठा। शुरू से आखिर तक के सभी प्रयासों की समीक्षा की, फिर आत्मविश्लेषण की दृष्टि से अपने आपको टटोला कि शायद मुझ में ही संकल्प की पात्रता न हो, जिसके कारण कार्य में बाधा आ रही हो।
🔵 गुरुदेव के क्रोध का कारण मैं हो सकता हूँ। यह सोचकर मेरा अन्तर्मन विचलित हो उठा। मन ही मन उनसे अनुनय विनय करने लगा कि कोई गलती हुई हो तो बता दीजिए। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मुझे बहुत दुःखी देखकर उपाध्याय जी ने समझाया- निराश मत होइए। अभी संकल्प का समय नहीं आया है, बाद में देखा जाएगा। अगले दिन मैं उदास मन से वापस पटना लौट आया।
🔴 करीब डेढ़ महीने बाद माताजी की बात से पूज्य गुरुदेव द्वारा संकल्प को कठोरतापूर्वक रोके जाने का रहस्य खुला। मेरे वापस जाने के बाद गुरुदेव ने कहा था कि उस समय संकल्प लेने से मेरे जीवन पर और शक्तिपीठ पर खतरा आ जाता।
🔵 मैं समझता हूँ, उस समय विरोध भाव रखने वाले कुछ व्यक्ति स्थानीय स्तर पर इतने अधिक प्रभावशाली थे कि भिड़ने की स्थिति भी बन सकती थी। आधिभौतिक दृष्टि से तो मैं इतना ही देख सका। इसके अलावा जो आधिदैविक और आध्यात्मिक अड़चनें रही होंगी, उनको तो गुरुदेव ही जानें।
🌹 मधेश्वर प्रसाद सिंह आई.ए.एस से.नि. पटना (बिहार)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/pura
🔴 द्विविधा से घिरा अंतर्मन किसी गहरे में ऐसा कोई विश्वसनीय आधार खोज रहा था, जिसका आलम्बन लेकर आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ा जा सके। ऐसे में जब अखण्ड ज्योति पत्रिका में वैज्ञानिक अध्यात्म की विलक्षण व्याख्या मिली तो मैं सहज ही आकृष्ट होता चला गया।
🔵 पहली बार ९ दिनों का सत्र करने शांतिकुंज पहुँचा तो ऐसा प्रभावित हुआ कि जीवन दिशा ही पलट गई। फिर तो मैं गुरुदेव का ऐसा भक्त हो गया, लगता कि अपना सब कुछ उनको दे डालूँ, तो भी कम ही है। गुरुदेव को आज तक कितने ही रूपों में देखा- सभी अविस्मरणीय, सभी प्रेरक।
🔴 बात उन दिनों की है, जब पटना में शक्तिपीठ बनाने की तैयारियाँ चल रही थीं। संकल्प लिया जाना था। मथुरा से आदरणीय लीलापत शर्मा जी का लिखा हुआ पत्र देकर चितरंजन जी को हरिद्वार भेजा गया।
🔵 वे शान्तिकुञ्ज पहुँचकर गुरुदेव से मिले। संकल्प की बात सुनते ही गुरुदेव आग बबूला हो उठे। उन्होंने डाटकर कहा- किसने भेजा? डरते हुए चित्तरंजन जी ने मथुरा से लाया हुआ पत्र दिखाया। गुरुदेव उसी तरह फिर बोले- लीलापत कौन है? भाग जा। शक्तिपीठ क्या उसके बाप का है?
🔴 उसने लौटकर सारी घटना बताई। मैंने सोचा, मैं ही जाकर देखूँ, हो सकता है उस समय कुछ वैसा कारण हो गया हो। इस बार मैं स्वयं शान्तिकुञ्ज पहुँचा। सबसे पहले जाकर आद. वीरेश्वर उपाध्याय जी से मिला। उनसे सब बातें बताई और आग्रह किया कि संकल्प के लिए समय निर्धारित कराएँ।
🔵 उन्होंने गुरुदेव से भेंट कर संकल्प का समय ले लिया। अगले ही दिन का समय मिला था। सुबह- सुबह तैयार होकर मैं गया। लेकिन गुरुदेव ने मेरी तरफ देखा तक नहीं। मेरे साथ उपाध्याय जी भी थे। मैंने उनकी तरफ देखा। वे भी हैरान थे। काफी समय बीत गया, तो उन्होंने गुरुदेव का ध्यान आकृष्ट कराया- ये संकल्प के लिए आए हैं। गुरुजी ने बिना मेरी ओर देखे ही दो- टूक जवाब दिया- संकल्प नहीं होगा। इतना कहकर वे मौन हो गए।
🔴 असमंजस की मनःस्थिति में वापस लौटा। मैंने उपाध्याय जी से पूछा- कैसा टाइम लिया था आपने? वे कहते तो क्या कहते। वे खुद ही हैरत में थे।
🔵 मैं समझ नहीं पा रहा था कि अब आगे क्या करूँ। लौट जाऊँ या एक बार फिर प्रयास करके देखूँ। अगर बिना संकल्प किए लौटना पड़ा, तो लौटकर लोगों को क्या जवाब दूँगा? सच- सच बता भी दूँ, तो जब संकल्प के लिए मना करने का कारण पूछा जाएगा तो क्या कहूँगा? लोग तो यही सोचेंगे कि मेरी ही तरफ से कोई लापरवाही बरती गई होगी।
🔴 पूज्य गुरुदेव द्वारा शक्तिपीठ स्थापना के लिए इस कठोरता से मना करने के कारणों तक पहुँचने के लिए मैं बेचैन हो उठा। शुरू से आखिर तक के सभी प्रयासों की समीक्षा की, फिर आत्मविश्लेषण की दृष्टि से अपने आपको टटोला कि शायद मुझ में ही संकल्प की पात्रता न हो, जिसके कारण कार्य में बाधा आ रही हो।
🔵 गुरुदेव के क्रोध का कारण मैं हो सकता हूँ। यह सोचकर मेरा अन्तर्मन विचलित हो उठा। मन ही मन उनसे अनुनय विनय करने लगा कि कोई गलती हुई हो तो बता दीजिए। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मुझे बहुत दुःखी देखकर उपाध्याय जी ने समझाया- निराश मत होइए। अभी संकल्प का समय नहीं आया है, बाद में देखा जाएगा। अगले दिन मैं उदास मन से वापस पटना लौट आया।
🔴 करीब डेढ़ महीने बाद माताजी की बात से पूज्य गुरुदेव द्वारा संकल्प को कठोरतापूर्वक रोके जाने का रहस्य खुला। मेरे वापस जाने के बाद गुरुदेव ने कहा था कि उस समय संकल्प लेने से मेरे जीवन पर और शक्तिपीठ पर खतरा आ जाता।
🔵 मैं समझता हूँ, उस समय विरोध भाव रखने वाले कुछ व्यक्ति स्थानीय स्तर पर इतने अधिक प्रभावशाली थे कि भिड़ने की स्थिति भी बन सकती थी। आधिभौतिक दृष्टि से तो मैं इतना ही देख सका। इसके अलावा जो आधिदैविक और आध्यात्मिक अड़चनें रही होंगी, उनको तो गुरुदेव ही जानें।
🌹 मधेश्वर प्रसाद सिंह आई.ए.एस से.नि. पटना (बिहार)
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