मंगलवार, 22 मई 2018
👉 कृपा कर क्रोध मत कीजिए (अन्तिम भाग)
🔷 समाज में दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं—एक वे जो क्षण भर भी अकेले नहीं रह सकते। यदि उन्हें अकेला रहना पड़ जाय तो वह पागल हो जावें, और दूसरे वे जो समाज में आने से डरते हैं। जब तक समाज में रहते हैं सतर्क रहते हैं, सदा उससे भागने की चेष्टा में रहते हैं और जब वे उससे अलग हो जाते हैं तो अपने−आपको सुखी पाते हैं। पहले प्रकार के व्यक्ति बहिर्मुखी कहलाते हैं और दूसरे प्रकार के अन्तर्मुखी। पहले प्रकार के लोग प्रसन्न चित्त दिखाई देते हैं। दूसरे प्रकार के लोग दुखी दिखाई देते हैं पर होते हैं शान्त। पहले प्रकार के लोगों का क्रोध अति प्रबल होता है। वे सभी से अपने प्रसन्न रखे जाने की आशा करते हैं। पर जब यह आशा पूरी नहीं होती तो उनका क्रोध अपरिमित हो जाता है। जब इस क्रोध का प्रदर्शन किसी दूसरे व्यक्ति पर नहीं होता, तो वह निराशा में परिणत हो जाता है।
🔶 इस तरह समाज में अधिक रहने कि इच्छा क्रोध और निराशा मूलक होती है। यह इच्छा मनुष्य को परावलंबी बनाती है तथा स्वावलंबन को कम करती है। ऐसी ही अवस्था में क्रोध हमें अपने आवेश में उड़ा लेता है। जिस प्रक्रिया से हम स्वावलम्बी बनते हैं उसी से हम क्रोध पर विजय पाते हैं। अंतर्मुखी होना स्वार्थी बनना नहीं है। जो दूसरों की सेवा से बचना चाहते हैं, वे वास्तविक अन्तर्मुखी नहीं हैं वे स्वार्थी हैं। अन्तर्मुखी दूसरों की सेवा करने में सब से आगे और दूसरों से सेवा ग्रहण करने में सब से पीछे रहता है।
🔷 प्रत्येक भाव के संस्कार हमारे अदृश्य मन में रहते हैं और इन संस्कारों के अनुसार हमारा आचरण बनता जाता है। जो व्यक्ति अपने मन के कुसंस्कारों को तुरंत मिटा देता है वह बड़ा बुद्धिमान है। क्रोध के संस्कार प्रेम से मिटते हैं। जिसे व्यक्ति के प्रति क्रोध कि या जाय उसके प्रति शीघ्रातिशीघ्र प्रेम प्रदर्शित करना चाहिए। कभी भी अपनी भूल को स्वीकार करना बुरा नहीं है। भूल स्वीकार करने से मन बलवान होता है तथा उसकी भूल करने की प्रवृत्ति जाती रहती है। यहाँ यह सोचना उचित नहीं कि क्रोध जिस व्यक्ति पर किया गया वह तुच्छ है अथवा उससे हमारा कोई प्रयोजन आगे न होगा। हमें दूसरों से कुछ प्रयोजन भले ही न हो अपने आप से तो अवश्य प्रयोजन है।
🔶 दूसरों के प्रति क्रोध करके हम अपने आपके प्रति अन्याय करते हैं इस अन्याय का प्रतिकार हमें तुरंत करना चाहिए। यदि ऐसा न किया जाय तो अन्याय की प्रवृत्ति प्रतिक्षण बढ़ती जाती है जिसका आगे चलकर भयंकर परिणाम होता है। अन्याय का प्रायश्चित पश्चात्ताप में नहीं है, न्याय में है। दूसरों के प्रति किए अनर्थ का पाप उनकी सेवा करने से दूर होता है। क्रोध का प्रतिकार प्रेम है न कि आत्मग्लानि, वह उसका स्वाभाविक परिणाम है। प्रेम, क्रोध और उसके सभी परिणामों को नष्ट करता है।
📖 अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 7
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1955/April/v1.7
🔶 इस तरह समाज में अधिक रहने कि इच्छा क्रोध और निराशा मूलक होती है। यह इच्छा मनुष्य को परावलंबी बनाती है तथा स्वावलंबन को कम करती है। ऐसी ही अवस्था में क्रोध हमें अपने आवेश में उड़ा लेता है। जिस प्रक्रिया से हम स्वावलम्बी बनते हैं उसी से हम क्रोध पर विजय पाते हैं। अंतर्मुखी होना स्वार्थी बनना नहीं है। जो दूसरों की सेवा से बचना चाहते हैं, वे वास्तविक अन्तर्मुखी नहीं हैं वे स्वार्थी हैं। अन्तर्मुखी दूसरों की सेवा करने में सब से आगे और दूसरों से सेवा ग्रहण करने में सब से पीछे रहता है।
🔷 प्रत्येक भाव के संस्कार हमारे अदृश्य मन में रहते हैं और इन संस्कारों के अनुसार हमारा आचरण बनता जाता है। जो व्यक्ति अपने मन के कुसंस्कारों को तुरंत मिटा देता है वह बड़ा बुद्धिमान है। क्रोध के संस्कार प्रेम से मिटते हैं। जिसे व्यक्ति के प्रति क्रोध कि या जाय उसके प्रति शीघ्रातिशीघ्र प्रेम प्रदर्शित करना चाहिए। कभी भी अपनी भूल को स्वीकार करना बुरा नहीं है। भूल स्वीकार करने से मन बलवान होता है तथा उसकी भूल करने की प्रवृत्ति जाती रहती है। यहाँ यह सोचना उचित नहीं कि क्रोध जिस व्यक्ति पर किया गया वह तुच्छ है अथवा उससे हमारा कोई प्रयोजन आगे न होगा। हमें दूसरों से कुछ प्रयोजन भले ही न हो अपने आप से तो अवश्य प्रयोजन है।
🔶 दूसरों के प्रति क्रोध करके हम अपने आपके प्रति अन्याय करते हैं इस अन्याय का प्रतिकार हमें तुरंत करना चाहिए। यदि ऐसा न किया जाय तो अन्याय की प्रवृत्ति प्रतिक्षण बढ़ती जाती है जिसका आगे चलकर भयंकर परिणाम होता है। अन्याय का प्रायश्चित पश्चात्ताप में नहीं है, न्याय में है। दूसरों के प्रति किए अनर्थ का पाप उनकी सेवा करने से दूर होता है। क्रोध का प्रतिकार प्रेम है न कि आत्मग्लानि, वह उसका स्वाभाविक परिणाम है। प्रेम, क्रोध और उसके सभी परिणामों को नष्ट करता है।
📖 अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 7
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1955/April/v1.7
👉 Awakening Divinity in Man (Part 8)
🔷 Friends! When God is pleased, He does not give you the petty worldly things you hanker after. Rather, He bestows on you godlike qualities which elevate your soul. The lives of world’s really great personage demonstrate this fact. None among them was such who did not receive God’s grace, guidance and cooperation of the masses they served. Give me one name of a great personality who was not endowed with any godly qualities of compassion, love, faith and service and who did not elicit spontaneous and loving cooperation from those who followed him.
🔶 The noble values and principles of morality, ethics and spontaneity when adopted in conduct, help in enhancements of talents and resources. Saints adhere to great ideals of god like lives. They are never poor; required resources arrive at their doorstep. But they do not accumulate them; they generously share them with the needy.
🔷 When our minds are cleansed of all impurities and perversions, our material and inner resources are augmented. How many examples should I mention? The life of everyone who followed the ideal path of love-in-action and selfless service exemplifies this fact. They are true devotees in my view. I consider the worship and devotion of only those as true and worthwhile who could attract divine energies of their deity by the nobility of their character, by the magnetism of their virtues and by their single-minded determination at self refinement and self effacement When deities are happy with your worship, they bless you with the attributes of a divine being: enlightened wisdom, compassion and selfless service.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
🔶 The noble values and principles of morality, ethics and spontaneity when adopted in conduct, help in enhancements of talents and resources. Saints adhere to great ideals of god like lives. They are never poor; required resources arrive at their doorstep. But they do not accumulate them; they generously share them with the needy.
🔷 When our minds are cleansed of all impurities and perversions, our material and inner resources are augmented. How many examples should I mention? The life of everyone who followed the ideal path of love-in-action and selfless service exemplifies this fact. They are true devotees in my view. I consider the worship and devotion of only those as true and worthwhile who could attract divine energies of their deity by the nobility of their character, by the magnetism of their virtues and by their single-minded determination at self refinement and self effacement When deities are happy with your worship, they bless you with the attributes of a divine being: enlightened wisdom, compassion and selfless service.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
👉 गुरुगीता (भाग 116)
👉 कष्टों में भी प्रसन्न रखती है- गुरूभक्ति
🔷 इस प्रकरण को विस्तार देते हुए भगवान् भोलेनाथ पराम्बा माँ भगवती से कहते हैं-
आयुरारोग्यमैयश्वर्यपुत्रपौत्रप्रवर्धनम्। अकामतः स्त्री विधवा जपान्मोक्षमवान्पुयात् ॥ १४६॥
अवैधव्यं सकामा तु लभते चान्यजन्मनि। सर्वदुःखभयं विध्नं नाशयेच्छापहारकम्॥ १४७॥
सर्वबाधाप्रशमनं धर्मार्थकाममोक्षदम्। यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्॥ १४८॥
कामितस्य कामधेनुः कल्पनाकल्पपादपः। चिन्तामणिः चिंतितस्य सर्वमङ्गलकारकम्॥१४९॥
मोक्षहेतुर्जपेत् नित्यं मोक्षश्रियमवाप्नुयात्। भोगकामो जपेद्यो वै तस्य कामफलप्रदम्॥१५०॥
🔶 गुरूगीता के विधिपूर्वक अनुष्ठान से आयु आरोग्य ऐश्वर्य एवं पुत्र- पौत्रों की वृद्धि होती है। विधवा स्त्री यदि निष्काम भाव से इसका पाठ करे, तो उन्हें मोक्ष मिलता है॥१४६॥ यदि वे सकाम भाव से पाठ करें, तो उन्हें अगले जन्म में अचल सौभाग्य की प्राप्ति होती है। गुरूगीता के पाठ से सभी दुःख, भय, विध्न एवं शापों का नाश होता है॥ १४७॥ इसकी साधना सभी बाधाओं का शमन करके धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष देने वाली है। यहाँ तक कि साधक जो- जो भी इच्छा करता है, वे सभी इच्छाएँ इससे निश्चित ही पूरी होती है।। १४८॥ यह गुरूगीता का पाठ कामना पूर्ति के लिए कामधेनु है। कल्पनाओं को साकार करने वाला कल्पतरू है। यह चिुंताओं को दूर करने वाली चिंतामणि है। इससे सभी का सब तरह से मंगल होता है॥१४९॥ मोक्ष की इच्छा से जो इसका पाठ करता है, उसे मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। भोग की इच्छा से पाठ करने वाले को मनवांछित भोग मिलते हैं॥१५०॥
🔷 भगवान् शिव के इन वचनों में गहरी सार्थकता एवं रहस्यमयता है। कई बार सामान्य जन इसकी रहस्यमयता के कारण गुरूगीता की साधना की सार्थकता नहीं समझ पाते। उन्हें लगता है, जो साधना में तत्पर है, उन्हें भला इतने कष्ट क्यों मिलते हैं। गुरूभक्त शिष्यों पर इतनी अधिक विपत्तियाँ क्यों आती हैं? सत्पथ पर चलते हुए उन्हें इतने ज्यादा संकटों का सामना क्यों करना पड़ता है? जबकि दुर्गुणी -दुराचारी लोगों को उनकी तुलना में ज्यादा सुख- भोग उठाते देखा जाता है। इन बातों के अटपटे रहस्यों का भेद करने में इन साधारण लोगों की बुद्धि हतप्रभ रह जाती है। उन्हें इस आध्यात्मिक उलटबासी में न कोई सार्थकता नजर आती है और न कोई यथार्थता। ऐसे लोग सदा- सदा अपने बौद्धिक प्रपंचों में उलझे रहकर साधना, तपस्या एवं सत्कर्मों से दूरी बनाये रखते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 174
🔷 इस प्रकरण को विस्तार देते हुए भगवान् भोलेनाथ पराम्बा माँ भगवती से कहते हैं-
आयुरारोग्यमैयश्वर्यपुत्रपौत्रप्रवर्धनम्। अकामतः स्त्री विधवा जपान्मोक्षमवान्पुयात् ॥ १४६॥
अवैधव्यं सकामा तु लभते चान्यजन्मनि। सर्वदुःखभयं विध्नं नाशयेच्छापहारकम्॥ १४७॥
सर्वबाधाप्रशमनं धर्मार्थकाममोक्षदम्। यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्॥ १४८॥
कामितस्य कामधेनुः कल्पनाकल्पपादपः। चिन्तामणिः चिंतितस्य सर्वमङ्गलकारकम्॥१४९॥
मोक्षहेतुर्जपेत् नित्यं मोक्षश्रियमवाप्नुयात्। भोगकामो जपेद्यो वै तस्य कामफलप्रदम्॥१५०॥
🔶 गुरूगीता के विधिपूर्वक अनुष्ठान से आयु आरोग्य ऐश्वर्य एवं पुत्र- पौत्रों की वृद्धि होती है। विधवा स्त्री यदि निष्काम भाव से इसका पाठ करे, तो उन्हें मोक्ष मिलता है॥१४६॥ यदि वे सकाम भाव से पाठ करें, तो उन्हें अगले जन्म में अचल सौभाग्य की प्राप्ति होती है। गुरूगीता के पाठ से सभी दुःख, भय, विध्न एवं शापों का नाश होता है॥ १४७॥ इसकी साधना सभी बाधाओं का शमन करके धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष देने वाली है। यहाँ तक कि साधक जो- जो भी इच्छा करता है, वे सभी इच्छाएँ इससे निश्चित ही पूरी होती है।। १४८॥ यह गुरूगीता का पाठ कामना पूर्ति के लिए कामधेनु है। कल्पनाओं को साकार करने वाला कल्पतरू है। यह चिुंताओं को दूर करने वाली चिंतामणि है। इससे सभी का सब तरह से मंगल होता है॥१४९॥ मोक्ष की इच्छा से जो इसका पाठ करता है, उसे मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। भोग की इच्छा से पाठ करने वाले को मनवांछित भोग मिलते हैं॥१५०॥
🔷 भगवान् शिव के इन वचनों में गहरी सार्थकता एवं रहस्यमयता है। कई बार सामान्य जन इसकी रहस्यमयता के कारण गुरूगीता की साधना की सार्थकता नहीं समझ पाते। उन्हें लगता है, जो साधना में तत्पर है, उन्हें भला इतने कष्ट क्यों मिलते हैं। गुरूभक्त शिष्यों पर इतनी अधिक विपत्तियाँ क्यों आती हैं? सत्पथ पर चलते हुए उन्हें इतने ज्यादा संकटों का सामना क्यों करना पड़ता है? जबकि दुर्गुणी -दुराचारी लोगों को उनकी तुलना में ज्यादा सुख- भोग उठाते देखा जाता है। इन बातों के अटपटे रहस्यों का भेद करने में इन साधारण लोगों की बुद्धि हतप्रभ रह जाती है। उन्हें इस आध्यात्मिक उलटबासी में न कोई सार्थकता नजर आती है और न कोई यथार्थता। ऐसे लोग सदा- सदा अपने बौद्धिक प्रपंचों में उलझे रहकर साधना, तपस्या एवं सत्कर्मों से दूरी बनाये रखते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 174
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