अन्तरात्मा की इस शुद्ध भावदशा में ही आत्मा की सम्पदा प्रकट होती है। सूर्य की रश्मियों की भाँति ही आत्मा की सम्पत्तियां साधक में प्रकट होती है। यहीं पर शिष्य के जीवन में, साधक के जीवन में सच्चा स्वामित्व विकसित होता है। इसी स्वामित्व की चाहत शिष्य के जीवन में होनी चाहिए। दुनियावी जीवन में हम स्वामित्व की चाहत तो रखते हैं पर यह चाहत होती धन, साधन, भवन- सम्पत्ति का स्वामी बनने की। स्वयं का स्वामी भला कौन होना चाहता है? हालांकि जो स्वयं का स्वामी है, अपना मालिक है वही सच्चे अर्थों में स्वामी है। बाकी सब तो धोखा है। धन, दुकान- मकान का मालिक बनकर हम केवल गुलाम बनते हैं।
इस अटपटे वचन को समझने के लिए सूफी सन्त फरीद के जीवन की एक घटना को समझ लेना ठीक रहेगा। बाबा फरीद अपने शिष्यों के साथ एक गाँव से गुजर रहे थे। वहीं रास्ते में एक आदमी अपनी गाय को रस्सी से बांधे लिए जा रहा था। फरीद ने उस आदमी से थोड़ी देर रुकने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर वह रुक गया। अब बाबा फरीद ने अपने शिष्यों से पूछा- इन दोनों में मालिक कौन है- गाय या आदमी। शिष्यों ने कहा- यह भी कोई बात हुई, जाहिर है, आदमी गाय का मालिक है।
फरीद ने फिर कहा- यदि गाय के गले की रस्सी काट दी जाय तो कौन किसके पीछे दौड़ेगा- गाय आदमी के पीछे या फिर आदमी गाय के पीछे। शिष्यों ने कहा- जाहिर है आदमी गाय के पीछे भागेगा। तो फिर मालिक कौन हुआ? फरीद ने शिष्यों से कहा, यह जो रस्सी तुम्हें दिखाई पड़ती है गाय के गले में, यह दरअसल आदमी के गले में है। आत्मा की सम्पत्ति को छोड़कर बाकी हर सम्पत्ति हमारे गले का फंदा बन जाती है। यथार्थ में आत्म सम्पदा ही सच्ची सम्पदा है। सच्चे शिष्य ही इसे पाने में समर्थ होते हैं। शिष्यत्व की यह सामर्थ्य किस तरह बढ़े- इसका विवरण अगले पृष्ठों में अनावृत्त होगा।
क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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