जो प्राप्त है, उसमें प्रसन्नता अनुभव करते हुए अधिक के लिए प्रयत्नशील रहना बुद्धिमानी की बात है, पर यह पहले सिरे की मूर्खता है कि अपनी कल्पना के अनुरूप सब कुछ न मिल पाने पर मनुष्य खिन्न और असंतुष्ट ही बना रहे। सबकी सब इच्छाएँ कभी पूरी नहीं हो सकतीं। अधूरे में भी जो संतोष कर सकता है, उसी को इस संसार में थोड़ी सी प्रसन्नता उपलब्ध हो सकती है, अन्यथा असंतोष और तृष्णा की आग में जल मरने के अतिरिक्त और कोई चारा नहींं है।
जिस तरह साधनों की पवित्रता आवश्यक है, उसी तरह साध्य की उत्कृष्टता भी आवश्यक है। साध्य निकृष्ट हो और उसमें अच्छे साधनों को भी लगा दिया जाये तो कोई हितकर परिणाम प्राप्त नहीं होगा। उलटे उससे व्यक्ति और समाज की हानि ही होगी। उत्कृष्ट साधन भी निकृष्ट लक्ष्य की पूर्ति के आधार बनकर समाज में बुराइयाँ पैदा करने लगते हैं। बुराइयाँ तो अपने आप भी फैल जाती हैं, लेकिन किन्हीं समर्थ साधनों का प्रयोग किया जाय तो वे व्यापक स्तर पर फैलने लगती हैं। अतः जिनके पास साधन हैं, माध्यम हैं, उन्हें आवश्यकता है उत्कृष्ट लक्ष्य के निर्धारण की।
अभी तक किसी महापुरुष के जीवन से ऐसा कोई उदाहारण नहीं मिला, जहाँ घृणा, द्वेष, परदोष दर्शन तथा प्रतिशोध के द्वारा किसी मंगल कार्य की सिद्धि हुई हो। प्रतिशोध से मनुष्य की बुद्धि नष्ट होती है। विवेक चला जाता है। जीवन की सारी शान्ति और आनंद नष्ट हो जाता है। इस तरह के दोषपूर्ण विचार मानवीय प्रगति को रोक देते हैं। मनुष्य न तो सांसारिक उन्नति कर पाता है और न ही आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा कर पाता है। इससे मानसिक जड़ता आती है और सारी क्रिया शक्ति बर्बाद हो जाती है।
दूसरों की आँखों में धूल डालकर स्वयं बुरे होते हुए भी अच्छाई की छाप डाल देना चतुरता का चिह्न माना जाता है और आजकल लोग करते भी ऐसा ही हैं। झूठी और नकली बातें अफवाहों के रूप में इस तरह फैला देते हैं कि लोग धोखा खा जाते हैं और बुरे को भी अच्छा कहने लगते हैं। ऐसे बहके हुए लोगों की बहकी बातों को सुनकर थोड़ी देर का बाहरी मनोरंजन भले ही कर लिया जाय पर उससे शान्ति कभी भी नहीं हो सकती।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य