मंगलवार, 20 जून 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 20 June 2023

🔶 देवताओं की प्रसन्नता खुशामद पसंद लोभी व्यक्तियों की तरह सस्ती नहीं होती। उनकी अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए किसी को भी कदम-कदम पर अपने दोष दुर्गुणों को दूर करना होगा, जीवन को पवित्र बनाना होगा। अपने मन, वचन तथा कर्मों में देवत्व का समावेश करना होगा जिसके लिए आत्म-संयम, त्याग तथा तपश्चर्या पूर्वक जीवन साधना करनी होगी अन्यथा केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता।

🔷 महत्वाकाँक्षा बुरी नहीं है, सम्मान एवं आदर की इच्छा है, किन्तु यह अहमन्यता, राग, द्वेष, प्रतिहिंसा, स्पर्द्धा, ईर्ष्या अथवा अपात्रत्व से दूषित हो जाती है तो विष बनकर अपने आश्रयदाता को नष्ट कर देती है। हीनता से भड़की हुई महत्ता की भावना प्रायः ध्वंसक बना देती है जिससे मनुष्य ऐतिहासिक होकर भी अपयश के कारण लोक-परलोक दोनों में पाप एवं अपवाद का भागी बनता है।

🔶 यदि उन्नति की आकाँक्षा है तो साहस संचय कीजिए और आगे बढ़िये। जो कुछ है वह भी जा  सकता है इस अनिष्ट आशंका को दूर भगाइए। संसार में कुछ खो कर ही पाया जा सकता है। खतरा पार करके ही विजय मिल सकती है। बीज गलकर ही फसल प्राप्त हो सकती है। बिना साहस किये और खतरा मोल लिये न तो कोई आज तक आगे बढ़ पाया है और न आगे ही उन्नति कर सकेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 स्वाध्याय में प्रमाद मत करो। (भाग 2)

अपने आपको जानने के लिए स्वाध्याय से बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है। यहाँ तक इससे बढ़कर कोई पुराण भी नहीं है। शतपथ में लिखा है कि :-
जितना पुण्य धन धान्य से पूर्ण इस समस्त पृथ्वी को दान देने से मिलता है उसका तीन गुना पुण्य तथा उससे भी अधिक पुण्य स्वाध्याय करने वाले को प्राप्त होता है।

मानवजीवन का धर्म ही एक मात्र अध्ययन है। इस धर्म के यह अध्ययन एवं दान के ये ही तीन आधार हैं :-

त्रयोधर्मस्कन्धा यशोऽध्ययनं दानमिति।
छान्दो॰ 2।32।1
अपने स्वत्व को छोड़ना दान कहलाता है और अपना कर्त्तव्य करना यश। लेकिन स्वत्व छोड़ने तथा कर्त्तव्य करने का ज्ञान देने वाला तथा उसकी तैयारी कराकर उस पथ पर अग्रसर कराने वाला स्वाध्याय या अध्ययन है।

किन्हीं महापुरुषों का कहना है कि स्वाध्याय तो तप है। तप के द्वारा शक्ति का संचय होता है। शक्ति के संचय से मनुष्य शक्तिवान बनता है। चमत्कार को नमस्कार करने वाले बहुत हैं, जिसके पास शक्ति नहीं है उसे कोई भी नहीं पूछता। इसलिए जो तपस्वी हैं उनसे सभी भयभीत रहते हैं और उनके भय से समाज अपने अपने कर्त्तव्य का साँगोपाँग पालन करता रहता है।

तप का प्रधान अंग है एकाग्रता। निरन्तरपूर्वक एकाग्रता के साथ निश्चित समय पर जिस कार्य को किया जाता है उसमें अवश्य सफलता मिलती है। उत्कंठा से प्रेरणा मिलती है, और मन के विश्वास में दृढ़ता आती है। बिना दृढ़ता के दुनिया का कोई कार्य कभी भी सफल नहीं हुआ है। अनेकों में दृढ़ता की व्यक्ति की एकाग्रता के लिए अपेक्षा रहती है। और जब नियमितता आ जाती है तो ये सब मिलकर तप का रूप धारण कर लेती है। यह तप आत्मा पर पड़े हुए मल को दूर करेगा और उसे चमका देगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1948 दिसम्बर पृष्ठ 4


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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...