इस जन्म में भी प्राप्य है—असम्प्रज्ञात समाधि
बस इसके लिए श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा को अपने में जगाना होगा। ध्यान रहे, यह जागरण क्रम से होता है। जो श्रद्धावान् है, वही अगले क्रम में वीर्यवान् होगा। वीर्यवान्, स्मृतिवान् बनेगा। और स्मृतिवान् क्रमिक रूप से समाधि के सत्य को जानेगा और प्रज्ञा को उपलब्ध होगा। योग जीवन का, साधना जीवन का सबसे पहला तत्त्व श्रद्धा है। श्रद्धा शब्द से प्रत्येक अध्यात्म प्रेमी परिचित हैं। श्रद्धा के बारे में पर्याप्त कहा-सुना एवं पढ़ा-लिखा जाता है। लेकिन यह शब्दोच्चार भर पर्याप्त नहीं है। जरूरत कुछ ज्यादा की है। श्रद्धा का सत्य एवं मर्म जब तक जिन्दगी में नहीं उतरता, तब तक बात नहीं बनेगी। युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव कहते थे- श्रद्धा अस्तित्व के गहनतम क्षेत्र कारण शरीर में जन्मती एवं पनपती है। श्रद्धा के तरंगित होने पर समूचा अस्तित्व तरंगित होता है। जिसके प्रति श्रद्धा है- उसके प्रति समूचा व्यक्तित्व, अपना सारा अस्तित्व अपने आप ही उमड़ने लगता है। सार रूप में श्रद्धा का प्रारम्भ समग्र समर्पण का प्रारम्भ है। इसकी चरम परिणति में साधक का अस्तित्व स्वयं ही साध्य में विलीन हो जाता है। साधना के प्रति श्रद्धा का जन्म होते ही वीर्य अर्थात् साहसिक प्रयत्न प्रारम्भ हो जाते हैं। श्रद्धा हुई इसकी पहचान भी यही है। निष्क्रिय, निठल्ली एवं निकम्मी भावनाओं को कभी भी श्रद्धा का नाम नहीं दिया जा सकता।
यदा-कदा यह भी देखा जाता है कि श्रद्धा के नाम पर लोग अपने आलस्य को प्रश्रय देते हैं, पर यथार्थ स्थिति इसके विपरीत है। श्रद्धा व्यक्ति में चरम साहस को जन्म देती है। युगऋषि गुरुदेव के शब्दों में यह चरम साहस ही वीर्य है। गुरुदेव के अनुसार साधना के सन्दर्भ में वीर्य का सच्चा अर्थ यही है। जो परम साहसी नहीं है, वह साधक नहीं हो सकता। रक्त की बूँद तक, प्राण के अन्तिम कण तक, जीवन के अन्तिम क्षण तक जो साहस करते हैं, वही सच्चे साधक होने का गौरव हासिल करते हैं। ऐसे प्रयत्न से ही स्मृति का जागरण होता है। मालूम पड़ता है, अहसास जगता है कि मैं कौन हूँ। पहले यह स्मृति धुंधली हल्की होती है। परन्तु साधक के साहसिक प्रयत्न ज्यों-त्यों सघन होते जाते हैं, त्यों-त्यों स्पष्ट रीति से स्मृति जगने लगती है।
ध्यान रहे, स्मृति का अर्थ याददाश्त तक सिमटा नहीं है। स्मृति का अर्थ तो होश जगना है। स्वयं अपने बारे में सार्थक अहसास होना है। अस्तित्व की गहराइयों में अपने सच्चे स्वरूप की झलक मिलना है। यह झलक साधना को प्रगाढ़ करती है। साधक के प्रयत्नों में और भी तीव्रता एवं त्वरा पैदा होती है। स्मृति की झलकियों में जब मन तदाकार होने लगता है, तब समाधि प्रस्फुटित होती है। यह भावदशा है, जब साधक अपनी साधना में पूरी तरह डूब जाता है। साधक, साधना एवं साध्य तीनों आपस में घुल-मिल जाते हैं। यही से जीवन रूपान्तरित होना शुरू होता है। अन्तरतम में बदलाव के स्वर फूटते हैं। समाधि में साधक की चेतना समग्र, सम्पूर्ण एवं प्रकाशित होती है और इसी बिन्दु पर प्रज्ञा प्रकट होती है। बोध के स्वर जन्म लेते हैं। सत्य समझ में आता है। जन्म-जन्मान्तर के बन्धन खुलते हैं। वासना-तृष्णा-अहंता तीनों ही ग्रन्थियाँ खुलने लगती है। बड़ी ही अपूर्व अवस्था है यह।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ८८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या