शनिवार, 27 जून 2020
👉 अंजाने में हुए कर्मो का फल
काशी के एक ब्राह्मण के सामने से एक गाय भागती हुई किसी गली में घुस गई. तभी वहां एक आदमी आया. उसने गाय के बारे में पूछा. . पंडितजी माला फेर रहे थे इसलिए कुछ बोला नहीं बस हाथ से उस गली का इशारा कर दिया जिधर गाय गई थी. पंडितजी इस बात से अंजान थे कि वह आदमी कसाई है और गौमाता उसके चंगुल से जान बचाकर भागी थीं. कसाई ने पकड़कर गोवध कर दिया.
अंजाने में हुए इस घोर पाप के कारण पंडितजी अगले जन्म में कसाई घर में जन्मे नाम पड़ा, सदना. पर पूर्वजन्म के पुण्यकर्मो के कारण कसाई होकर भी वह उदार और सदाचारी थे. कसाई परिवार में जन्मे होने के कारण आजीविका के लिये और कोई उपाय न होने से दूसरों के यहाँ से मांस लाकर बेचा करते थे, स्वयं अपने हाथ से पशु-वध नहीं करते थे। सदना की भगवान का भजन करने में बड़ी निष्ठा थी.
एक दिन सदना को नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा मिला. पत्थर अच्छा लगा इसलिए वह उसे मांस तोलने के लिए अपने साथ ले आए. वह इस बात अंजान थे कि यह वह वही शालिग्राम थे जिन्हें पूर्वजन्म नित्य पूजते थे. सदना कसाई पूर्वजन्म के शालिग्राम को इस जन्म में मांस तोलने के लिए बटखरे के रूप में प्रयोग करने लगे. आदत के अनुसार सदना ठाकुरजी के भजन गाते रहते थे.ठाकुरजी भक्त की स्तुति का पलड़े में झूलते हुए आनंद लेते रहते. बटखरे का कमाल ऐसा था कि चाहे आधे किलो तोलना हो, एक किलो या दो किलो सारा वजन उससे पक्का हो जाता. .
एक दिन सदना की दुकान के सामने से एक ब्राह्मण निकले. उनकी नजर बाट पर पड़ी तो सदना के पास आए और शालिग्राम को अपवित्र करने के लिए फटकारा. . उन्होंने कहा- मूर्ख, जिसे पत्थर समझकर मांस तौल रहे हो वे शालिग्राम भगवान हैं. ब्राह्मण ने सदना से शालिग्राम भगवान को लिया और घर ले आए. गंगा जल से नहलाया, धूप, दीप,चन्दन से पूजा की. ब्राह्मण को अहंकार हो गया जिस शालिग्राम से पतितों का उद्दार होता है आज एक शालिग्राम का वह उद्धार कर रहा है. रात को उसके सपने में ठाकुरजी आए और बोले- तुम जहां से लाए हो वहीँ मुझे छोड़ आओ. मेरा भक्त सदन कसाई की भक्ति में जो बात है वह तुम्हारे आडंबर में नहीं. ब्राह्मण बोला- प्रभु! सदना कसाई का पापकर्म करता है. आपका प्रयोग मांस तोलने में करता है. मांस की दुकान जैसा अपवित्र स्थान आपके योग्य नहीं. भगवान बोले- भक्ति में भरकर सदना मुझे तराजू में रखकर तोलता था मुझे ऐसा लगता है कि वह मुझे झूला रहा हो. मांस की दुकान में आने वालों को भी मेरे नाम का स्मरण कराता है. मेरा भजन करता है. जो आनन्द वहां मिलता था वह यहां नहीं. तुम मुझे वही छोड आओ. ब्राह्मण शालिग्राम भगवान को वापस सदना कसाई को दे आए. .
ब्राह्मण बोला- भगवान को तुम्हारी संगति ही ज्यादा सुहाई. यह तो तुम्हारे पास ही रहना चाहते हैं. ये शालिग्राम भगवान का स्वरुप हैं. हो सके तो इन्हें पूजना बटखरा मत बनाना. . सदना ने यह सुना अनजाने में हुए अपराध को याद करके दुखी हो गया. सदना ने प्राश्चित का निश्चय किया और भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए निकल पड़ा. वह भी भगवान के दर्शन को जाते एक समूह में शामिल हो गए लेकिन लोगों को पूछने पर उसने बता दिया कि वह कसाई का काम करता था. लोग उससे दूर-दूर रहने लगे. उसका छुआ खाते-पीते नहीं थे. दुखी सदना ने उनका साथ छोड़ा और शालिग्रामजी के साथ भजन करता अकेले चलने लगा.
सदना को प्यास लगी थी. रास्ते में एक गांव में कुंआ दिखा तो वह पानी पीने ठहर गया. वहां एक सुन्दर स्त्री पानी भर रही थी. वह सदना के सुंदर मजबूत शरीर पर रीझ गई. उसने सदना से कहा कि शाम हो गई है. इसलिए आज रात वह उसके घर में ही विश्राम कर लें. सदना को उसकी कुटिलता समझ में न आई, वह उसके अतिथि बन गए. . रात में वह स्त्री अपने पति के सो जाने पर सदना के पास पहुंच गई और उनसे अपने प्रेम की बात कही. स्त्री की बात सुनकर सदना चौंक गए और उसे पतिव्रता रहने को कहा. स्त्री को लगा कि शायद पति होने के कारण सदना रुचि नहीं ले रहे. वह चली गई और वह गई और सोते हुए पति का गला काट लाई. सदना भयभीत हो गए. स्त्री समझ गई कि बात बिगड़ जाएगी इसलिए उसने रोना-चिल्लाना शुरू कर दिया. पड़ोसियों से कह दिया कि इस यात्री को घर में जगह दी. चोरी की नीयत से इसने मेरे पति का गला काट दिया. सदना को पकड़ कर न्यायाधीश के सामने पेश किया गया. न्यायाधीश ने सदना को देखा तो ताड़ गए कि यह हत्यारा नहीं हो सकता. उन्होने बार-बार सदना से सारी बात पूछी. . सदना को लगता था कि यदि वह प्यास से व्याकुल गांव में न पहुंचते तो हत्या न होती. वह स्वयं को ही इसके लिए दोषी मानते थे. अतः वे मौन ही रहे. . न्यायाधीश ने राजा को बताया कि एक आदमी अपराधी है नहीं पर चुप रहकर एक तरह से अपराध की मौन स्वीकृति दे रहा है. इसे क्या दंड दिया जाना चाहिए? . राजा ने कहा- यदि वह प्रतिवाद नहीं करता तो दण्ड अनिवार्य है. अन्यथा प्रजा में गलत सन्देश जाएगा कि अपराधी को दंड नहीं मिला. इसे मृत्युदंड मत दो, हाथ काटने का हुक्म दो. सदना का दायां हाथ काट दिया गया.
सदना ने अपने पूर्वजन्म के कर्म मानकर चुपचाप दंड सहा और जगन्नाथपुरी धाम की यात्रा शुरू की. धाम के निकट पहुंचे तो भगवान ने अपने सेवक राजा को प्रियभक्त सदना कसाई की सम्मान से अगवानी का आदेश दिया. प्रभु आज्ञा से राजा गाजे-बाजे लेकर अगुवानी को आया. सदना ने यह सम्मान स्वीकार नहीं किया तो स्वयं ठाकुरजी ने दर्शन दिए. उन्हें सारी बात सुनाई- तुम पूर्वजन्म में ब्राहमण थे. तुमने संकेत से एक कसाई को गाय का पता बताया था. तुम्हारे कारण जिस गाय की जान गई थी वही स्त्री बनी है जिसके झूठे आरोपों से तुम्हारा हाथ काटा गया. उस स्त्री का पति पूर्वजन्म का कसाई बना था जिसका वध कर गाय ने बदला लिया है.
भगवान बोले- सभी के शुभ और अशुभ कर्मों का फल मैं देता हूं. अब तुम निष्पाप हो गए हो. घृणित आजीविका के बावजूद भी तुमने धर्म का साथ न छोड़ा. इसलिए तुम्हारे प्रेम को मैंने स्वीकार किया. मैं तुम्हारे साथ मांस तोलने वाले तराजू में भी प्रसन्न रहा. भगवान के दर्शन से सदनाजी को मोक्ष प्राप्त हुआ. भक्त सदनाजी की कथा हमें बताती है कि भक्ति में आडंबर नहीं भावना मायने रखती है. भगवान के नाम का गुणगान करना सबसे बड़ा पुण्य है।
अंजाने में हुए इस घोर पाप के कारण पंडितजी अगले जन्म में कसाई घर में जन्मे नाम पड़ा, सदना. पर पूर्वजन्म के पुण्यकर्मो के कारण कसाई होकर भी वह उदार और सदाचारी थे. कसाई परिवार में जन्मे होने के कारण आजीविका के लिये और कोई उपाय न होने से दूसरों के यहाँ से मांस लाकर बेचा करते थे, स्वयं अपने हाथ से पशु-वध नहीं करते थे। सदना की भगवान का भजन करने में बड़ी निष्ठा थी.
एक दिन सदना को नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा मिला. पत्थर अच्छा लगा इसलिए वह उसे मांस तोलने के लिए अपने साथ ले आए. वह इस बात अंजान थे कि यह वह वही शालिग्राम थे जिन्हें पूर्वजन्म नित्य पूजते थे. सदना कसाई पूर्वजन्म के शालिग्राम को इस जन्म में मांस तोलने के लिए बटखरे के रूप में प्रयोग करने लगे. आदत के अनुसार सदना ठाकुरजी के भजन गाते रहते थे.ठाकुरजी भक्त की स्तुति का पलड़े में झूलते हुए आनंद लेते रहते. बटखरे का कमाल ऐसा था कि चाहे आधे किलो तोलना हो, एक किलो या दो किलो सारा वजन उससे पक्का हो जाता. .
एक दिन सदना की दुकान के सामने से एक ब्राह्मण निकले. उनकी नजर बाट पर पड़ी तो सदना के पास आए और शालिग्राम को अपवित्र करने के लिए फटकारा. . उन्होंने कहा- मूर्ख, जिसे पत्थर समझकर मांस तौल रहे हो वे शालिग्राम भगवान हैं. ब्राह्मण ने सदना से शालिग्राम भगवान को लिया और घर ले आए. गंगा जल से नहलाया, धूप, दीप,चन्दन से पूजा की. ब्राह्मण को अहंकार हो गया जिस शालिग्राम से पतितों का उद्दार होता है आज एक शालिग्राम का वह उद्धार कर रहा है. रात को उसके सपने में ठाकुरजी आए और बोले- तुम जहां से लाए हो वहीँ मुझे छोड़ आओ. मेरा भक्त सदन कसाई की भक्ति में जो बात है वह तुम्हारे आडंबर में नहीं. ब्राह्मण बोला- प्रभु! सदना कसाई का पापकर्म करता है. आपका प्रयोग मांस तोलने में करता है. मांस की दुकान जैसा अपवित्र स्थान आपके योग्य नहीं. भगवान बोले- भक्ति में भरकर सदना मुझे तराजू में रखकर तोलता था मुझे ऐसा लगता है कि वह मुझे झूला रहा हो. मांस की दुकान में आने वालों को भी मेरे नाम का स्मरण कराता है. मेरा भजन करता है. जो आनन्द वहां मिलता था वह यहां नहीं. तुम मुझे वही छोड आओ. ब्राह्मण शालिग्राम भगवान को वापस सदना कसाई को दे आए. .
ब्राह्मण बोला- भगवान को तुम्हारी संगति ही ज्यादा सुहाई. यह तो तुम्हारे पास ही रहना चाहते हैं. ये शालिग्राम भगवान का स्वरुप हैं. हो सके तो इन्हें पूजना बटखरा मत बनाना. . सदना ने यह सुना अनजाने में हुए अपराध को याद करके दुखी हो गया. सदना ने प्राश्चित का निश्चय किया और भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए निकल पड़ा. वह भी भगवान के दर्शन को जाते एक समूह में शामिल हो गए लेकिन लोगों को पूछने पर उसने बता दिया कि वह कसाई का काम करता था. लोग उससे दूर-दूर रहने लगे. उसका छुआ खाते-पीते नहीं थे. दुखी सदना ने उनका साथ छोड़ा और शालिग्रामजी के साथ भजन करता अकेले चलने लगा.
सदना को प्यास लगी थी. रास्ते में एक गांव में कुंआ दिखा तो वह पानी पीने ठहर गया. वहां एक सुन्दर स्त्री पानी भर रही थी. वह सदना के सुंदर मजबूत शरीर पर रीझ गई. उसने सदना से कहा कि शाम हो गई है. इसलिए आज रात वह उसके घर में ही विश्राम कर लें. सदना को उसकी कुटिलता समझ में न आई, वह उसके अतिथि बन गए. . रात में वह स्त्री अपने पति के सो जाने पर सदना के पास पहुंच गई और उनसे अपने प्रेम की बात कही. स्त्री की बात सुनकर सदना चौंक गए और उसे पतिव्रता रहने को कहा. स्त्री को लगा कि शायद पति होने के कारण सदना रुचि नहीं ले रहे. वह चली गई और वह गई और सोते हुए पति का गला काट लाई. सदना भयभीत हो गए. स्त्री समझ गई कि बात बिगड़ जाएगी इसलिए उसने रोना-चिल्लाना शुरू कर दिया. पड़ोसियों से कह दिया कि इस यात्री को घर में जगह दी. चोरी की नीयत से इसने मेरे पति का गला काट दिया. सदना को पकड़ कर न्यायाधीश के सामने पेश किया गया. न्यायाधीश ने सदना को देखा तो ताड़ गए कि यह हत्यारा नहीं हो सकता. उन्होने बार-बार सदना से सारी बात पूछी. . सदना को लगता था कि यदि वह प्यास से व्याकुल गांव में न पहुंचते तो हत्या न होती. वह स्वयं को ही इसके लिए दोषी मानते थे. अतः वे मौन ही रहे. . न्यायाधीश ने राजा को बताया कि एक आदमी अपराधी है नहीं पर चुप रहकर एक तरह से अपराध की मौन स्वीकृति दे रहा है. इसे क्या दंड दिया जाना चाहिए? . राजा ने कहा- यदि वह प्रतिवाद नहीं करता तो दण्ड अनिवार्य है. अन्यथा प्रजा में गलत सन्देश जाएगा कि अपराधी को दंड नहीं मिला. इसे मृत्युदंड मत दो, हाथ काटने का हुक्म दो. सदना का दायां हाथ काट दिया गया.
सदना ने अपने पूर्वजन्म के कर्म मानकर चुपचाप दंड सहा और जगन्नाथपुरी धाम की यात्रा शुरू की. धाम के निकट पहुंचे तो भगवान ने अपने सेवक राजा को प्रियभक्त सदना कसाई की सम्मान से अगवानी का आदेश दिया. प्रभु आज्ञा से राजा गाजे-बाजे लेकर अगुवानी को आया. सदना ने यह सम्मान स्वीकार नहीं किया तो स्वयं ठाकुरजी ने दर्शन दिए. उन्हें सारी बात सुनाई- तुम पूर्वजन्म में ब्राहमण थे. तुमने संकेत से एक कसाई को गाय का पता बताया था. तुम्हारे कारण जिस गाय की जान गई थी वही स्त्री बनी है जिसके झूठे आरोपों से तुम्हारा हाथ काटा गया. उस स्त्री का पति पूर्वजन्म का कसाई बना था जिसका वध कर गाय ने बदला लिया है.
भगवान बोले- सभी के शुभ और अशुभ कर्मों का फल मैं देता हूं. अब तुम निष्पाप हो गए हो. घृणित आजीविका के बावजूद भी तुमने धर्म का साथ न छोड़ा. इसलिए तुम्हारे प्रेम को मैंने स्वीकार किया. मैं तुम्हारे साथ मांस तोलने वाले तराजू में भी प्रसन्न रहा. भगवान के दर्शन से सदनाजी को मोक्ष प्राप्त हुआ. भक्त सदनाजी की कथा हमें बताती है कि भक्ति में आडंबर नहीं भावना मायने रखती है. भगवान के नाम का गुणगान करना सबसे बड़ा पुण्य है।
👉 मन—बुद्धि—चित्त अहंकार का परिष्कार (अंतिम भाग)
चित्त की शुद्धता का मुख्य लक्षण है उन स्मृतियों तथा संस्कारों का रहना जो शुभ एवं शिव हों। मलीन, दुःखद अथवा ग्लानिपूर्ण स्मृतियों तथा संस्कारों का प्रदर्शन करने वाला चित्त अशुद्ध ही माना जायेगा। स्मृतियों के सद और संस्कारों के शुद्ध होने से मनुष्य का चिन्तन एवं आचरण कल्याणकारी दिशा में ही चला करता है। जिसे शुभम् का ज्ञान ही नहीं, शिवत्व की पहचान नहीं वह न तो सत्कर्मों की ओर बढ़ सकता है और न चिन्तन में माँगलिक संस्थान ही चित्त की शुद्धता के लक्षण हैं।
शरीर तथा संसार के प्रति अहंकार अशुद्ध है और यही अहंकार तब शुद्ध ही कहा जाएगा जब यह आत्मा अथवा परमात्मा के प्रति हो। अपने को शरीर समझना और क्षणभंगुर साँसारिक भोगों का भोक्ता भर समझना अशुद्ध अहंकार है। अपने को शुद्ध-बुद्ध चेतना, आत्मा और परमात्मा का प्रतिनिधि मान कर साँसारिक भोगों के प्रति मोक्ष की भावना न रख कर कर्तव्यवान की भावना रखना अहंकार की शुद्धता की द्योतक है।
इस प्रकार इन वृत्तियों की शुद्धता अशुद्धता के लक्षण समझ कर निर्णय कर लेना चाहिए कि उसका अन्तःकरण किस सीमा तक शुद्ध अथवा अशुद्ध है और फिर उसी अनुपात से चिन्तन, मनन तथा सत्कर्मों के द्वारा उसे अधिकाधिक शुद्ध बनाने में लग जाना चाहिये। स्वार्थ रहित सात्विक आहार-विहार तथा आचार-विचार का अभ्यास अपना लेने से मनुष्य की चारों वृत्तियाँ आप से आप शुद्ध होने लगती हैं। मन को प्रसन्न रखिये, बुद्धि को विकृतियों से बचाइये, चित्त पर शिव संस्कारों की छाप डालिये और अहंकार को शरीर से आत्मा अथवा परमात्मा की ओर उन्मुख करिये, आपका अन्तःकरण शुद्ध हो जायेगा। इस प्रकार का सकर्मक अभ्यास ही आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने का प्रयास है, जिसे पाकर मनुष्य जीवन शाश्वत सुख का अधिकारी बन कर सफल एवं सार्थक हो जाता है। यह आध्यात्मिक उपलब्धि संसार की सारी उपलब्धियों का मूल तथा सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसे हर प्रयत्न पर प्राप्त कर मनुष्य को अपने नश्वर जीवन को अनश्वर बनाना ही चाहिए।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1961 पृष्ठ 9
शरीर तथा संसार के प्रति अहंकार अशुद्ध है और यही अहंकार तब शुद्ध ही कहा जाएगा जब यह आत्मा अथवा परमात्मा के प्रति हो। अपने को शरीर समझना और क्षणभंगुर साँसारिक भोगों का भोक्ता भर समझना अशुद्ध अहंकार है। अपने को शुद्ध-बुद्ध चेतना, आत्मा और परमात्मा का प्रतिनिधि मान कर साँसारिक भोगों के प्रति मोक्ष की भावना न रख कर कर्तव्यवान की भावना रखना अहंकार की शुद्धता की द्योतक है।
इस प्रकार इन वृत्तियों की शुद्धता अशुद्धता के लक्षण समझ कर निर्णय कर लेना चाहिए कि उसका अन्तःकरण किस सीमा तक शुद्ध अथवा अशुद्ध है और फिर उसी अनुपात से चिन्तन, मनन तथा सत्कर्मों के द्वारा उसे अधिकाधिक शुद्ध बनाने में लग जाना चाहिये। स्वार्थ रहित सात्विक आहार-विहार तथा आचार-विचार का अभ्यास अपना लेने से मनुष्य की चारों वृत्तियाँ आप से आप शुद्ध होने लगती हैं। मन को प्रसन्न रखिये, बुद्धि को विकृतियों से बचाइये, चित्त पर शिव संस्कारों की छाप डालिये और अहंकार को शरीर से आत्मा अथवा परमात्मा की ओर उन्मुख करिये, आपका अन्तःकरण शुद्ध हो जायेगा। इस प्रकार का सकर्मक अभ्यास ही आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने का प्रयास है, जिसे पाकर मनुष्य जीवन शाश्वत सुख का अधिकारी बन कर सफल एवं सार्थक हो जाता है। यह आध्यात्मिक उपलब्धि संसार की सारी उपलब्धियों का मूल तथा सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसे हर प्रयत्न पर प्राप्त कर मनुष्य को अपने नश्वर जीवन को अनश्वर बनाना ही चाहिए।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1961 पृष्ठ 9
👉 Worship True Knowledge
There is nothing more sacred in this world then gyana (pure knowledge). It is also the divine virtue of the soul. God, the Omniscient manifests itself in absolute enlightenment through gyana. Gyana is the source of beatifying success and joy. Its light destroys all the darkness of ignorance and illusions from the mind and liberates the individual self from all thralldoms.
We remain entrapped in sorrows, sufferings, failures and discontent because our knowledge is incomplete, superficial. What we regard and acquire as knowledge, is simply a systematic accumulation of information of the perceivable world and thoughts fixed in a logical framework accepted by contemporary intellectuals.
The joy we hunt in the external things and worldly activities throughout our life is in fact hidden within our own self. We can’t experience it, we can’t discern between what is truly good and what is not because we don’t have true knowledge. The earlier we devote ourselves to attain this gyana the better.
Swadhyaya and Satsang (self-study and analysis in the light of the thoughts and works of elevated souls; and being in the company of such enlightened people) are the best means to accomplish the quest for gyana. The greater the number of individuals illumined by gyana, the faster and brighter will be the ascent of the society and the world they belong to.
📖 Akhand Jyoti, Apr. 1945
We remain entrapped in sorrows, sufferings, failures and discontent because our knowledge is incomplete, superficial. What we regard and acquire as knowledge, is simply a systematic accumulation of information of the perceivable world and thoughts fixed in a logical framework accepted by contemporary intellectuals.
The joy we hunt in the external things and worldly activities throughout our life is in fact hidden within our own self. We can’t experience it, we can’t discern between what is truly good and what is not because we don’t have true knowledge. The earlier we devote ourselves to attain this gyana the better.
Swadhyaya and Satsang (self-study and analysis in the light of the thoughts and works of elevated souls; and being in the company of such enlightened people) are the best means to accomplish the quest for gyana. The greater the number of individuals illumined by gyana, the faster and brighter will be the ascent of the society and the world they belong to.
📖 Akhand Jyoti, Apr. 1945
👉 दृष्टिकोण के अनुरूप संसार का स्वरूप (भाग ३)
संसार की अच्छी-बुरी तस्वीर वस्तुतः हमारे दृष्टिकोण और मनोदशा का ही प्रतिफलन है। दूसरों को भले रूप में देखना, भले दृष्टिकोण और बुरे रूप में देखना, बुरे दृष्टिकोण का ही परिणाम है। एक ही कोई व्यक्ति किसी को भला और हमें बुरा दीखता है तो इसको हम दोनों का दृष्टि वैचित्र्य ही माना जायेगा। यदि वह व्यक्ति अच्छा या बुरा ही होता, तो हम दोनों को अच्छा या बुरा ही दीखना चाहिये। जिस मरणासन्न रोगी कुत्ते को देखकर लोग घृणा से मुंह फेर लेते थे, उसको छू कर आती हुई हवा से बचते थे, उसी में दया और प्रेम की पवित्रता से प्रकाशमान् हृदय वाले ईसा मसीह ने भगवान् की प्रभुता का दर्शन किया और विह्वल होकर गोद में उठा लिया।
एक मन्दिर में भौतिक और आध्यात्मिक भिन्न दृष्टिकोण वाले दो व्यक्ति जाते हैं और प्रतिमा को ध्यानपूर्वक देखते हैं। जहां भौतिक दृष्टिकोण का व्यक्ति मूर्ति के पत्थर, मुकुट और साज-श्रृंगार तक सीमित रहकर उसका मूल्य और कोटि ही देखता रहता है, वहां आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला उसमें भगवान् की झांकी का दर्शन करता हुआ, भक्ति-भावना में विभोर हो जाता है। उसी प्रकार यदि चोर व्यक्ति उसको देखता है, तो उसे बड़ा माल दीखता है और चोरी के दांव-घात सोचने लगता है और यदि कोई उदार दानी देखता है, तो सोने लगता है कि अभी यहां पर इस वस्तु या इस बात की पूर्ति नहीं हो पाई है, यह पूर्ति होनी चाहिये और उसकी उदार वृत्ति कुछ कर सकने के लिये प्रेरित हो उठती है।
संसार की भलाई-बुराई इतना महत्त्व नहीं रखती, जितना कि हमारा निज का दृष्टिकोण। यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित नहीं है, तो हमको संसार में दोष दिखाई ही न देंगे और यदि दिखाई भी देंगे, तो न हमारा ध्यान ही उधर जायेगा और न हम उसको कोई महत्त्व ही देंगे। जिसे हम प्यार करते हैं, जिसके प्रति हमारी मनोभावना अनुकूल है, दृष्टिकोण स्निग्ध एवं सरल है वह यदि कोई अप्रियता भी कर देता है, किसी बुराई या हानि का प्रमाण भी देता है, तो भी हमारे मन में उसके लिए द्वेष अथवा घृणा उत्पन्न नहीं होती, हम उसे हंसकर टाल देते हैं अथवा उधर ध्यान ही नहीं देते। इसके विपरीत यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित है, तो पीलिया के रोगी की तरह हमें सारा संसार पीला-पीला ही दिखाई देगा। किसी की साधारण-सी भूल भी हमें पहाड़ जैसी दीखेगी और हम अपना अप्रिय करने वाले से लड़ने-झगड़ने को तैयार हो जायेंगे।
संसार का अपना कोई विशेष स्वरूप नहीं है। वह हर मनुष्य को उसके मनोभावों के अनुकूल ही दिखाई देता है। हमारा मानसिक प्रतिबिम्ब ही हमें बाह्य संसार में प्रतिफलित होता हुआ दिखाई देता है। दूसरे को भले रूप में देखना हमारी पुरोगामी मानसिक दशा का और बुरे रूप में देखना प्रतिगामी मानसिक दशा का परिणाम है। मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, उसके विचार भी उसी के अनुसार बन जाते हैं। सर्वत्र सच्चाई और अच्छाई का दृष्टिकोण रखने वाले को संसार में कहीं भी अप्रियता अथवा प्रतिकूलता दिखलाई नहीं देती और दृष्टिकोण के प्रतिगामी होते ही संसार में बुराई के सिवाय और कुछ दिखाई ही नहीं देता। शिष्यों को इसी सत्य के अवगत करने के लिए एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा कि एक बुरा आदमी खोज लाओ और दुर्योधन को एक अच्छा आदमी खोज लाने के लिये भेजा। कुछ देर बाद युधिष्ठिर और दुर्योधन अकेले ही वापिस आ गये और उन्होंने क्रम से बतलाया कि आचार्य उनको कोई बुरा अथवा अच्छा आदमी नहीं मिला।
आचार्य ने शिष्यों को समझाया कि यह दोनों नगर में अच्छे-बुरे आदमियों की खोज करने गये, किन्तु अपनी शुभ मनोभावना के कारण युधिष्ठिर को कोई बुरा आदमी न दीखा और अशुभ दृष्टि-दोष के कारण दुर्योधन को कोई आदमी अच्छा ही न दिखलाई दिया नगर के सारे आदमी वही थे, किन्तु इन दोनों को अपने मनोभावों और दृष्टिकोण के कारण सब अच्छे अथवा बुरे ही दिखाई दिये। संसार में न कुछ सर्वदा अच्छा है और न बुरा, यह हमारे अपने मनोभावों और दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि संसार हमको किस रूप में दिखलाई देता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 38
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.38
एक मन्दिर में भौतिक और आध्यात्मिक भिन्न दृष्टिकोण वाले दो व्यक्ति जाते हैं और प्रतिमा को ध्यानपूर्वक देखते हैं। जहां भौतिक दृष्टिकोण का व्यक्ति मूर्ति के पत्थर, मुकुट और साज-श्रृंगार तक सीमित रहकर उसका मूल्य और कोटि ही देखता रहता है, वहां आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला उसमें भगवान् की झांकी का दर्शन करता हुआ, भक्ति-भावना में विभोर हो जाता है। उसी प्रकार यदि चोर व्यक्ति उसको देखता है, तो उसे बड़ा माल दीखता है और चोरी के दांव-घात सोचने लगता है और यदि कोई उदार दानी देखता है, तो सोने लगता है कि अभी यहां पर इस वस्तु या इस बात की पूर्ति नहीं हो पाई है, यह पूर्ति होनी चाहिये और उसकी उदार वृत्ति कुछ कर सकने के लिये प्रेरित हो उठती है।
संसार की भलाई-बुराई इतना महत्त्व नहीं रखती, जितना कि हमारा निज का दृष्टिकोण। यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित नहीं है, तो हमको संसार में दोष दिखाई ही न देंगे और यदि दिखाई भी देंगे, तो न हमारा ध्यान ही उधर जायेगा और न हम उसको कोई महत्त्व ही देंगे। जिसे हम प्यार करते हैं, जिसके प्रति हमारी मनोभावना अनुकूल है, दृष्टिकोण स्निग्ध एवं सरल है वह यदि कोई अप्रियता भी कर देता है, किसी बुराई या हानि का प्रमाण भी देता है, तो भी हमारे मन में उसके लिए द्वेष अथवा घृणा उत्पन्न नहीं होती, हम उसे हंसकर टाल देते हैं अथवा उधर ध्यान ही नहीं देते। इसके विपरीत यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित है, तो पीलिया के रोगी की तरह हमें सारा संसार पीला-पीला ही दिखाई देगा। किसी की साधारण-सी भूल भी हमें पहाड़ जैसी दीखेगी और हम अपना अप्रिय करने वाले से लड़ने-झगड़ने को तैयार हो जायेंगे।
संसार का अपना कोई विशेष स्वरूप नहीं है। वह हर मनुष्य को उसके मनोभावों के अनुकूल ही दिखाई देता है। हमारा मानसिक प्रतिबिम्ब ही हमें बाह्य संसार में प्रतिफलित होता हुआ दिखाई देता है। दूसरे को भले रूप में देखना हमारी पुरोगामी मानसिक दशा का और बुरे रूप में देखना प्रतिगामी मानसिक दशा का परिणाम है। मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, उसके विचार भी उसी के अनुसार बन जाते हैं। सर्वत्र सच्चाई और अच्छाई का दृष्टिकोण रखने वाले को संसार में कहीं भी अप्रियता अथवा प्रतिकूलता दिखलाई नहीं देती और दृष्टिकोण के प्रतिगामी होते ही संसार में बुराई के सिवाय और कुछ दिखाई ही नहीं देता। शिष्यों को इसी सत्य के अवगत करने के लिए एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा कि एक बुरा आदमी खोज लाओ और दुर्योधन को एक अच्छा आदमी खोज लाने के लिये भेजा। कुछ देर बाद युधिष्ठिर और दुर्योधन अकेले ही वापिस आ गये और उन्होंने क्रम से बतलाया कि आचार्य उनको कोई बुरा अथवा अच्छा आदमी नहीं मिला।
आचार्य ने शिष्यों को समझाया कि यह दोनों नगर में अच्छे-बुरे आदमियों की खोज करने गये, किन्तु अपनी शुभ मनोभावना के कारण युधिष्ठिर को कोई बुरा आदमी न दीखा और अशुभ दृष्टि-दोष के कारण दुर्योधन को कोई आदमी अच्छा ही न दिखलाई दिया नगर के सारे आदमी वही थे, किन्तु इन दोनों को अपने मनोभावों और दृष्टिकोण के कारण सब अच्छे अथवा बुरे ही दिखाई दिये। संसार में न कुछ सर्वदा अच्छा है और न बुरा, यह हमारे अपने मनोभावों और दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि संसार हमको किस रूप में दिखलाई देता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 38
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.38
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