बुधवार, 5 मई 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग १३)

जिसे भक्ति मिल जाए, वो और क्या चाहे?
    
‘‘हम सब भी आपके दर्शन से अनुग्रहीत हैं भगवन्!’’ देवर्षि ने लोमश ऋषि के कथन को पूर्णता दी और वहाँ उपस्थित ऋषियों व देवों को सम्बोधित करते हुए बोले- ‘‘मैं भक्ति के जिस सूत्र को कह रहा था, उसके साकार विग्रह ये लोमश ऋषि हैं। आज के सूत्र की व्याख्या में मैं इन्हीं महाभाग के जीवन का एक प्रसंग कहूँगा।’’ ‘अवश्य’ सप्तऋषियों सहित सभी ने अनुमोदन किया और ऋषि लोमश को एक पुष्पासन पर बिठाया। यह पुष्पासन ब्रह्मकमल से बना था। इसमें अनोखी सुगन्ध आ रही थी।
    
इधर देवर्षि कह रहे थे कि ‘‘यह प्रसंग बहुत पूर्व का है। उन दिनों स्वर्गाधिपति इन्द्र ने एक महल निर्मित कराया था। देवशिल्पी विश्वकर्मा ने अपनी समूची कुशलता उसमें डाल दी थी। इसके कक्ष, झरोखे, उद्यान, वापी सभी अद्भुत थे। सबसे आश्चर्य तो यह था कि इसकी जड़ता भी चैतन्य से आपूरित थी। इसके द्वार, इसमें रखी वस्तुएँ एक खास तरह के मानसिक संदेवनों से संचालित होती थीं। इसमें इच्छानुसार सभी विषय भोग उपस्थित हो जाते थे। अदृश्य देव-सेनायें इस अद्भुत महल की रक्षा के लिए सन्नद्ध थीं। देवशिल्पी अपनी कुशलता पर पुलकित थे। देवराज इन्द्र भी इसको ‘न भूतो न भविष्यति’ मान रहे थे।
    
जो भी स्वर्ग पधारता देवेन्द्र उसे अपना यह महल अवश्य दिखलाते और सबसे पूछते-ऐसा सुन्दर महल भी कहीं किसी ने बनाया है? इस प्रश्न के उत्तर में उच्चरित होने वाली महल की प्रशंसा उन्हें पुलकित कर देती। एक अवसर पर मैं स्वयं भी वहाँ पहुँचा। अपने स्वभाव के अनुसार देवेन्द्र ने अपने महल की चर्चा की और मुझे दिखाने ले गये। उनकी अपेक्षा थी कि मैं उसकी प्रशंसा में कुछ कहूँ, परन्तु मेरे आराध्य का संकेत देवेन्द्र को प्रबोध देने को था, सो मैंने उनसे कहा-देवाधिपति! यह सच है कि मैं लोकान्तरों में भ्रमण करता हूँ। मैंने शिल्प की कई विचित्रताएँ देखी हैं परन्तु अभी भी मुझमें अनुभव की कमी है। सत्य की सही व सटीक व्याख्या तो किसी ऐसे व्यक्ति से सम्भव है जो सबसे दीर्घायु हो। कौन है ऐसा? देवेन्द्र के कथन में त्वरा थी। उत्तर में मैंने इन महाभाग लोमश की चर्चा की।
    
अपनी समृद्धि, वैभव की प्रशंसा सुनने के लिए आतुर देवेन्द्र महर्षि लोमश से मिलने के लिए आकुल हो उठे। मैं उन्हें लेकर सुमेरू शिखर आया, उन दिनों महर्षि वहीं पर तप निरत थे। मेरा मन भी इन पूज्य चरणों के दर्शन का था। देवेन्द्र के साथ मैं सुमेरू शिखर पर पहुँचा। महर्षि आकाश की छाँव में सुमेरू शिखर पर तपोलीन थे। मैंने इन्हें प्रणाम किया। अंतर्यामी महर्षि को मेरे आगमन का हेतु पता चल गया था। फिर भी देवेन्द्र के संतोष के लिए मैंने उन्हें बताया कि ये स्वर्गाधिपति इन्द्र हैं। इन्होंने स्वर्गलोक में एक अनुपम महल का निर्माण किया है। ये जानना चाहते हैं कि क्या पहले भी किसी ने ऐसा महल बनाया था।
    
मेरे इस कथन पर महर्षि लोमश मुस्कराये और बोले-ये कौन से इन्द्र हैं देवर्षि? मैंने अपने सामने पाँच सौ इन्द्र एवं पचास ब्रह्म विनष्ट होते देखे हैं। महर्षि के इस कथन पर देवेन्द्र हैरान थे। उनकी हैरानी को दूर करते हुए मैंने उन्हें बताया-महर्षि लोमश अतिदीर्घायु हैं देवेन्द्र! इन्हें प्रभु का वर है कि एक ब्रह्मा के मरने पर इनके शरीर का एक लोम टूटेगा और जब तक शरीर की सभी लोम नहीं टूटेंगे, ये यूँ ही अमर रहेंगे। देवेन्द्र को मालूम था कि अखिल सृष्टि की आयु ब्रह्मा का एक दिन होती है और प्रलय रात्रि की अवधि उनकी एक रात्रि। ऐसे तीन सौ पैंसठ दिनों का वर्ष और फिर सौ वर्ष ब्रह्मा की आयु। उस पर भी ब्रह्मा के मरने पर इनका केवल लोम एक टूटता है और अभी तो शरीर के सारे लोम टूटेंगे।
    
महर्षि लोमश की आयु क्या होगी, यह सोचकर ही देवेन्द्र का सिर चकरा गया। उन्होंने लगभग काँपते हुए महर्षि से पूछा-भगवन्! आपको कभी अपने आश्रय की चिंता नहीं हुई। आपको किसी चाहत ने नहीं सताया। देवाधिपति के इस बाल कथन पर महर्षि हँसे और बोले-अरे! इस क्षणभंगुर जीवन के बारे में कितनी चिंता करनी इन्द्र! फिर मेरा योग-क्षेम तो प्रभु स्वयं करते हैं। जब से मुझे उनकी भक्ति का स्वाद मिला है, तब से मेरा मन न तो कुछ चाहता है, न सोचता है, न उसे किसी से द्वेष होता है, न कहीं रमता है और विषय भोगों में उसका उत्साह ही कहाँ।’’ नारद की बातों को सभी अनुभव कर रहे थे कि महर्षि सचमुच ही सूत्र का साकार स्वरूप हैं। जबकि स्वयं महर्षि के होठों पर मन्द हास्य था।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ३०

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग १३)

👉 कोई रंग नहीं दुनिया में

स्पष्ट है सभी दृश्य पदार्थ एक विशेष प्रकार के परमाणुओं का एक विशेष प्रकार का संयोग मात्र हैं। प्रत्येक परमाणु अत्यन्त तीव्र गति से गतिशील है। इस प्रकार हर पदार्थ अपनी मूल स्थिति में आश्चर्यजनक तीव्र गति से हरकत कर रहा है। पर खुली आंखें यह सब कुछ देख नहीं पातीं और वस्तुएं सामने जड़वत् स्थिर खड़ी मालूम पड़ती है। ऐसा ही अपनी पृथ्वी के बारे में भी होता है। भूमण्डल अत्यन्त तीव्र गति से (1) अपनी धुरी पर (2) सूर्य की परिक्रमा के लिए अपनी कक्षा पर (3) सौर मंडल सहित महासूर्य की परिक्रमा के पथ पर (4) घूमता हुआ लट्टू जिस तरह इधर उधर लहकता रहता है उस तरह लहकते रहने के क्रम पर (5) ब्रह्माण्ड के फलते फूलते जाने की प्रक्रिया के कारण अपने यथार्थ आकाश स्थान को छोड़ कर फैलता स्थान पकड़ते जाने की व्यवस्था पर—निरन्तर एक साथ पांच प्रकार की चालें चलती रहती हैं। इस उद्धत नृत्य को हम तनिक भी अनुभव नहीं करते और देखते हैं कि जन्म से लेकर मरण काल तक धरती अपने स्थान पर जड़वत् जहां की तहां पड़ी रही है। आंखों के द्वारा मस्तिष्क को इस सम्बन्ध में जो जानकारी दी जाती है और जैसी कुछ मान्यता आमतौर से बनी रहती है उसका विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि हम भ्रम अज्ञान की स्थिति में पड़े रहते हैं और कुछ का कुछ अनुभव करते रहते हैं, यह माया ग्रस्त स्थिति कही जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

जल में सूर्य चन्द्र के प्रतिबिम्ब पड़ते हैं और लगता है कि पानी में प्रकाश पिण्ड जगमगा रहे हैं। हल लहर पर प्रतिबिम्ब पड़ने से हर लहर पर एक चन्द्रमा नाचता थिरकता मालूम पड़ता है। रेल में बैठने वाले देखते हैं कि वे अपने स्थान पर स्थिर बैठे हैं केवल बाहर तार के खंभे और पेड़ आदि भाग रहे हैं। क्या यह अनुभूतियां सत्य हैं।

रात्रि को स्वप्न देखते हैं। उस स्वप्नावस्था में दिखाई पड़ने वाला घटना क्रम यथार्थ मालूम पड़ता है। देखते समय दुख-सुख भी होता है। यदि यथार्थ में संदेह होता तो कई बार मुख से कुछ शब्द निकल पड़ना—स्वप्नदोष आदि हो जाने की बात क्यों होती? जागने पर स्पष्ट हो जाता है कि जो अपना देखा गया था उसमें यथार्थ कुछ भी नहीं था। केवल कल्पनाओं की उड़ान को निद्रित मस्तिष्क ने यथार्थता अनुभव कर लिया। उतने समय की मूर्छित मनःस्थिति अपने को भ्रम जंजाल में फंसाये रह कर बेसिर पैर की उड़ानों में उड़ाती रही।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १९
परम पूज्य गुरुदेव ने ये पुस्तक 1979 में लिखी थी

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