रविवार, 26 जनवरी 2020

👉 साधना की सफलता का मार्ग


👉 सहनशीलता एवं क्षमाशीलता


बुद्ध भगवान एक गाँव में उपदेश दे रहे थे। उन्होंने कहा कि “हर किसी को धरती माता की तरह सहनशील तथा क्षमाशील होना चाहिए। क्रोध ऐसी आग है जिसमें क्रोध करने वाला दूसरों को जलाएगा तथा खुद भी जल जाएगा।”

सभा में सभी शान्ति से बुद्ध की वाणी सुन रहे थे, लेकिन वहाँ स्वभाव से ही अतिक्रोधी एक ऐसा व्यक्ति भी बैठा हुआ था जिसे ये सारी बातें बेतुकी लग रही थी। वह कुछ देर ये सब सुनता रहा फिर अचानक ही आग- बबूला होकर बोलने लगा, “तुम पाखंडी हो। बड़ी-बड़ी बातें करना यही तुम्हारा काम है। तुम लोगों को भ्रमित कर रहे हो, तुम्हारी ये बातें आज के समय में कोई मायने नहीं रखतीं “

ऐसे कई कटु वचनों सुनकर भी बुद्ध शांत रहे। अपनी बातों से ना तो वह दुखी हुए, ना ही कोई प्रतिक्रिया की; यह देखकर वह व्यक्ति और भी क्रोधित हो गया और उसने बुद्ध के मुंह पर थूक कर वहाँ से चला गया।

अगले दिन जब उस व्यक्ति का क्रोध शांत हुआ तो उसे अपने बुरे व्यवहार के कारण पछतावे की आग में जलने लगा और वह उन्हें ढूंढते हुए उसी स्थान पर पहुंचा, पर बुद्ध कहाँ मिलते वह तो अपने शिष्यों के साथ पास वाले एक अन्य गाँव निकल चुके थे।

व्यक्ति ने बुद्ध के बारे में लोगों से पूछा और ढूंढते- ढूंढते जहाँ बुद्ध प्रवचन दे रहे थे वहाँ पहुँच गया। उन्हें देखते ही वह उनके चरणो में गिर पड़ा और बोला , “मुझे क्षमा कीजिए प्रभु!”

बुद्ध ने पूछा : "कौन हो भाई? तुम्हे क्या हुआ है ? क्यों क्षमा मांग रहे हो?”

उसने कहा : “क्या आप भूल गए। मै वही हूँ जिसने कल आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया था। मै शर्मिन्दा हूँ। मैं मेरे दुष्ट आचरण की क्षमा याचना करने आया हूँ।”

भगवान बुद्ध ने प्रेमपूर्वक कहा : “बीता हुआ कल तो मैं वहीं छोड़कर आया और तुम अभी भी वहीँ अटके हुए हो। तुम्हें अपनी ग़लती का आभास हो गया, तुमने पश्चाताप कर लिया; तुम निर्मल हो चुके हो; अब तुम आज में प्रवेश करो। बुरी बातें तथा बुरी घटनाएँ याद करते रहने से वर्तमान और भविष्य दोनों बिगड़ते जाते है। बीते हुए कल के कारण आज को मत बिगाड़ो।”

उस व्यक्ति का सारा बोझ उतर गया। उसने भगवान बुद्ध के चरणों में पड़कर क्रोध त्याग कर तथा क्षमाशीलता का संकल्प लिया; बुद्ध ने उसके मस्तिष्क पर आशीष का हाथ रखा। उस दिन से उसमें परिवर्तन आ गया, और उसके जीवन में सत्य, प्रेम व करुणा की धारा बहने लगी।

मित्रों, बहुत बार हम भूत में की गयी किसी गलती के बारे में सोच कर बार-बार दुखी होते और खुद को कोसते हैं। हमें ऐसा कभी नहीं करना चाहिए, गलती का बोध हो जाने पर हमे उसे कभी ना दोहराने का संकल्प लेना चाहिए और एक नयी ऊर्जा के साथ वर्तमान को सुदृढ़ बनाना चाहिए।

👉 QUERIES ABOUT GAYATRI YAGYA (Part 2)

Q.2. Is it necessary to perform Yagya along with Jap of Gayatri Mantra?

Ans. Gayatri and Yagya form an inseparable pair. One is said to be the mother of Indian culture and the other, the father. They are inter-linked. Gayatri Anusthan cannot be said to be fully accomplished unless it is accompanied by Yagya. In old affluent times Agnihotra used to be performed with number of Ahutis equal to one-tenth of the quantum of Jap, but now, in view of the prevailing circumstances, Ahutis are given in one to hundredth ratio. Those lacking in requisite resources fulfil the requirement of Yagya by performing one-tenth additional Jap.

There is a reference in the scriptures to a famous ancient dialogue between Janak and Yagyavalkya. Janak went on pointing out the difficulties in daily performance of Yagya because of non-availability of required materials whereas Yagyavalkya, while emphasising the essentiality of performing Yagya, said that even if charu and other materials are not available, food grains of daily consumption can be offered in Havan. If they are also not available, mental Yagya can be performed by offering meditation and divine sentiments in the fire of reverence and devotion. It has thus been emphasized that not only in Anusthan, but even in daily Sadhana, Yagya is essential along with Gayatri Jap.   

In emergency, house-wives used to utter Gayatri Mantra and offer five morsels of first chapati in the hearth in the kitchen. The daily routine of food to God before taking meals was known as Balivaishwa (cf.. Saying Grace).

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 63

👉 वासन्ती हूक, उमंग और उल्लास यदि आ जाए जीवन में (भाग ४)

कुण्डलिनी क्या होती है? कुण्डलिनी हम करुणा को कहते हैं, विवेकशीलता को कहते हैं। करुणा उसे कहते हैं जिसमें दूसरों के दुःख-दर्द को देखकर के आदमी रो पड़ता है। विवेक यह कहता है कि फैसला करने के लिए हमको ऊँचा आदमी होना चाहिए जैसे कि जापान का गाँधी कागावा हुआ। उसने अपना सम्पूर्ण जीवन बीमार लोगों, पिछड़े लोगों, दरिद्रों और कोढ़ियों की सेवा में लगा दिया। चौबीसों घण्टे उन्हीं लोगों के बीच वह काम में रहता। कौन कराता था उससे यह सब? करुणा कराती थी। इसी को हम कुण्डलिनी कहते हैं, जो आदमी के भीतर हलचल पैदा कर देती है, रोमांच पैदा कर देती है, एक दर्द पैदा कर देती है, भगवान जब किसी इनसान के भीतर आता है तो एक दर्द के रूप में आता है, करुणा के रूप में आता है।

भगवान मिट्टी का बना हुआ जड़ नहीं है, वह चेतन है और चेतना का कोई रूप नहीं हो सकता, कोई शक्ल नहीं हो सकती। ब्रह्म चेतन है और चेतन केवल संवेदना हो सकती है और संवेदना कैसी होती है? विवेकशीलता के रूप में और करुणा के रूप में। आदर्श हमारे पास हों और वास्तविक हों तो उनके अन्दर एक ऐसा मैग्नेट है जो इनसान की सहानुभूति, जनता का समर्थन और भगवान की सहायता तीनों चीजें खींचकर लाता हुआ चला जाता है। कागावा के साथ यही हुआ। जब उसने दुखियारों की सेवा करनी शुरू कर दी तो उसको यह तीनों चीजें मिलती चली गईं। आदमी के भीतर जब करुणा जाग्रत होती है तो सन्त बन जाता है, ऋषि बन जाता है। हिन्दुस्तान के ऋषियों का इतिहास ठीक ऐसा ही रहा है।

जिस किसी का कुण्डलिनी जागरण जब होता है तो ऋद्धियाँ आती हैं, सिद्धियाँ आती हैं, चमत्कार आते हैं। उससे यह अपना भला करता है और दूसरों का भला करता है। मेरा गुरु आया मेरी कुण्डलिनी जाग्रत करता चला गया। हम जो भी प्राप्त करते हैं, अपनी करुणा को पूरा करने के लिए, विवेकशीलता को पूरा करने के लिए खर्च कर देते हैं और उसके बदले मिलता है असीम सन्तोष, शान्ति और प्रसन्नता। दुःखी और पीड़ित आदमी जब यहाँ आँखों में आँसू भरकर आते हैं तो सांसारिक दृष्टि से उनकी सहायता कर देने पर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। शारीरिक से लेकर मानसिक बीमारों तक, दुखियारों एवं मानसिक दृष्टि से कमजोरों से लेकर गिरे हुए आदमी तक, जो पहले कैसा घिनौना जीवन जीते थे, उनके जीवन में जो हेर-फेर हुए हैं, उनको देखकर बेहद खुशी होती है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। यह कुण्डलिनी का चमत्कार है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 परिवर्तन

जीवन में सकारात्मक परिवर्तन सम्भव है। दुःख का सुख में परिवर्तन, शक्तिहीनता का शक्ति सम्पन्नता में परिवर्तन, यहाँ तक कि गुलामी का बादशाहत में परिवर्तन घटित हो सकता है। परन्तु तभी, जब यह कोई स्वयं चाहे। बीते इतिहास के पन्ने कथा सुनाते हैं कि स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका में जाकर घोषणा की- मित्रों! मैं तुम्हारे लिए परिवर्तन का सन्देश लेकर आया हूँ। मैं तुम्हें वह रहस्य बताने आया हूँ, जिसे जानकर तुम अपने दुःख को सुख में, असहायता को शक्ति सम्पन्नता में और दासता को प्रभुता में परिवर्तित कर सकते हो। हाँ तुम भी, तुम सभी भी बन सकते हो सम्राट्।
  
उन्हें सुनने वाले चौंके- भला इस संसार में सभी एक साथ सम्राट कैसे हो सकते हैं? उत्तर में रामतीर्थ ने हँसते हुए कहा- हो सकते हैं। एक ऐसा साम्राज्य भी है, जहाँ सभी सम्राट हो सकते हैं। हालांकि वर्तमान का सच यही है कि अभी हम जिस संसार को जानते हैं, वहाँ सभी गुलाम हैं। बस वे स्वयं को सम्राट समझने के भ्रम में जरूर हैं।
  
महात्मा ईसा ने कहा था, परमात्मा का साम्राज्य तुम्हारे भीतर है और हममेंं से प्रायः हर एक ने इस ओर से मुँह मोड़ रखा है। हम तो बस बाहर की दुनिया में संघर्ष कर रहे हैं। उलझे हैं- बहुत कुछ पा लेने की प्रतियोगिता में। पर क्या यह पता नहीं है कि जिन्होंने बाहर के राज्य को जीता है, उन्होंने स्वयं को खो दिया है। और जिसने स्वयं को खो दिया है, भला सम्राट कैसे हो सकता है? क्योंकि सम्राट होने के लिए कम से कम स्वयं होना तो जरूरी है।
  
बाहर का द्वार दरिद्रता की ओर ले जाता है। वासनाएँ, तृष्णाएँ, कामनाएँ कभी किसी को मुक्त नहीं करतीं, बल्कि वे सूक्ष्म से सूक्ष्म और सख्त से सख्त बन्धनों में बांध लेती हैं। वासना की सांकलों से मजबूत सांकलें न तो अब तक बनायी जा सकीं हैं और न आगे कभी बनायी जा सकेंगी। दरअसल इतना मजबूत फौलाद और कहीं होता भी नहीं है। इन अदृश्य जंजीरों से बंधा हुआ व्यक्ति न तो सुखी हो सकता है और न स्वतंत्र और शक्ति सम्पन्न।
  
यह तो केवल तभी सम्भव है- जब जीवन में परिवर्तन का पवन प्रवाहित हो। बहिर्मुखी वृत्तियाँ अन्तर्मुखी हो, संघर्ष संस्कारों की शुद्धि के लिए हो। प्रतियोगिता स्वयं को पहचानने और पाने के लिए हो। निश्चय ही - जो स्वयं को पहचान सके, पा सके, वे ही अपने दुःख को सुख में, असहायता को शक्ति  सम्पन्नता में और दासता को बादशाहत में परिवर्तित कर सकते हैं।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १६९

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