सोमवार, 5 नवंबर 2018

👉 ये_हमारी_आपकी_जिम्मेदारी_है।

🔶 दूर सीमा पर चीन जब कुछ किलोमीटर अंदर घुसता है तो हम आप सब तमतमा जाते हैं।

🔷 किन्तु इन गरीबों की होली दीवाली ही नहीं बल्कि इनके भोजन की थाली तक पर चीन कब्ज़ा कर रहा है। इस चीनी आक्रमण से जूझने में इन्हें हमारी आपकी सहायता और सहयोग की आवश्यकता है।

🔶 आइये इस दीपावली पर इन मेहनतकश किन्तु गरीब कुम्हारों से भी कुछ न कुछ जरूर खरीदें वह भी बिना किसी तोलमोल के।

🔷 कुल 50 पैसे मूल्य और 2-3 रु की लागत वाली पैकिंग/मार्केटिंग/एडवरटाइज़िंग वाला बोतलबंद पानी हम 20 रु में खरीदते हैं, वो भी तोलमोल का एक शब्द बिना बोले हुए।
अतः हमारी श्रेष्ट प्राचीन परम्पराओं को विषम परिस्थितियों में भी जीवन दे रहे ये मेहनतकश गरीब कुम्हार भी अपने घरों में सुख और संतोष के साथ दीपावली का दीप जला सकें, क्या ये हमारा आपका दायित्व नहीं है.?

🔶 ये हम से कुछ विशेष अपेक्षा भी नहीं कर रहे हैं। बस अपनी मेहनत को मान्यता और उसका मूल्य हमसे चाह रहे हैं।

🔷 अतः आइये इस दीपावली पर इन मेहनतकश किन्तु गरीब कुम्हारों से भी हम कुछ न कुछ जरूर खरीदें वह भी बिना किसी तोलमोल के...

👉 अपनों का साथ

🔷 मेरी पत्नी ने कुछ दिनों पहले घर की छत पर कुछ गमले रखवा दिए और एक छोटा सा गार्डन बना लिया। पिछले दिनों मैं छत पर गया तो ये देख कर हैरान रह गया कि कई गमलों में फूल खिल गए हैं, नींबू के पौधे में दो नींबू  🍋🍋भी लटके हुए हैं और दो चार हरी मिर्च भी लटकी हुई नज़र आई।

🔶 मैंने देखा कि पिछले हफ्ते उसने बांस 🎋का जो पौधा गमले में लगाया था, उस गमले को घसीट कर दूसरे गमले के पास कर रही थी। मैंने कहा तुम इस भारी गमले को क्यों घसीट रही हो?

🔷 पत्नी ने मुझसे कहा कि यहां ये बांस का पौधा सूख रहा है, इसे खिसका कर इस पौधे के पास कर देते हैं। मैं हंस पड़ा और कहा अरे पौधा सूख रहा है तो खाद डालो, पानी डालो। 💦

🔶 इसे खिसका कर किसी और पौधे के पास कर देने से क्या होगा?" 😕 _पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा ये पौधा यहां अकेला है इसलिए मुर्झा रहा है। इसे इस पौधे के पास कर देंगे तो ये फिर लहलहा उठेगा। ☺

🔷 पौधे अकेले में सूख जाते हैं, लेकिन उन्हें अगर किसी और पौधे का साथ मिल जाए तो जी उठते हैं।" यह बहुत अजीब सी बात थी। एक-एक कर कई तस्वीरें आखों के आगे बनती चली गईं।

🔶 मां की मौत के बाद पिताजी कैसे एक ही रात में बूढ़े, बहुत बूढ़े हो गए थे। हालांकि मां के जाने के बाद सोलह साल तक वो रहे, लेकिन सूखते हुए पौधे की तरह। 😞 मां के रहते हुए जिस पिताजी को मैंने कभी उदास नहीं देखा था, वो मां के जाने के बाद खामोश से हो गए थे।😔

🔷 मुझे पत्नी के विश्वास पर पूरा विश्वास हो रहा था। लग रहा था कि सचमुच पौधे अकेले में सूख जाते होंगे। बचपन में मैं एक बार बाज़ार से एक छोटी सी रंगीन मछली 🐠खरीद कर लाया था और उसे शीशे के जार में पानी भर कर रख दिया था।

मछली सारा दिन गुमसुम रही।  मैंने उसके लिए खाना भी डाला, लेकिन वो चुपचाप इधर-उधर पानी में अनमना सा घूमती रही। सारा खाना जार की तलहटी में जाकर बैठ गया, मछली ने कुछ नहीं खाया। दो दिनों तक वो ऐसे ही रही, और एक सुबह मैंने देखा कि वो पानी की सतह पर उल्टी पड़ी थी। 😞😞

🔷 आज मुझे घर में पाली वो छोटी सी मछली याद आ रही थी। बचपन में किसी ने मुझे ये नहीं बताया था, अगर मालूम होता तो कम से कम दो, तीन या ढ़ेर सारी मछलियां खरीद लाता और मेरी वो प्यारी मछली यूं तन्हा न मर जाती। 😢

🔶 बचपन में मेरी माँ से सुना था कि लोग मकान बनवाते थे और रौशनी के लिए कमरे में दीपक🔥 रखने के लिए दीवार में इसलिए दो मोखे बनवाते थे क्योंकि माँ का
कहना था कि बेचारा अकेला मोखा गुमसुम और उदास हो जाता है।

🔷 मुझे लगता है कि संसार में किसी को अकेलापन पसंद नहीं। आदमी हो या पौधा, हर किसी को किसी न किसी के साथ की ज़रुरत होती है।

🔶 आप अपने आसपास झांकिए, अगर कहीं कोई अकेला दिखे तो उसे अपना साथ दीजिए, उसे मुरझाने से बचाइए। अगर आप अकेले हों, तो आप भी किसी का साथ लीजिए, आप खुद को भी मुरझाने से रोकिए।

🔷 अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सजा है। गमले के पौधे को तो हाथ से खींच कर एक दूसरे पौधे के पास किया जा सकता है, लेकिन आदमी को करीब लाने के लिए जरुरत होती है रिश्तों को समझने की, सहेजने की और समेटने की।😊

🔶 अगर मन के किसी कोने में आपको लगे कि ज़िंदगी का रस सूख रहा है, जीवन मुरझा रहा है तो उस पर रिश्तों के प्यार का रस डालिए। 💧☺

🔷 खुश रहिए और मुस्कुराइए।☺ कोई यूं ही किसी और की गलती से आपसे दूर हो गया हो तो उसे अपने करीब लाने की कोशिश कीजिए और हो जाइए हरा-भरा।

👉 आज का सद्चिंतन 5 November 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 5 November 2018


👉 साधना- अपने आपे को साधना (भाग 3)

🔷 अपनी जन्म−जात ईश्वर प्रदत्त अनेकानेक अद्भुत किन्तु प्रसुप्त विशेषताओं और विभूतियों को जागृत करना भी अध्यात्म साधनाओं का लक्ष्य है। उसमें लगता भर ऐसा है मानो बाहर के किसी देवी−देवता को प्रसन्न करने के लिए अनुनय विनय की, भेंट उपहार की, गिड़गिड़ाहट भरी दीनता की, अभिव्यक्ति की जा रही है और साधक उसी का ताना−बाना बुनता है। पर वस्तुतः ऐसा कुछ होता नहीं। देवी−देवताओं को अपने निजी कार्य उत्तरदायित्व और झंझट भी तो कम नहीं होंगे। हमारी ही तरह वे भी अपने निजी गोरख−धन्धे में लगे होंगे। जब हमें अपने थोड़े से सगे−संबंधियों की सहायता ठीक तरह करते नहीं बन पड़ती तो असंख्य भक्त उपासकों की चित्र−विचित्र मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए दौड़े−दौड़े फिरना उनके लिए भी कठिन ही पड़ेगा और वे सम्भवतः उतना कर भी न पायेंगे जितनी कि अपेक्षा की जाती है।

🔶 साधना का क्षेत्र अन्तःजगत है। अपने ही भीतर इतने खजाने दबे पड़े हैं कि उन्हें उखाड़ लेने पर ही कुबेर जितना सुसंपन्न बना जा सकता है। फिर किसी बाहर वाले से माँगने जाँचने की दीनता दिखाकर आत्म−सम्मान क्यों गँवाया जाय? भीतरी विशिष्ट क्षमताओं को ही तत्वदर्शियों ने देवी−देवता माना है और बाह्योपचारों के माध्यम से अन्तः संस्थान के भांडागार को करतलगत करने का विधि−विधान बताया है। शारीरिक बल वृद्धि के लिए डम्बल, मुद्गर उठाने घुमाने जैसे कर्मकाण्ड करने पड़ते हैं। बल इन उपकरणों में कहाँ होता है? वह तो शरीर की मांस पेशियों से ही उभरता है। उस उभार में व्यायामशाला के साधन−प्रसाधन सहायता भर करते हैं। उनसे मिलना कुछ नहीं। जो मिलना है वह भीतर से ही मिलना है। ठीक यही बात आत्म−साधना के संबंध में भी कही जा सकती है। इस सन्दर्भ में प्रयुक्त होने वाले देवी−देवता एवं विधि−विधान अपनी जेब से कुछ नहीं देते। साधक की निष्ठा भर पकाते हैं उसे कार्य−पद्धति भर सिखाते हैं। इतने का अभ्यस्त बनना ही साधनात्मक कर्मकाण्डों का प्रयोजन है। इतने भर से बात बन जाती है और राह मिल जाती है। साधक अपनी मूर्छना जगाकर उज्ज्वल भविष्य की असीम सम्भावनाएं स्वयं जगा लेता है।

🔷 आत्म−चेतना की जागृति ही साधना विज्ञान का लक्ष्य है। इसके लिए अपने चिन्तन एवं कर्तव्य का बिखराव रोककर अभीष्ट प्रयोजन के केन्द्र बिन्दु पर केन्द्रीभूत करना पड़ता है। इसके लिए अपनी गति विधियाँ लगभग उसी स्तर की रखनी पड़ती हैं जैसे कि भौतिक क्षेत्र में सफलताएँ पाने वाले लोगों को अपनानी होती हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 12

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1976/January/v1.12

👉 अध्यात्मवादी चिन्तन

🔷 वास्तव में न तो नीत्शे का व्यक्तिवाद ही व्यावहारिक है और न ही मार्क्स का समाजवाद। उनमें से प्रथम व्यक्ति को ही सब कुछ मानता है। द्वितीय समाज को, किन्तु व्यावहारिकता की कसौटी दोनों को ही असफल सिद्ध करती है।

🔶 एकमात्र अध्यात्मवादी चिन्तन ही ऐसा है जो इन दोनों के मध्य सुरुचिपूर्ण ढंग से सामंजस्य का संस्थापन करता है, जहाँ वैयक्तिक उन्नति की ऊँचाईयों को आत्मा के शीर्षस्थल पर ले जाता है, वहीं यह भी उपदिष्ट करता है कि व्यक्ति और कुछ नहीं समष्टि का एक अभिन्न अंश है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 धर्म तत्त्व का धर्षण और मर्म वांग्मय 53 पृष्ठ 6.7

👉 Spiritually thinking.....

🔷 Both Nietzsche’s individualism and Marx’s socialism are impractical.

🔶 One of them regards an individual to be the "be all and end all" of all creation. Second one thinks of society as being the most important one.

🔷 But both fail when we evaluate them practically.

🔶 Only spiritual thinking can elegantly bridge the divide between these two viewpoints.

🔷 Spiritual thinking gives an individual the right to be free and achieve perfection, in the image of a most pious, holy and perfect soul. At the same time thinks of an individual as being an indivisible part of the society.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Dharma tattwa ka darana aura marma Vangmay 53 Page 6.7

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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