शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 08 Aug 2024


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👉 आज का सद्चिंतन 09 Aug 2024


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👉 प्रेम और कृतज्ञता का सौंदर्य

निस्वार्थ भाव से, बदला न पाने की इच्छा से और अहसान न जताने के विचार से जो उपकार दूसरों के साथ किया जाता है उसके फल की समता तीनों लोक मिलकर भी नहीं कर सकते। बदला पाने की इच्छा रहित जो भलाई की गई है, वह समुद्र की तरह महान है। कोई मनुष्य किसी आवश्यकता से व्याकुल हो रहा है, उस समय उसकी मदद करना कितना महत्वपूर्ण है, इसे उस व्याकुल मनुष्य का हृदय ही जानता है। जरूरतमंदों को एक राई के बराबर मदद देना उससे बढ़कर है कि बिना जरूरत वाले के पल्ले में एक पहाड़ बाँध दिया जावे।

जिसने तुम्हारे साथ भलाई की है उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करो। सहायता का मूल्य वस्तु के मूल्य से मत नापो, वरन् उसका महत्व अपनी आवश्यकता को देखते हुए नापो कि उस समय यदि वह मदद तुम्हें न मिलती तो तुम्हारा क्या हाल होता। उनका अहसान मत भूलो जिन्होंने मुसीबत के समय तुम्हारी मदद की थी। उपकार को भूल जाना नीचता है, पर उन्हें क्या कहें जो भलाई के बदले बुराई करते हैं?

> 👉 मनुष्य जन्म का उद्देश्य | Manusay Janam Ka Uddesya 

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धरती माता से उस दिन मनुष्यों का भार न उठाया जायेगा जिस दिन वे प्रेम और कृतज्ञता छोड़कर निष्ठुर और कृतघ्न बन जायेंगे। आदमी की चमड़ी में क्या खूबसूरती है? सुन्दर तो उसका मन होता है। जिसके मन में दूसरों के प्रति प्रेम भावनाएं उठती रहती हैं, जो दूसरों के थोड़े से भी उपकार का सदा स्मरण करता रहता है और उसका बदला चुकाने का प्रयत्न करता है, वस्तुतः वही मनुष्य सुन्दर है और इसी सौंदर्य से मनुष्यता एवं इस वसुधा की सीमा बढ़ती है।

~ ऋषि तिरुवल्लुवर
📖 अखण्ड ज्योति सितम्बर1964 पृष्ठ 1

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/September/v1.3

👉 आप निराश मत हूजिए (भाग १)

आनन्दकंद परमेश्वर की यह विशाल सृष्टि आनन्द मूलक है। सच्चिदानन्द भगवान ही सर्वत्र प्रकट हो रहे हैं उस आनंदघन का आनंदमय ज्ञान प्रत्येक वस्तु से विकसित हो रहा है। भगवान अपने आनन्दमय स्वरूप का सर्वत्र प्रसार कर रहे हैं। जब इस जगत के निर्माणकर्ता का प्रधान गुण आनंद का प्रसार करना है तो संसार में आनंद के अतिरिक्त अन्य क्या हो सकता है। प्रातःकाल हंसता हुआ सूर्य उदित होकर संसार को स्वर्ण रश्मियों से स्नान करा देता है। शीतल सुगंधित वायु मस्ती बिखेरती फिरती है, पक्षीवृन्द आनंद से सने गीत गा गा कर सृष्टिकर्त्ता की उत्कृष्ट कला का प्रकटीकरण करते हैं। विशाल नदियाँ कल कल शब्द कर आनंद बढ़ाती हैं। पुष्पों पर गुँजते हुए मदमाते भ्रमर आनंद के गीत सुना कर हृदय शान्त करते हैं। पृथ्वी का अणु-अणु सुख, ऐक्य, समृद्धि और प्रेम की शक्ति को प्रवाहित कर रहा है। प्रत्येक वस्तु जीवन को स्थायी सफलता और पूर्ण विजय से विभूषित करने को प्रस्तुत है। ऐसी सुँदर सृष्टि में जन्म पा लेना सचमुच बड़े भाग्य की बात है। सतत् तप, पुण्य इत्यादि के उपहार स्वरूप यह दुर्लभ मानव जीवन इसलिए प्राप्त होता है कि हम इसमें पूर्ण आनंद का उपभोग कर जन्म जन्म की थकान मिटा सकें, फिर बतलाइए आप निराश क्यों हैं?

निराशावाद उस महाभयंकर राक्षस के समान है जो मुँह फाड़े हमारे इस परम आनंद जीवन के सर्वनाश की ताक में रहता है, जो हमारी समस्त शक्तियों का हास किया करता है, जो हमें आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर नहीं होने देता और जीवन के अंधकारमय अंश हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है। हमें पग-पग पर असफलता ही असफलता दिखाता है और विजय द्वार में प्रविष्ट नहीं होने देता।

> 👉 *निराश विद्यर्थियो के लिए गायत्री मंत्र एक औषधि | Nirash Vidyarthiyon Ke Liye Gayatri Mantra*  https://youtu.be/Ofsf0Ozk08o?si=Xvx-4lRExjIZyONW

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इस बीमारी से ग्रस्त लोग उदास खिन्न मुद्रा लिए घरों के कोने में पड़े दिन रात मक्खियाँ मारने का काम करते हैं। ये व्यक्ति ऐसे चुम्बक है जो उदासीन विचारों को निरंतर अपनी ओर आकर्षित किया करते हैं और दुर्भाग्य की कुत्सित डरपोक विचारधारा में निमग्न रहा करते हैं। उन्हें चारों ओर कष्ट ही कष्ट दीखते हैं कभी यह, कभी वह, एक से एक भयंकर विपत्ति आती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। वे जब बातें करते हैं तो अपनी यातनाओं, विपत्तियों और क्लेशपूर्ण अभद्र प्रसंग छेड़ा करते हैं। हर व्यक्ति से वह यही कहा करते हैं कि भाई हम क्या करें, हम कमनसीब हैं, हमारा भाग फूटा हुआ है, देव हमारे विपरीत है, हमारी किस्मत में विधि ने ठोकरों का ही विधान रखा है। तभी तो हमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर लज्जित और परेशान होना, अशान्त, क्षुब्ध और विक्षिप्त होना पड़ता है।’ उनकी चिंतित मुख-मुद्रा देखने पर यही विदित होता है मानों उन्होंने उस पदार्थ से गहरा संबंध स्थिर कर लिया हो जो जीवन की सब मधुरता नष्ट कर रहा हो, उनके सोने जैसे जीवन का समस्त आनंद छीन रहा हो, उन्नति के मार्ग को कंटकाकीर्ण कर रहा हो। मानों समस्त संसार की दुःख विपत्ति उन्हीं के सर पर आ पड़ी हो और उदासी की अंधकारमय छाया उनके हृदय पटल को काला बना दिया है।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1950 पृष्ठ 12

👉 व्यक्तित्व का विकास कैसे करें

(१) प्रातः उठने से लेकर सोने तक की व्यस्त दिनचर्या निर्धारित करें। उसमें उपार्जन, विश्राम, नित्य कर्म, अन्यान्य काम- काजों के अतिरिक्त आदर्शवादी परमार्थ प्रयोजनों के लिए एक भाग निश्चित करें। साधारणतया आठ घण्टा कमाने, सात घण्टा सोने, पाँच घण्टा नित्य कर्म एवं लोक व्यवहार के लिए निर्धारित रखने के उपरान्त चार घण्टे परमार्थ प्रयोजनों के लिए निकालना चाहिए। इसमें भी कटौती करनी हो, तो न्यूनतम दो घण्टे तो होने ही चाहिये। इससे कम में पुण्य परमार्थ के, सेवा साधना के सहारे बिना न सुसंस्कारिता स्वभाव का अंग बनती है और न व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय विकास सम्भव होता है।

(२) आजीविका बढ़ानी हो तो अधिक योग्यता बढ़ायें। परिश्रम में तत्पर रहें और उसमें गहरा मनोयोग लगायें। साथ ही अपव्यय में कठोरता पूर्वक कटौती करें। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त समझें। अपव्यय के कारण अहंकार, दुर्व्यसन, प्रमाद बढ़ने और निन्दा, ईर्ष्या, शत्रुता पल्ले बाँधने जैसी भयावह प्रतिक्रियाओं का अनुमान लगायें। सादगी प्रकारान्तर से सज्जनता का ही दूसरा नाम है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह ही अभीष्ट है। अधिक कमाने वाले भी ऐसी सादगी अपनायें जो सभी के लिए अनुकरणीय हो। ठाट- बाट प्रदर्शन का खर्चीला ढकोसला समाप्त करें।

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(३) अहर्निश पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाले विचार ही अन्तराल पर छाये रहते है। अभ्यास और समीपवर्ती प्रचलन मनुष्य को वासना, तृष्णा और अहंकार की पूर्ति में निरत रहने का ही दबाव डालता है। सम्बन्धी मित्र परिजनों के परामर्श प्रोत्साहन भी इसी स्तर के होते हैं। लोभ, मोह और विलास के कुसंस्कार निकृष्टता अपनाये रहने में ही लाभ तथा कौशल समझते हैं। ऐसी ही सफलताओं को सफलता मानते हैं। इसे एक चक्रव्यूह समझना चाहिये। भव- बन्धन के इसी घेरे से बाहर निकलने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिये। कुविचारों को परास्त करने का एक ही उपाय है- प्रज्ञा साहित्य का न्यूनतम एक घण्टा अध्ययन अध्यवसाय। इतना समय एक बार न निकले तो उसे जब भी अवकाश मिले, थोड़ा- थोड़ा करके पूरा करते रहना चाहिये।

(४) प्रतिदिन प्रज्ञायोग की साधना नियमित रूप से की जाय। उठते समय आत्मबोध, सोते समय तत्त्वबोध। नित्य कर्म से निवृत्त होकर जप, ध्यान। एकान्त सुविधा का चिन्तन- मनन में उपयोग। यही है त्रिविधि सोपानों वाला प्रज्ञायोग। यह संक्षिप्त होते हुए भी अति प्रभावशाली एवं समग्र है। अपने अस्त- व्यस्त बिखराव वाले साधना क्रम को समेटकर इसी केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित करना चाहिये। महान के साथ अपने क्षुद्र को जोड़ने के लिए योगाभ्यास का विधान है। प्रज्ञा परिजनों के लिए सर्वसुलभ एवं सर्वोत्तम योगाभ्यास ‘प्रज्ञा योग’ की साधना है। उसे भावनापूर्वक अपनाया और निष्ठा पूर्वक निभाया जाय।

(५) दृष्टिकोण को निषेधात्मक न रहने देकर विधेयात्मक बनाया जाय। अभावों की सूची फाड़ फेंकनी चाहिये और जो उपलब्धियाँ हस्तगत है, उन्हें असंख्य प्राणियों की अपेक्षा उच्चस्तरीय मानकर सन्तुष्ट भी रहना चाहिये और प्रसन्न भी। इसी मनःस्थिति में अधिक उन्नतिशील बनना और प्रस्तुत कठिनाइयों से निकलने वाला निर्धारण भी बन पड़ता है। असन्तुष्ट, खिन्न, उद्विग्न रहना तो प्रकारान्तर से एक उन्माद है, जिसके कारण समाधान और उत्थान के सारे द्वार ही बन्द हो जाते है।

कर्तृत्व पालन को सब कुछ मानें। असीम महत्त्वाकांक्षाओं के रंगीले महल न रचें। ईमानदारी से किये गये पराक्रम से ही परिपूर्ण सफलता मानें और उतने भर से सन्तुष्ट रहना सीखें। कुरूपता नहीं, सौन्दर्य निहारें। आशंकाग्रस्त, भयभीत, निराश न रहें। उज्ज्वल भविष्य के सपने देखें। याचक नहीं दानी बने। आत्मावलम्बन सीखें। अहंकार तो हटायें पर स्वाभिमान जीवित रखें। अपना समय, श्रम, मन और धन से दूसरों को ऊँचा उठायें। सहायता करे पर बदले की अपेक्षा न रखें। बड़प्पन की तृष्णाओं को छोड़े और उनके स्थान पर महानता अर्जित करने की महत्वाकांक्षा सँजोये। स्मरण रखें, हँसते- हँसाते रहना और हल्की- फुल्की जिन्दगी जीना ही सबसे बड़ी कलाकारिता है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 14 Aug 2024

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