सेक्तमाहना की अतृप्ति से नैराश्य और उदासीनता उत्पन्न हो जाती है। कुछ स्त्री पुरुष तो अर्द्धविक्षिप्त से हो जाते हैं, कुछ का विकास रुक जाता है। औरतों में हिस्टीरिया, मिर्गी, पागलपन, त्वचा रोग हो जाते हैं। पुरुष गन्दी गालियाँ देते हैं। इस भावना का उदात्तीकरण ही उचित है। उच्च साहित्य के अध्ययन, भजन कीर्तन, पूजन, काव्य-निर्माण, चित्रकारी, समाज सेवा के नाना कार्यों द्वारा वृत्ति को तृप्त किया जा सकता है।
वह लड़का, जो छोटे जानवरों को पीटने या सताने में आनन्द लेता है, वास्तव में अपने छिपे पौरुष और शासन करने के भाव को गलत तरीके से प्रकट कर रहा है। इस मार्ग पर चलते-2 संभव है वह एक मारने पीटने वाले दुष्ट व्यक्ति के रूप में पनप जाये। इसके विपरीत यदि वह अपनी इन्हीं भावनाओं को सुनियंत्रण करे, तो एक नेता, सैनिक, सर्जन बन सकता है। जो बच्चे छोटे-2 खिलौने या खेलने के नए-2 आविष्कार करते रहते हैं, वे उन्हीं भावनाओं का विकास कर अच्छे इंजीनियर या वैज्ञानिक बन सकते हैं।
मान लीजिए एक युवक का विवाह उसकी प्रेमिका से तय हो चुका है। उसे उसमें नई प्रेरणा मिली है और वह नए जोश से अपना काम करने में लगा हुआ है। अक्समात वह सम्बन्ध टूट जाता है। उसे भारी निराशा का धक्का लगता है। संभव है आवेश में आकर वह आत्म हत्या कर डाले या किसी विध्वंसात्मक प्रवृत्ति में लग कर प्रतिशोध लेने पर उतारू हो जाय। यह भाव का गलत विकास है। इससे स्वयं उसके भी मस्तिष्क और शरीर को क्षति होगी। उसे किसी प्रिय कार्य में पूरी तरह प्रवृत्त होकर, तन्मय होकर आत्म-विस्मृति करनी चाहिए। भावात्मक शक्ति को उत्पादक मार्ग देना चाहिए जिससे स्वयं उनका और समाज का कुछ हित हो सके। महाकवि तुलसीदास, भक्त प्रवर सूरदास, प्रेम दिवानी मीराबाई, भावविह्वल भक्त कबीर, गुरु नानक आदि की भावनाएँ शाश्वत कवि के रूप में प्रवाहित हुई जिनसे युग दिव्य प्रेरणाएँ आज भी ले रहा है। तुलसी का प्रेम ईश्वरीय शक्ति के यशोगान में लगा, सूर के भजनों में आज भी उनकी आत्मा के दर्शन मिलते हैं। ये महामानव स्वयं अपने कार्य से ही प्रेम करने लगे थे। इन्होंने रुके हुए गुप्त भावों को प्रकट होने का स्वस्थ रूप दिया। हम स्वयं भी अपनी भावनाओं को प्रकट करने के लिए मनोनुकूल इच्छानुरूप, माध्यम ढूँढ़ सकते हैं।
आत्म-निरीक्षण कर देखिए कि किस प्रकार की भावात्मक शक्ति आप में जमी पड़ी है? और उसके विकास का सबसे स्वस्थ रूप क्या हो सकता है? किससे आपकी आन्तरिक तृप्ति होती है? क्रोध का ज्वालामुखी, घृणा का तूफान, आवेश की सुलगती अग्नि मनोनुकूल प्रिय कार्यों से लगने से शान्त होती है। जिस भावना से सम्बन्धित रुकी हुई शक्ति हो, उसके अनुकूल ही रुचिकर उत्पादक प्रिय कार्य का चुनाव कीजिए। इन माध्यमों पर सही सफलता निर्भर है।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1960 पृष्ठ 22
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1960/March/v1.22
वह लड़का, जो छोटे जानवरों को पीटने या सताने में आनन्द लेता है, वास्तव में अपने छिपे पौरुष और शासन करने के भाव को गलत तरीके से प्रकट कर रहा है। इस मार्ग पर चलते-2 संभव है वह एक मारने पीटने वाले दुष्ट व्यक्ति के रूप में पनप जाये। इसके विपरीत यदि वह अपनी इन्हीं भावनाओं को सुनियंत्रण करे, तो एक नेता, सैनिक, सर्जन बन सकता है। जो बच्चे छोटे-2 खिलौने या खेलने के नए-2 आविष्कार करते रहते हैं, वे उन्हीं भावनाओं का विकास कर अच्छे इंजीनियर या वैज्ञानिक बन सकते हैं।
मान लीजिए एक युवक का विवाह उसकी प्रेमिका से तय हो चुका है। उसे उसमें नई प्रेरणा मिली है और वह नए जोश से अपना काम करने में लगा हुआ है। अक्समात वह सम्बन्ध टूट जाता है। उसे भारी निराशा का धक्का लगता है। संभव है आवेश में आकर वह आत्म हत्या कर डाले या किसी विध्वंसात्मक प्रवृत्ति में लग कर प्रतिशोध लेने पर उतारू हो जाय। यह भाव का गलत विकास है। इससे स्वयं उसके भी मस्तिष्क और शरीर को क्षति होगी। उसे किसी प्रिय कार्य में पूरी तरह प्रवृत्त होकर, तन्मय होकर आत्म-विस्मृति करनी चाहिए। भावात्मक शक्ति को उत्पादक मार्ग देना चाहिए जिससे स्वयं उनका और समाज का कुछ हित हो सके। महाकवि तुलसीदास, भक्त प्रवर सूरदास, प्रेम दिवानी मीराबाई, भावविह्वल भक्त कबीर, गुरु नानक आदि की भावनाएँ शाश्वत कवि के रूप में प्रवाहित हुई जिनसे युग दिव्य प्रेरणाएँ आज भी ले रहा है। तुलसी का प्रेम ईश्वरीय शक्ति के यशोगान में लगा, सूर के भजनों में आज भी उनकी आत्मा के दर्शन मिलते हैं। ये महामानव स्वयं अपने कार्य से ही प्रेम करने लगे थे। इन्होंने रुके हुए गुप्त भावों को प्रकट होने का स्वस्थ रूप दिया। हम स्वयं भी अपनी भावनाओं को प्रकट करने के लिए मनोनुकूल इच्छानुरूप, माध्यम ढूँढ़ सकते हैं।
आत्म-निरीक्षण कर देखिए कि किस प्रकार की भावात्मक शक्ति आप में जमी पड़ी है? और उसके विकास का सबसे स्वस्थ रूप क्या हो सकता है? किससे आपकी आन्तरिक तृप्ति होती है? क्रोध का ज्वालामुखी, घृणा का तूफान, आवेश की सुलगती अग्नि मनोनुकूल प्रिय कार्यों से लगने से शान्त होती है। जिस भावना से सम्बन्धित रुकी हुई शक्ति हो, उसके अनुकूल ही रुचिकर उत्पादक प्रिय कार्य का चुनाव कीजिए। इन माध्यमों पर सही सफलता निर्भर है।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1960 पृष्ठ 22
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1960/March/v1.22