उधार लेते समय प्रायः सभी यह सोचते हैं कि फसल की अच्छी कमाई होगी, बीमा पॉलिसी मिलेगी, मकान का किराया आवेगा या प्राविडेण्ट फण्ड का पैसा मिलेगा तब आसानी से इसे अदा कर देंगे। यह सोचकर लोग शादी-विवाह, मृतक संस्कार, भोज या अन्य किसी आवश्यकता के लिये कर्ज ले लेते हैं। अदायगी के समय तक सूद ही बहुत बढ़ जाता है, फिर उस समय भी तो खर्चे बने रहते हैं अतः. देने में बड़ी कठिनाई आती है। इस तरह ऋणी और साहूकार के आपसी सम्बन्ध भी खराब होते हैं, और देने वालों की कमाई का वह भाग व्यर्थ ही चला जाता है जिससे परिवार के अन्य सदस्यों के विकास में सहायता मिल सकती थी।
सूद के रूप में दिया जाने वाला पैसा एक तरह का अपने परिजनों की प्रगति पर आघात है। जेवर या जमीन रखकर लिया गया पैसा भी अपराध ही है क्योंकि इनके बदले में ली गई मूल रकम तो चुकानी ही पड़ती है, ब्याज भी देना पड़ता है और इन वस्तुओं का उपयोग भी कुछ नहीं हो पाता। कुछ दिन कठिनाइयों को सहन कर लेना या जेवर बेच देना कर्ज लेन से कहीं अधिक अच्छा है क्यों कि इससे हमारा नैतिक साहस ऊँचा उठा रहता है और सूद पर अकारण जाने वाला धन भी बच जाता है।
ऋण मनुष्य की खर्चीली प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देता है। चोरी, बेईमानी, जुआ, सट्टा आदि से ग्रसित लोगों को प्रायः ऋणी देखा जाता है क्योंकि इन लोगों को धन बेरोक टोक खर्च करने का स्वभाव हो जाता है। इससे विलासिता बढ़ती है और लोग पूर्व संचित संपत्ति भी गँवा देते है। ऋण के फेर में फँस कर धनी, सेठ, साहूकार तक अपनी बड़ी-बड़ी दुकानें, मकान आदि गँवा कर निर्धन हो जाते हैं। उदारता वश किसी की सहायता करके उसे आर्थिक धन्धा दे देना दूसरी बात है किन्तु ऋण लेने देने की आदत को व्यवसायिक रूप देना सदैव ही घातक होता है। अधिकाँश मध्यम वर्ग के लोगों में यह बुरी लत पड़ जाती है। अपने को ऊँचा करने के लिए सीमित साधनों से आगे बढ़ने का प्रयत्न करना ही कर्ज का कारण बन जाता है। लोग यह समझते हैं कि अमुक कार्य इस ढंग का नहीं होगा तो दूसरे व्यक्ति अपमानित करेंगे, छोटा समझेंगे। अपनी हेठी न हो इसी कायरता के कारण लोग आर्थिक परतन्त्रता स्वीकार कर लेते हैं। किन्तु यह एक मामूली सी समस्या है, लोग अपनी औकात के अनुसार खर्च की मर्यादा बनाये रहें तो ऋण लेने की समस्या कभी भी सामने न आये।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 45
सूद के रूप में दिया जाने वाला पैसा एक तरह का अपने परिजनों की प्रगति पर आघात है। जेवर या जमीन रखकर लिया गया पैसा भी अपराध ही है क्योंकि इनके बदले में ली गई मूल रकम तो चुकानी ही पड़ती है, ब्याज भी देना पड़ता है और इन वस्तुओं का उपयोग भी कुछ नहीं हो पाता। कुछ दिन कठिनाइयों को सहन कर लेना या जेवर बेच देना कर्ज लेन से कहीं अधिक अच्छा है क्यों कि इससे हमारा नैतिक साहस ऊँचा उठा रहता है और सूद पर अकारण जाने वाला धन भी बच जाता है।
ऋण मनुष्य की खर्चीली प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देता है। चोरी, बेईमानी, जुआ, सट्टा आदि से ग्रसित लोगों को प्रायः ऋणी देखा जाता है क्योंकि इन लोगों को धन बेरोक टोक खर्च करने का स्वभाव हो जाता है। इससे विलासिता बढ़ती है और लोग पूर्व संचित संपत्ति भी गँवा देते है। ऋण के फेर में फँस कर धनी, सेठ, साहूकार तक अपनी बड़ी-बड़ी दुकानें, मकान आदि गँवा कर निर्धन हो जाते हैं। उदारता वश किसी की सहायता करके उसे आर्थिक धन्धा दे देना दूसरी बात है किन्तु ऋण लेने देने की आदत को व्यवसायिक रूप देना सदैव ही घातक होता है। अधिकाँश मध्यम वर्ग के लोगों में यह बुरी लत पड़ जाती है। अपने को ऊँचा करने के लिए सीमित साधनों से आगे बढ़ने का प्रयत्न करना ही कर्ज का कारण बन जाता है। लोग यह समझते हैं कि अमुक कार्य इस ढंग का नहीं होगा तो दूसरे व्यक्ति अपमानित करेंगे, छोटा समझेंगे। अपनी हेठी न हो इसी कायरता के कारण लोग आर्थिक परतन्त्रता स्वीकार कर लेते हैं। किन्तु यह एक मामूली सी समस्या है, लोग अपनी औकात के अनुसार खर्च की मर्यादा बनाये रहें तो ऋण लेने की समस्या कभी भी सामने न आये।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 45