गुरुवार, 27 मई 2021

👉 दोषारोपण🌻🌻

एक आदमी रेगिस्तान से गुजरते वक़्त बुदबुदा रहा था,“कितनी बेकार जगह है ये,बिलकुल भी हरियाली नहीं है और हो भी कैसे सकती है यहाँ तो पानी का नामो-निशान भी नहीं है।

तपती रेत में वो जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था उसका गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था. अंत में वो आसमान की तरफ देख झल्लाते हुए बोला- क्यों भगवान आप यहाँ पानी क्यों नहीं देते? अगर यहाँ पानी होता तो कोई भी यहाँ पेड़-पौधे उगा सकता था और तब ये जगह भी कितनी खूबसूरत बन जाती!

ऐसा बोल कर वह आसमान की तरफ ही देखता रहा मानो वो भगवान के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो!तभी एक चमत्कार होता है,नज़र झुकाते ही उसे सामने एक कुंवा नज़र आता है!

वह उस इलाके में बरसों से आ-जा रहा था पर आज तक उसे वहां कोई कुँवा नहीं दिखा था… वह आश्चर्य में पड़ गया और दौड़ कर कुंवे के पास गया। कुंवा लाबालब पानी से भरा था.  

उसने एक बार फिर आसमान की तरफ देखा और पानी के लिए धन्यवाद करने की बजाये बोला - “पानी तो ठीक है लेकिन इसे निकालने के लिए कोई उपाय भी तो होना चाहिए !!”

उसका ऐसा कहना था कि उसे कुँवें के बगल में पड़ी रस्सी और बाल्टी दिख गयी।एक बार फिर उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ! वह कुछ घबराहट के साथ आसमान की ओर देख कर बोला, “लेकिन मैं ये पानी ढोउंगा कैसे?”

तभी उसे महसूस होता है कि कोई उसे पीछे से छू रहा है,पलट कर देखा तो एक ऊंट उसके पीछे खड़ा था!अब वह आदमी अब एकदम घबड़ा जाता है, उसे लगता है कि कहीं वो रेगिस्तान में हरियाली लाने के काम में ना फंस जाए और इस बार वो आसमान की तरफ देखे बिना तेज क़दमों से आगे बढ़ने लगता है।

अभी उसने दो-चार कदम ही बढ़ाया था कि उड़ता हुआ पेपर का एक टुकड़ा उससे आकर चिपक जाता है।उस टुकड़े पर लिखा होता है –

मैंने तुम्हे पानी दिया,बाल्टी और रस्सी दी।पानी ढोने  का साधन भी दिया,अब तुम्हारे पास वो हर एक चीज है जो तुम्हे रेगिस्तान को हरा-भरा बनाने के लिए चाहिए। अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है ! आदमी एक क्षण के लिए ठहरा !! पर अगले ही पल वह आगे बढ़ गया और रेगिस्तान कभी भी हरा-भरा नहीं बन पाया।

मित्रों !! कई बार हम चीजों के अपने मन मुताबिक न होने पर दूसरों को दोष देते हैं। कभी हम परिस्थितियों को दोषी ठहराते हैं,कभी अपने बुजुर्गों को,कभी संगठन को तो कभी भगवान को।पर इस दोषारोपण के चक्कर में हम इस आवश्यक चीज को अनदेखा कर देते हैं कि - एक इंसान होने के नाते हममें वो शक्ति है कि हम अपने सभी सपनो को खुद साकार कर सकते हैं।

शुरुआत में भले लगे कि ऐसा कैसे संभव है पर जिस तरह इस कहानी में उस इंसान को रेगिस्तान हरा-भरा बनाने के सारे साधन मिल जाते हैं उसी तरह हमें भी प्रयत्न करने पर अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए ज़रूरी सारे उपाय मिल सकते हैं.

👉 दोस्तॊ !! समस्या ये है कि ज्यादातर लोग इन उपायों के होने पर भी उस आदमी की तरह बस शिकायतें करना जानते है। अपनी मेहनत से अपनी दुनिया बदलना नहीं! तो चलिए,आज इस कहानी से सीख लेते हुए हम शिकायत करना छोडें और जिम्मेदारी लेकर अपनी दुनिया बदलना शुरू करें क्योंकि सचमुच सब कुछ तुम्हारे हाथ में है !!

🌸हम बदलेंगे, युग बदलेगा।🌸

👉 भक्तिगाथा (भाग २३)

अन्य आश्रयों का त्याग ही है अनन्यता

आँखों में छलकते भावबिन्दु, हृदयों में उफनती भावोर्मियाँ-सभी की अंतर्चेतना गहन भावसमाधि में डूबने लगी। कुछ पल के लिए ऐसा लगा जैसे कि कालचक्र थम गया हो। बाहरी जीवनधारा थमने की भले ही प्रतीति न हुई हो, पर सभी के अंतस्थ प्राण अवश्य ठिठक गये थे। देवर्षि नारद के द्वारा कहे गये सूत्र एवं महर्षि देवल की अनुभूति कथा का रस था ही कुछ ऐसा, कि सभी की अंतश्चेतना उसमें भीग गयी थी। सभी की यह अवस्था कितनी देर रही, कहा नहीं जा सकता। चेतना को चैतन्य तब प्राप्त हुआ, जब आकाश सामगान के मंत्रों की अनुगूँज से पूरित होने लगा। दरअसल साम के ये मधुर स्वर पक्षीराज गरुड़ के पंखों से झर रहे थे।
    
विनितानन्दन गरुड़, भगवान के वाहन गरुड़ और सबसे बढ़कर भगवान विष्णु के वाहन गरुड़, उनकी यह उपस्थिति सभी की चेतना में भक्ति का नया गीत बनकर उतर गयी। वैनतेय ने सभी ऋषियों को नमन किया। देवर्षि तो जैसे उनके प्राणप्रिय सखा ही थे। भगवान नारायण के इन पार्षदों का मिलन अवर्णनीय था। कुछ ऐसा जैसा कि भक्ति की दो धाराएँ मिलकर भावसमाधि की नव सृष्टि कर रही हों। हिमालय के इन हिम-धवल शिखरों ने भी इसे अनुभव किया। पहले ही हो चुके भक्तिमय वातावरण में नवपुलक भर गयी। अब तो बस देवर्षि के मुख से नवसूत्र उच्चारित होना था-
‘अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता॥ १०॥’
अन्य आश्रयों का त्याग ही अनन्यता है।
    
हृदय वीणा की झंकृति की एक समवेत गूँज उठी। इस मधुर झंकृति में भक्ति के अनुभव नवगीत कौन पिरोयेगा? सभी की दृष्टि पक्षीराज गरुड़ की ओर जाकर टिक गयी। सप्तऋषियों ने भी आग्रह किया- ‘‘हे हरिवाहन! आज आप ही इस सूत्र की व्याख्या करें। आप स्वयं प्रभु के श्रेष्ठ भक्त हैं। भक्तों के लिए भगवान की विकलता आपने स्वयं देखी है। भक्तों के हृदय की विह्वलता के भी आप साक्षी रहे हैं। आपके हृदय की अनुभव कथा भी भक्ति में भीगी है।’’ सप्तर्षियों के इस आग्रह पर गरुड़ का गात्र पुलकित हो उठा। उन्होंने विनम्र भाव से कहा- ‘‘हे ऋषिगण! आप सब त्रिलोकी के मार्गदर्शक हैं। भगवान स्वयं आपके हृदय प्रेरक हैं। आपके आदेश को स्वीकारते हुए आज मैं भक्त प्रह्लाद की भक्तिकथा सुनाऊँगा।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ४८

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग २३)

👉 दुखों का कारण

वस्तु स्थिति को न जानने के कारण ही विविध भांति के दुःख संताप उत्पन्न। महर्षि वशिष्ठ ने भगवान राम को दुखों का कारण अज्ञान बताते हुये उससे मुक्त होने का उपाय ज्ञान साधना ही बताया है।
योगवाशिष्ठ का वचन है—
‘‘आयधो व्याधयश्चैव
द्वय दुःखस्य कारणम् ।
तत्क्षयो मोक्ष उच्यते ।।’’
अर्थात्—आधि, व्याधि—अर्थात् मानसिक और शारीरिक यह दो ही प्रकार के दुःख इस संसार में हैं। इनकी निवृत्ति विद्या अर्थात् ज्ञान द्वारा ही होती है। इस दुःख निवृत्ति का नाम ही मोक्ष है।’’

इस प्रकार इस न्याय से विदित होता है कि यदि मनुष्य जीवन से दुःखों का तिरोधान हो जाय तो वह मोक्ष की स्थिति में अवस्थित हो जाये। दुःखों का अत्यन्त अभाव ही आनन्द भी है। अर्थात् मोक्ष और आनन्द एक दूसरे के पर्याय हैं। इस प्रकार यदि जीवन के दुःखों को नष्ट किया जा सके तो आनन्द वाची मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। बहुत बार देखा जाता है कि लोग जीवन में अनेक बार आनन्द प्राप्त करते हैं। वे हंसते, बोलते खाते, खेलते, मनोरंजन करते, नृत्य-संगीत और काव्य-कलाओं का, आनन्द लेते, उत्सव-समारोह और पर्व मनाते, प्रेम पाते और प्रदान करते, गोष्ठी और सत्संगों में मोद-विनोद करते और न जाने इसी प्रकार से आमोद-प्रमोद पाते और प्रसन्न बना करते हैं—तो क्या उनकी इस स्थिति को मोक्ष कहा जा सकता है?

नहीं, मनुष्य की इस स्थिति को मोक्ष नहीं कहा जा सकता। मोक्ष का आनन्द स्थायी, स्थिर, अक्षय, समान अहैतुकं और निःशेष हुआ करता है। वह न कहीं से आता और न कहीं जाता है। न किसी कारण से उत्पन्न होता है और न किसी कारण से नष्ट होता है। वह आत्म-भूत और अहैतुकं होता है। वह सम्पूर्ण रूप में मिलता है सम्पूर्ण रूप में अनुभूत होता है सम्पूर्ण रूप में सदा-सर्वदा ही बना रहता है। वह सार्वदेशिक सर्वव्यापक, और सर्वस्व सहित ही होता है। मोक्ष का आनन्द पाने पर न तो कोई अंश शेष रह जाता है और न उसके आगे किसी प्रकार के आनन्द की इच्छा शेष रह जाती है। वह प्रकाम, पूर्ण और परमावधिक ही होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ३५
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

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