मंगलवार, 20 अगस्त 2019

👉 वास्तविक सौंदर्य

राजकुमारी मल्लिका इतनी खूबसूरत थी कि कईं राजकुमार व राजा उसके साथ विवाह करना चाहते थे, लेकिन वह किसी को पसन्द नहीं करती थी। आखिरकार उन राजकुमारों व राजाओं ने आपस में एकजुट होकर मल्लिका के पिता को किसी युद्ध में हराकर उसका अपहरण करने की योजना बनायी।

मल्लिका को इस बात का पता चल गया। उसने राजकुमारों व राजाओं को कहलवाया कि "आप लोग मुझ पर कुर्बान हैं तो मैं भी आप पर कुर्बान हूँ। तिथि निश्चित कीजिये और आप लोग आकर बातचीत करें। मैं आप सबको अपना सौंदर्य दे दूँगी।"

इधर मल्लिका ने अपने जैसी ही एक सुन्दर मूर्ति बनवायी। मूर्ति ठोस नहीं थी, वह भीतर से खाली थी। मल्लिका ने निश्चित की गयी तिथि से दो, चार दिन पहले से उस मूर्ति के भीतर भोजन डालना शुरु कर दिया।

जिस महल में राजकुमारों व राजाओं को मुलाकात के लिए बुलाया गया था, उसी महल में एक ओर वह मूर्ति रखवा दी गयी। निश्चित तिथि पर सारे राजा व राजकुमार आ गये। मूर्ति इतनी हूबहू थी कि उसकी ओर देखकर सभी राजकुमार एकटक होकर देख रहे थे और मन ही मन में विचार कर रहे थे कि बस, अब बोलने वाली है . . अब बोलेगी . .!

कुछ देर बाद मल्लिका स्वयं महल में आयीं और जैसे ही वह महल में दाखिल हुयी तो सारे राजा व राजकुमार उसे देखकर दंग रह गये कि वास्तविक मल्लिका हमारे सामने बैठी है तो यह कौन है?

मल्लिका बोली - "यह मेरी ही प्रतिमा है। मुझे विश्वास था कि आप सब इसको ही सचमुच की मल्लिका समझेंगे और इसीलिए मैंने इसके भीतर सच्चाई छुपाकर रखी हुयी है। आप लोग जिस सौंदर्य पर आकर्षित हो रहे हो, उस सौंदर्य की सच्चाई क्या है? वह सच्चाई मैंने इसमें छुपाकर रखी हुयी है।" यह कहकर ज्यों ही मूर्ति का ढक्कन खोला गया, त्यों ही सारा कक्ष दुर्गन्ध से भर गया। क्योंकि पिछले कईं दिनों से जो भोजन उसमें डाला जा रहा था, उसके सड़ जाने से ऐसी भयंकर बदबू निकल रही थी कि सबके सब छिः छिः करने लगे।

तब मल्लिका ने वहाँ आये हुए सभी राजाओं व राजकुमारों को सम्बोधित करते हुए कहा - "सज्जनों! जिस अन्न, जल, दूध, फल, सब्जी इत्यादि को खाकर यह शरीर सुन्दर दिखता है, मैंने उन्हीं खाद्य सामग्रियों को कईं दिनों से इस मूर्ति के भीतर डालना शुरु कर दिया था। अब वो ही खाद्य सामग्री सड़कर दुर्गन्ध पैदा कर रही हैं। दुर्गन्ध पैदा करने वाले इन खाद्यान्नों से बनी हुई चमड़ी पर आप इतने फिदा हो रहे हो तो सोच करके देखो कि इस अन्न को रक्त बनाकर सौंदर्य देने वाला वह आत्मा कितना सुन्दर होगा!"

मल्लिका की इन सारगर्भित बातों का उन राजाओं और राजकुमारों पर गहरा असर पड़ा। उनमें से अधिकतर राजकुमार तो सन्यासी बन गए। उधर मल्लिका भी सन्तों की शरण में पहुँच गयी और उनके मार्गदर्शन से अपनी आत्मा को परमात्मा में विलीन कर दिया।

👉 आज का सद्चिन्तन Today Thought 20 August 2019

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prerak Prasang 20 Augest 2019



👉 परिजनों को परामर्श

हमारा चौथा परामर्श यह है कि पुण्य परमार्थ की अन्तः चेतना यदि मन में जागे तो उसे सस्ती वाहवाही लूटने की मानसिक दुर्बलता से टकरा कर चूर-चूर न हो जाने दिया जाय। आमतौर से लोगों की ओछी प्रवृत्ति नामवरी लूटने का ही दूसरा नाम पुण्य मान बैठती है और ऐसे काम करती है जिनकी वास्तविक उपयोगिता भले ही नगण्य हो पर उनका विज्ञापन अधिक हो जाय। मन्दिर, धर्मशाला बनाने आदि के प्रयत्नों को हम इसी श्रेणी का मानते हैं। वे दिन लद गये जबकि मन्दिर जन जागृति के केन्द्र रहा करते थे। वे परिस्थितियां चली गई जब धर्म प्रचारकों और पैदल यात्रा करने वाले पथिकों के लिये विश्राम ग्रहों की आवश्यकता पड़ती थी। अब व्यापारिक या शादी-ब्याह सम्बन्धी स्वार्थपरक कामों के लिये लोगों को किराया देकर ठहरना या ठहराना ही उचित है। मुफ्त की सुविधा वे क्योँ लें-और क्यों दें। कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह के विडम्बनात्मक कामों से शक्ति का अपव्यय बचाया जाना चाहिये और उसे जन मानस के परिष्कार कर सकने वाले कार्यों की एक ही दिशा में लगाया जाना चाहिये।

हमें नोट कर लेना चाहिए कि आज की समस्त उलझनों और विपत्तियों का मात्र एक ही कारण है मनुष्य की विचार विकृति। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों ने ही शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, राजनैतिक संकट खड़े किये है। वाह्य उपचारों से--पत्ते सींचने से कुछ बन नहीं पड़ेगा हमें मूल तक जाना चाहिये और जहां से संकट उत्पन्न होते हैं उस छेद को बन्द करना चाहिये। कहना न होगा कि विचारों और भावनाओं का स्तर गिर जाना ही समस्त संकटों का केन्द्र बिन्दु है। हमें इसी मर्मस्थल पर तीर चलाने चाहिए। हमें ज्ञानयज्ञ और विचार-क्राँति को ही इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता एवं समस्त विकृतियों की एक मात्र चिकित्सा मान कर चलना चाहिए। और उन उपायों को अपनाना चाहिए जिससे मानवीय विचारणा एवं आकाँक्षा को निकृष्टता से विरत कर उत्कृष्टता का स्तर उन्मुख किया जा सके। ज्ञान-यज्ञ की सारी योजना इसी लक्ष्य को ध्यान में रख कर बनाई गई है। हमें अर्जुन को लक्ष्य भेदते समय मछली की आंख देखने की तरह केवल युग की आवश्यकता विचार-क्राँति पर ही ध्यान एकत्रित करना चाहिए और केवल उन्हीं परमार्थ प्रयोजनों को हाथ में लेना चाहिए जो ज्ञान-यज्ञ के पुण्य-प्रयोजन पूरा कर सकेगा।

अन्यान्य कार्यक्रमों से हमें अपना कन बिलकुल हटा लेना चाहिए, शक्ति बखेर देने से कोई काम पूरा नहीं सकता हमारा चौथा परामर्श परिजनों को यही है कि वे परमार्थ भावना से सचमुच कुछ करना चाहते हों तो उस कार्य को हजार बार इस कसौटी पर कस लें कि इस प्रयोग से आज कि मानवीय दुर्बुद्धि को उलटने के लिये अभीष्ट प्रबल पुरुषार्थ की पूर्ति इससे होती है या नहीं। शारीरिक सुख सुविधायें पहुंचाने वाले धर्म-पुण्यों को अभी कुछ समय रोका जा सकता है, वे पीछे भी हो सकते हैं पर आज की तात्कालिक आवश्यकता तो विचार-क्राँति एवं भावनात्मक नव-निर्माण ही है सो उसी को आपत्ति धर्म युग धर्म-मानकर सर्वतोभावेन हमें उसी प्रयोजन में निरत हो जाना चाहिए। ज्ञान-यज्ञ के कार्य इमारतों की तरह प्रत्यक्ष नहीं दीखते और स्मारक की तरह वाह-वाही का प्रयोजन पूरा नहीं करते तो भी उपयोगिता की दृष्टि से ईंट चूने की इमारतें बनाने की अपेक्षा इन भावनात्मक परमार्थों के परिणाम लाख करोड़ गुना अधिक है। हमें वाह-वाही लूटने की तुच्छता से आगे बढ़कर वे कार्य हाथ में लेने चाहिए जिनके ऊपर मानव-जाति का भाग्य और भविष्य निर्भर है। यह प्रक्रिया ज्ञान-यज्ञ का होता अध्वर्यु बने बिना और किसी तरह पूरी नहीं होती।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ५९



http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.59

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५१)

👉 व्यक्तित्व की समग्र साधना हेतु चान्द्रायण तप

जबकि संयम प्रतिरोधक शक्ति की लौह दीवार को मजबूत करता है। संयम से जीवन इतना शक्तिशाली होता है कि किसी भी तरह के जीवाणु- विषाणु अथवा फिर नकारात्मक विचार प्रवेश ही नहीं पाते हैं। तप के प्रयोग का यह प्रथम चरण प्राणबल को बढ़ाने का अचूक उपाय है। इससे संरक्षित ऊर्जा स्वस्थ जीवन का आधार बनती है। जिनकी तप में आस्था है वे नित्य- नियमित संयम की शक्तियों को अनुभव करते हैं। मौसम से होने वाले रोग, परिस्थितियों से होने वाली परेशानियाँ उन्हें छूती ही नहीं। इससे साधक में जो बल बढ़ता है, उसी से दूसरे चरण को पूरा करने का आधार विकसित होता है। परिशोधन के इस दूसरे चरण में तप की आन्तरिकता प्रकट होती है। इसी विन्दु पर तप के यथार्थ प्रयोगों की शुरुआत होती है। मृदु चन्द्रायण, कृच्छ  चन्द्रायण के साथ की जाने वाली गायत्री साधनाएँ इसी शृंखला का एक हिस्सा है। विशिष्ट मुहूर्तों, ग्रहयोगों, पर्वों पर किये जाने वाले उपवास का भी यही अर्थ है।

परिशोधन किस स्तर पर और कितना करना है, इसी को ध्यान में रखकर इन प्रयोगों का चयन किया जाता है। इसके द्वारा इस जन्म में भूल से या प्रमादवश हुए दुष्कर्मों का नाश होता है। इतना ही नहीं विगत जन्मों के दुष्कर्म, प्रारब्धजनित दुर्योगों का इस प्रक्रिया से शमन होता है। तप के प्रयोग में यह चरण महत्त्वपूर्ण है। इस क्रम में क्या करना है, किस विधि से करना है, इसका निर्धारण कोई सफल आध्यात्मिक चिकित्सक ही कर सकता है। जिनकी पहुँच उच्चस्तरीय साधना की कक्षा तक है वे स्वयं भी अपनी अन्तर्दृष्टि के सहारे इसका निर्धारण करने में समर्थ होते हैं। अगर इसे सही ढंग से किया जा सके तो तपश्चर्या में प्रवीण साधक अपने भाग्य एवं भविष्य को बदलने, उसे नये सिरे से गढ़ने में समर्थ होता है।

तीसरे क्रम में जागरण का स्थान है। यह तप के प्रयोग की सर्वोच्च कक्षा है। इस तक पहुँचने वाले साधक नहीं, सिद्ध जन होते हैं। परिशोधन की प्रक्रिया में जब सभी कषाय- कल्मष दूर हो जाते हैं तो इस अवस्था में साधक की अन्तर्शक्तियाँ विकसित होती हैं। इनके द्वारा वह स्वयं के साथ औरों को जान सकता है। अपने संकल्प के द्वारा वह औरों की सहायता कर सकता है। इस अवस्था में पहुँचा हुआ व्यक्ति स्वयं तो स्वस्थ होता ही है औरों को भी स्वास्थ्य का वरदान देने में समर्थ होता है। जागरण की इस अवस्था में तपस्वी का सीधा सम्पर्क ब्रह्माण्ड की विशिष्ट शक्तिधाराओं से हो जाता है। इनसे सम्पर्क, ग्रहण, धारण व नियोजन की कला उसे सहज ज्ञात हो जाती है। इस अवस्था में वह अपने भाग्य का दास नहीं, बल्कि उसका स्वामी होता है। उसमें वह सामर्थ्य होती है कि स्वयं के भाग्य के साथ औरों के भाग्य का निर्माण भी कर सके।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७२

👉 आत्मचिंतन के क्षण 20 Aug 2019

■  नम्रता, नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र की वह भावना है, जो सब मनुष्यों में, सब प्राणियों में, स्थित शाश्वत सत्य से ईश्वर से सम्बन्ध कराती है। इस तरह उसे जीवन के ठीक-ठीक लक्ष्य की प्राप्ति कराती है। जगत में उस शाश्वत चेतना का, ईश्वर का दर्शन कर, मनुष्य का मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है।
"सियाराम मय सब जग जानी,
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।"
 
◇ अन्त:करण को बलवान बनाने का उपाय यह है कि आप कभी उसकी अवहेलना न करें। वह जो कहे, उसे सुनें और कार्यरुप में परिणत करें। किसी कार्य को करने से पूर्व अपनी अन्तरात्मा की गवाही अवश्य लें। यदि प्रत्येक कार्य में आप अन्तरात्मा की सम्मति प्राप्त कर लिया करेंगे तो विवेक पथ नष्ट न होगा। दुनियाँ भर का विरोध करने पर भी यदि आप अपनी अन्तरात्मा का पालन कर सकें, तो कोई आपको सफलता प्राप्त करने से नहीं रोक सकता।  

★ आत्म चिन्तन से नवशक्ति एवं विश्राम मिलता है, आनेवाली आवश्यकताओं के लिए शक्ति रक्षित होती है, और जीवन को संतुलित और लचीला बनाये रखने में सहायता मिलती है। इसके द्वारा हम बहुधा अपने अच्छे बुरे कर्मों पर पुनर्विचार कर सकते है। इस क्रिया से आन्तरिक विकास में बडी सहायता मिलती है।

◇ सदा कार्य में व्यस्त रहना, टांगे-घोडे की तरह सदा काम में जुते रहना शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत हानि-कारक होता है। इस पर भी हममें से अधिकतर मनुष्य अपने अवकाश के समय का उपयोग केवल दो ही रीतियों से करने का विचार कर सकते हैं या तो हम केवल काम करते हैं या केवल खेल में ही समय बिता देते हैं। हममें से बहुत कम लोग यह विचार करते हैं कि दैनन्दिन जीवन में आने वाले विरामों का एक दूसरा बहुमूल्य उपयोग भी है वह है- आत्म चिन्तन।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...