विकारों से मुक्त, भक्तों के आदर्श शुकदेव
‘निरोधस्तु लोक वेदव्यापार न्यासः॥ ८॥’
लौकिक और वैदिक समस्त कर्मों का त्याग निरोध है।
देवर्षि ने बड़े मधुर स्वरों में यह सूत्र उच्चारित किया। उनकी वाणी ने हिमवान् के आंगन में बैठे सभी देवों और ऋषियों की हृदय वीणा झंकृत कर दी। सभी के अन्तस में बड़े अलौकिक भक्तिसंगीत की गूंज उठी। निरोध और न्यास इन दो बिन्दुओं के बीच सभी की चेतना आ सिमटी। अन्तर्गगन में विहार करने वाले देवर्षि से उपस्थित जनों की यह चैतन्य दशा छुपी न रही। उन्होंने कहा- ‘‘निरोध त्याग नहीं है। यह तो चित्त के चैतन्य की उन्नत भाव दशा है। इसमें चित्त स्वभावतः ही शान्त, एकाग्र, स्थिर और विकल्प-विक्षेप विहीन हो जाता है। चित्त ज्यों-ज्यों इस भावदशा की ओर आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों लौकिक एवं वैदिक कर्म छूटते जाते हैं।’’
देवर्षि की अमृतवाणी हिमालय के मीठे जल प्रपात की भांति झर रही थी। इसमें ध्वनि तो थी पर आध्यात्मिक संगीत की तरह। वहाँ उपस्थित सभी ऋषियों एवं देवों के चित्त स्वाभाविक ही इसमें स्वरित हो रहे थे। बाह्य प्रकृति के ऊर्जाकणों में ये भक्ति संवेदन घुल रहे थे। सूर्यदेव की प्रकाश किरणें, हिमालय के महागगन में विहार करने वाले पक्षी, वहाँ विचरण करने वाले पशु- सभी में यह भक्ति चेतना तरंगित हो रही थी। संवेदना के संवेदन सहचर्य को जन्म देते हैं। यह सत्य यहाँ प्रत्यक्ष हो रहा था। और जब यह संवेदना भक्ति की हो तो सहचर्य स्वयं ही बड़ा भावमय हो जाता है। कुछ ऐसे ही अन्तर्मिलन एवं भावमिलन का भावपूर्ण संयोग यहाँ घटित हो रहा था।
देवर्षि कह रहे थे कि ‘‘चित्त चेतना के विमल होने के साथ न्यास स्वभावतः प्रतिष्ठित होता है और जब न्यास प्रतिष्ठित होता है तो स्वाभाविक ही निरोध की अवस्था आ जाती है। इसका उलटा भी सच है कि यदि चित्त में निरोध की अवस्था आ जाय तो न्यास अपने आप ही घटित हो जाता है। इसे मैंने युवा शुकदेव में स्वयं देखा है।’’ देवर्षि के मुख से महामुनि शुकदेव का नाम सुनते ही सभी को व्यासपुत्र शुकदेव का स्मरण हो आया। व्यासपुत्र शुकदेव! नित्यज्ञानी शुकदेव!! परमभक्त शुकदेव!!! भागवत के परम आचार्य शुकदेव!!!!
ऐसे भक्त के पावन प्रसंग को सुनने के लिए सभी उत्कंठित हो उठे। महर्षि पुलह तो अपनी उत्कण्ठा को क्षणभर भी न छुपा सके। वह तुरन्त बोल पड़े- ‘‘देवर्षि! जिनमें विकार का लेश भी नहीं है। जिन्हें कभी कामनाओं की कीचड़ ने नहीं छुआ- ऐसे शुकदेव की भक्तिकथा को हम सभी अवश्य सुनना चाहते हैं।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ४१