सोमवार, 17 मई 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग १८)

विकारों से मुक्त, भक्तों के आदर्श शुकदेव

‘निरोधस्तु लोक वेदव्यापार न्यासः॥ ८॥’
लौकिक और वैदिक समस्त कर्मों का त्याग निरोध है।
    
देवर्षि ने बड़े मधुर स्वरों में यह सूत्र उच्चारित किया। उनकी वाणी ने हिमवान् के आंगन में बैठे सभी देवों और ऋषियों की हृदय वीणा झंकृत कर दी। सभी के अन्तस में बड़े अलौकिक भक्तिसंगीत की गूंज उठी। निरोध और न्यास इन दो बिन्दुओं के बीच सभी की चेतना आ सिमटी। अन्तर्गगन में विहार करने वाले देवर्षि से उपस्थित जनों की यह चैतन्य दशा छुपी न रही। उन्होंने कहा- ‘‘निरोध त्याग नहीं है। यह तो चित्त के चैतन्य की उन्नत भाव दशा है। इसमें चित्त स्वभावतः ही शान्त, एकाग्र, स्थिर और विकल्प-विक्षेप विहीन हो जाता है। चित्त ज्यों-ज्यों इस भावदशा की ओर आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों लौकिक एवं वैदिक कर्म छूटते जाते हैं।’’
    
देवर्षि की अमृतवाणी हिमालय के मीठे जल प्रपात की भांति झर रही थी। इसमें ध्वनि तो थी पर आध्यात्मिक संगीत की तरह। वहाँ उपस्थित सभी ऋषियों एवं देवों के चित्त स्वाभाविक ही इसमें स्वरित हो रहे थे। बाह्य प्रकृति के ऊर्जाकणों में ये भक्ति संवेदन घुल रहे थे। सूर्यदेव की प्रकाश किरणें, हिमालय के महागगन में विहार करने वाले पक्षी, वहाँ विचरण करने वाले पशु- सभी में यह भक्ति चेतना तरंगित हो रही थी। संवेदना के संवेदन सहचर्य को जन्म देते हैं। यह सत्य यहाँ प्रत्यक्ष हो रहा था। और जब यह संवेदना भक्ति की हो तो सहचर्य स्वयं ही बड़ा भावमय हो जाता है। कुछ ऐसे ही अन्तर्मिलन एवं भावमिलन का भावपूर्ण संयोग यहाँ घटित हो रहा था।
    
देवर्षि कह रहे थे कि ‘‘चित्त चेतना के विमल होने के साथ न्यास स्वभावतः प्रतिष्ठित होता है और जब न्यास प्रतिष्ठित होता है तो स्वाभाविक ही निरोध की अवस्था आ जाती है। इसका उलटा भी सच है कि यदि चित्त में निरोध की अवस्था आ जाय तो न्यास अपने आप ही घटित हो जाता है। इसे मैंने युवा शुकदेव में स्वयं देखा है।’’ देवर्षि के मुख से महामुनि शुकदेव का नाम सुनते ही सभी को व्यासपुत्र शुकदेव का स्मरण हो आया। व्यासपुत्र शुकदेव! नित्यज्ञानी शुकदेव!!  परमभक्त शुकदेव!!!  भागवत के परम आचार्य शुकदेव!!!!

ऐसे भक्त के पावन प्रसंग को सुनने के लिए सभी उत्कंठित हो उठे। महर्षि पुलह तो अपनी उत्कण्ठा को क्षणभर भी न छुपा सके। वह तुरन्त बोल पड़े- ‘‘देवर्षि! जिनमें विकार का लेश भी नहीं है। जिन्हें कभी कामनाओं की कीचड़ ने नहीं छुआ- ऐसे शुकदेव की भक्तिकथा को हम सभी अवश्य सुनना चाहते हैं।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ४१

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग १८)

👉 समस्त दुखों का कारण अज्ञान

जीवन यापन करने के लिए हमें नौ उपकरण प्राप्त हैं। (1) नेत्र (2) जिह्वा (3) नासिका (4) कान (5) त्वचा (6) मन (7) बुद्धि (8) चित्त (9) अहंकार, इन्हीं के माध्यम से हमें विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान को ही यथार्थ मानते हैं। पर थोड़ी गहराई के साथ देखा जाय तो प्रतीत होगा कि यह सभी उपकरण एक सीमित और सापेक्ष जानकारी देते हैं, इनके माध्यम से मिली जानकारी न तो यथार्थ होती है और न पूर्ण। इसलिए उन अपूर्ण साधनों से मिली जानकारी को सही मान बैठना ‘भूल’ ही कही जायगी। वेदान्त की भाषा में इस अपूर्ण जानकारी को ‘स्वप्न’ मिथ्या कहकर उसका वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

संसार में अनेक कारणों से अनेक शब्द कम्पन उत्पन्न होते रहते हैं, इन ध्वनि तरंगों की गति भिन्न-भिन्न होती है। मनुष्य के कान केवल उतने ही ध्वनि कम्पन पकड़ सुन सकते हैं जिनकी गति 33 प्रति सेकिंड से लेकर 40 प्रति सेकिंड के बीच में होती है। इससे कम या ज्यादा गति वाले कम्पन अपने कानों की पकड़ में नहीं आते। इस परिधि के बाहर विचरण करने वाला प्रवाह इतना अधिक है जिसकी तुलना में सुनाई देने वाले शब्दों को लाख करोड़वां हिस्सा कह सकते हैं। इतनी स्वल्प ध्वनि को सुन सकने वाले कानों को शब्द सागर की कुछ बूंदों का ही अनुभव होता है। शेष के बारे में वे सर्वथा अनजान ही बने रहते हैं। इस अपूर्ण उपकरण के माध्यम से ध्वनि के माध्यम से विचरण करने वाले ज्ञान को सर्वथा स्वल्प ही कहा जा सकता है और उतने से साधन से मिलने वाली जानकारी के आधार पर वस्तु स्थिति समझने का दावा नहीं कर सकते।

त्वचा के माध्यम से मिलने वाली जानकारी भी कानों की तरह ही अपूर्ण होती है साथ ही भ्रान्त भी। हाथ पर एक मिनट तक बर्फ रखे रहें इसके बाद उसी हाथ को साधारण जल में डुबोए। लगेगा पानी गरम है। इसके बाद हाथ पर कुछ देर कोई गरम चीज रखे रहें, इसके बाद हाथ को उसी पानी में डुबाये प्रतीत होगा पानी ठण्डा है। जल एक ही तापमान का था पर बर्फ अथवा गरम चीज रखने के बाद हाथ डुबाने पर अलग अलग तरह के अनुभव हुए। ऐसी त्वचा की गवाही पर क्या भरोसा किया जाय जो कुछ का कुछ बताती है। ठण्ड और गर्मी की न्यूनाधिकता का अन्तर भी त्वचा एक सीमा तक ही बताती है। अत्यधिक गरम या अत्यधिक ठण्डी वस्तु में तापमान या शीतमान का जो अन्तर होता है उसे त्वचा नहीं बता सकती। ऐसी सीमित शक्ति वाली त्वचा इन्द्रिय के माध्यम से हम समग्र सत्य को समझ सकने में कैसे समर्थ हो सकते हैं?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ २७
परम पूज्य गुरुदेव ने ये पुस्तक 1979 में लिखी थी

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