शनिवार, 14 सितंबर 2019

👉 शर्मिंदा

फ़ोन की घंटी तो सुनी मगर आलस की वजह से रजाई में ही लेटी रही। उसके पति राहुल को आखिर उठना ही पड़ा। दूसरे कमरे में पड़े फ़ोन की घंटी बजती ही जा रही थी।इतनी सुबह कौन हो सकता है जो सोने भी नहीं देता, इसी चिड़चिड़ाहट में उसने फ़ोन उठाया। “हेल्लो, कौन” तभी दूसरी तरफ से आवाज सुन सारी नींद खुल गयी।
“नमस्ते पापा।” “बेटा, बहुत दिनों से तुम्हे मिले नहीं सो हम दोनों ११ बजे की गाड़ी से आ रहे है। दोपहर का खाना साथ में खा कर हम ४ बजे की गाड़ी वापिस लौट जायेंगे। ठीक है।” “हाँ पापा, मैं स्टेशन पर आपको लेने आ जाऊंगा।”

फ़ोन रख कर वापिस कमरे में आ कर उसने रचना को बताया कि मम्मी पापा ११ बजे की गाड़ी से आरहे है और दोपहर का खाना हमारे साथ ही खायेंगे।

रजाई में घुसी रचना का पारा एक दम सातवें आसमान पर चढ़ गया। “कोई इतवार को भी सोने नहीं देता, अब सबके के लिए खाना बनाओ। पूरी नौकरानी बना दिया है।” गुस्से से उठी और बाथरूम में घुस गयी। राहुल हक्का बक्का हो उसे देखता ही रह गया। जब वो बाहर आयी तो राहुल ने पूछा “क्या बनाओगी।” गुस्से से भरी रचना ने तुनक के जवाब दिया “अपने को तल के खिला दूँगी।” राहुल चुप रहा और मुस्कराता हुआ तैयार होने में लग गया, स्टेशन जो जाना था। थोड़ी देर बाद ग़ुस्सैल रचना को बोल कर वो मम्मी पापा को लेने स्टेशन जा रहा है वो घर से निकल गया।

रचना गुस्से में बड़बड़ाते हुए खाना बना रही थी।
दाल सब्जी में नमक, मसाले ठीक है या नहीं की परवाह किए बिना बस करछी चलाये जा रही थी। कच्चा पक्का खाना बना बेमन से परांठे तलने लगी तो कोई कच्चा तो कोई जला हुआ। आखिर उसने सब कुछ ख़तम किया, नहाने चली गयी।

नहा के निकली और तैयार हो सोफे पर बैठ मैगज़ीन के पन्ने पलटने लगी।उसके मन में तो बस यह चल रहा था कि सारा संडे खराब कर दिया। बस अब तो आएँ , खाएँ और वापिस जाएँ। थोड़ी देर में घर की घंटी बजी तो बड़े बेमन से उठी और दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही उसकी आँखें हैरानी से फटी की फटी रह गयी और मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल सका। सामने राहुल के नहीं उसके अपने मम्मी पापा खड़े थे जिन्हें राहुल स्टेशन से लाया था।

मम्मी ने आगे बढ़ कर उसे झिंझोड़ा “अरे, क्या हुआ। इतनी हैरान परेशान क्यों लग रही है। क्या राहुल ने बताया नहीं कि हम आ रहे हैं।” जैसे मानो रचना के नींद टूटी हो “नहीं, मम्मी इन्होंने तो बताया था पर…. रर… रर। चलो आप अंदर तो आओ।” राहुल तो अपनी मुसकराहट रोक नहीं पा रहा था।

कुछ देर इधर उधर की बातें करने में बीत गया। थोड़ी देर बाद पापा ने कहाँ “रचना, गप्पे ही मारती रहोगी या कुछ खिलाओगी भी।” यह सुन रचना को मानो साँप सूँघ गया हो। क्या करती, बेचारी को अपने हाथों ही से बनाए अध पक्के और जले हुए खाने को परोसना पड़ा। मम्मी पापा खाना तो खा रहे थे मगर उनकी आँखों में एक प्रश्न था जिसका वो जवाब ढूँढ रहे थे। आखिर इतना स्वादिष्ट खाना बनाने वाली उनकी बेटी आज उन्हें कैसा खाना खिला रही है।

रचना बस मुँह नीचे किए बैठी खाना खा रही थी। मम्मी पापा से आँख मिलाने की उसकी हिम्मत नहीं हो पा रही थी। खाना ख़तम कर सब ड्राइंग रूम में आ बैठे। राहुल कुछ काम है अभी आता हुँ कह कर थोड़ी देर के लिए बाहर निकल गया। राहुल के जाते ही मम्मी, जो बहुत देर से चुप बैठी थी बोल पड़ी “क्या राहुल ने बताया नहीं था की हम आ रहे हैं।”

तो अचानक रचना के मुँह से निकल गया “उसने सिर्फ यह कहाँ था कि मम्मी पापा लंच पर आ रहे हैं, मैं समझी उसके मम्मी पापा आ रहे हैं।”

फिर क्या था रचना की मम्मी को समझते देर नहीं लगी कि ये मामला है। बहुत दुखी मन से उन्होंने रचना को समझाया “बेटी, हम हों या उसके मम्मी पापा तुम्हे तो बराबर का सम्मान करना चाहिए। मम्मी पापा क्या, कोई भी घर आए तो खुशी खुशी अपनी हैसियत के मुताबिक उसकी सेवा करो। बेटी, जितना किसी को सम्मान दोगी उतना तुम्हे ही प्यार और इज़्ज़त मिलेगी। जैसे राहुल हमारी इज़्ज़त करता है उसी तरह तुम्हे भी उसके माता पिता और सम्बन्धियों की इज़्ज़त करनी चाहिए। रिश्ता कोई भी हो, हमारा या उसका, कभी फर्क नहीं करना।”

रचना की आँखों में ऑंसू आ गए और अपने को शर्मिंदा महसूस कर उसने मम्मी को वचन दिया कि आज के बाद फिर ऐसा कभी नहीं होगा..!

👉 आज का सद्चिन्तन Today Thought 14 Sep 2019



👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prerak Prasang 14 Sep 2019



👉 इष्ट की उपासना का मर्म

दिन ढल रहा था। रात तथा दिन फिर से बिछुड़ जाने को कुछ क्षणों के लिये एक दूसरे में विलीन हो गये थे। रम्य वनस्थली में एक पर्णकुटी में से कुछ धुआँ सा उठ रहा था।
कुटीर में निवास करने वाले दो ऋषि- शनक तथा अभिप्रतारी अपना भोजन तैयार कर रहे थे। वनवासियों का भोजन ही क्या? कुछ फल तोड़ लाये-कुछ दूध से काम चल गया-हाँ, कन्द-मूलों को अवश्य आँच में पकाना होता था। भोजन लगभग तैयार हो चुका था और उसे कदलीपत्रों पर परोसा जा रहा था।

तभी बाहर किसी आगन्तुक के आने का शब्द हुआ। दोनों ने जानने का प्रयत्न किया। बाहर एक युवा ब्रह्मचारी खड़ा था।

ऋषि ने प्रश्न किया- ‘कहो वत्स! क्या चाहिए?’ युवक विनम्र वाणी में बोला- ‘आज प्रातः से अभी तक मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सका है। मैं क्षुधा से व्याकुल हो रहा हूँ। यदि कुछ भोजन मिल जाता, तो बड़ी दया होती।’

कुटीर निवासी कहने को वनवासी थे, हृदय उनका सामान्य गृहस्थों से भी कहीं अधिक संकीर्ण था। मात्र सिद्धान्तवादी थे वे- व्यावहारिक वेदाँती नहीं थे। सो रूखे स्वर में कहा- ‘भाई तुम किसी गृहस्थ का घर देखो। हम तो वनवासी हैं। अपने उपयोग भर का ही भोजन जुटाते हैं नित्य।’

ब्रह्मचारी को बड़ी ही निराशा हुई। यद्यपि वह अभी ज्ञानार्जन कर ही रहा था-तथापि कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का व्यावहारिक बोध था उसे। निराश इस बात से नहीं था वह कि उसे भोजन प्राप्त नहीं हो सका था। उसकी मानसिक पीड़ा का कारण यह था कि यदि कोई साँसारिक मनुष्य इस प्रकार का उत्तर देता तो फिर भी उचित था। वह उसके भौतिकतावादी-मोह से भरे दृष्टिकोण का परिचायक होता। किन्तु ये वनवासी जो अपने आपको ब्रह्मज्ञान का अधिकारी अनुभव करते हैं- उनके द्वारा इस प्रकार का उत्तर पाकर यह क्षुब्ध हो उठा।

तब चुपचाप चले जाने की अपेक्षा उस युवक ने यही उचित समझा कि इन अज्ञान में डूबे ज्ञानियों को इनकी भूल का बोध करा ही देना चाहिए।

उसने पुनः उनको पुकारा। बाहर से भीतर का सब कुछ स्पष्ट दीख रहा था। झुँझलाते हुए शनक तथा अभिप्रतारी दोनों बाहर आये। तब युवक बोला- ‘क्या मैं यह जान सकता हूँ कि आप किस देवता की उपासना करते हैं?’

उपनिषद् काल में-जिस समय की यह घटना है-विभिन्न ऋषि-मुनि विभिन्न देवता विशेष की साधना करते थे।

उन ऋषियों को तनिक क्रोध आ गया। व्यर्थ ही भोजन को विलम्ब हो रहा था। पेट की जठराग्नि भी उधर को ही मन की रास मोड़ रही थी।

झुँझलाहट में कहा- ‘तुम बड़े असभ्य मालूम होते हो। समय-कुसमय कुछ नहीं देखते। अस्तु! हमारा इष्टदेव वायु है, जिसे प्राण भी कहते हैं।’

अब वह ब्रह्मचारी बोला- ‘तब तो आप अवश्य ही यह जानते होंगे कि यह प्राण समस्त सृष्टि में व्यापक है। जड़-चेतन सभी में।’

ऋषि बोले- ‘क्यों नहीं! यह तो हम भली-भाँति जानते हैं।’

अब युवक ने प्रश्न किया- ‘क्या मैं यह जान सकता हूँ कि यह भोजन आपने किसके निमित्त तैयार किया है?’

ऋषि अब बड़े गर्व से बोले- ‘हमारा प्रत्येक कार्य अपने उपास्य को समर्पित होता है।’

ब्रह्मचारी ने मन्द स्मिति के साथ पुनः कहा- ‘यदि प्राण तत्व इस समस्त संसार में व्याप्त है, तो वह मुझमें भी है। आप यह मानते हैं?’

ऋषि को अब ऐसा बोध हो रहा था कि अनजाने ही वे इस युवा के समक्ष हारते चले जा रहे हैं। तली में जैसे छेद हो जाने पर नाव पल-पल अतल गहराई में डूबती ही जाती है युवक की सारगर्भित वाणी में उनका अहं तथा अज्ञान वैसे ही धंसता चला जा रहा था। आवेश का स्थान अब विनम्रता लेती जा रही थी।

शनक धीमे स्वर में बोले- ‘तुम सत्य कहते हो ब्रह्मचारी! निश्चय ही तुम्हारे अन्दर वही प्राण, वही वायु संव्याप्त है, जो इस संसार का आधार है।’

ब्रह्मचारी संयत स्वर में अब भी कह रहा था-’तो हे महामुनि ज्ञानियों! आपने मुझे भोजन देने से मना करके अपने उस इष्टदेव का ही अपमान किया है जो कण-कण में परिव्याप्त है। चाहे विशाल पुँज लगा हो, चाहे एक दाना हो- परिणाम में अन्तर हो सकता है- किन्तु उससे तत्व की एकता में कोई अन्तर नहीं आता। आशा है मेरी बात का आप कुछ अन्यथा अर्थ न लगायेंगे।’ ब्रह्मचारी का उत्तर हृदय में चला गया था। सत्य में यही शक्ति होती है। दोनों ऋषि अत्यन्त ही लज्जित हुए खड़े थे। किन्तु साधारण मनोभूमि के व्यक्तियों में तथा ज्ञानियों में यही तो अन्तर होता है। ये अपनी त्रुटियों को भी अपनी हठधर्मी के समक्ष स्वीकार नहीं करते और ये अपनी भूल का बोध होते ही, उसे सच्चे हृदय से स्वीकार कर लेते हैं तथा तत्क्षण उसके सुधार में संलग्न हो जाते हैं।

अभिप्रतारी ने अत्यन्त ही विनम्र वाणी में कहा- ‘हम से बड़ी भूल हो गई ब्रह्मचारी! लगता है तुम किसी बहुत ही योग्य गुरु के पास शिक्षा ग्रहण कर रहे हो। धन्य हैं वे। तुम उम्र में हमसे कहीं छोटे होते हुए भी तत्वज्ञानी हो। अब कृपा करके हमारी कुटी में आओ और भोजन ग्रहण करके हमें हमारी भूल का प्रायश्चित्त करने का अवसर दो।’

और दोनों सादर उस ब्रह्मचारी युवक को ले गये। उसे पग पाद प्रक्षालन हेतु शीतल जल दिया तथा अपने साथ बैठकर सम्मानपूर्वक भोजन कराया।
उस दिन से वे अपनी कुटी में ऐसी व्यवस्था रखते कि कोई भी अतिथि अथवा राहगीर कभी भी आये, वे उसे बिना भोजन किये न जाने देते। इष्ट की उपासना का मर्म-सच्चा स्वरूप अब उनकी समझ में आ गया था।

📖 अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९७० पृष्ठ 14
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/October/v1.14

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ६६)

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा की प्रथम कक्षा- रेकी

रेकी शक्ति को पाने के बाद उन्होंने सबसे पहले अपने पाँव के अगूँठे की चोट को ठीक किया। यह इनकी पहली उपचार प्रक्रिया थी। इसके बाद ये जब पर्वत से उतरकर एक सराय में रुके तो उस समय सराय मालिक के पौत्री के दाँतों में कई दिनों से सूजन थी, दर्द भी काफी ज्यादा था। डॉ. उशी ने इसे छुआ और उसी समय उसका दर्द व सूजन जाता रहा। इसके बाद तो डॉ. उशी ने रेकी के सिद्धान्तों एवं प्रयोगों का विधिवत् विकास किया। और अपने शिष्यों को इसमें प्रशिक्षित किया। डॉ. चिजिरोहयाशी हवायो तफाता एवं फिलिप ली फूरो मोती आदि लोगों ने उनके बाद इस रेकी विद्या को विश्वव्यापी बनाया।

डॉ. मेकाओ उशी ने रेकी चिकित्सक के लिए पाँच सिद्धान्त निश्चित किये थे। १. क्रोध न करना, २. चिंता से मुक्त होना, ३. कर्तव्य के प्रति ईमानदार होना, ४. जीवमात्र के प्रति प्रेम व आदर का भाव रखना एवं ५. ईश्वरीय कृपा के प्रति आभार मानना। इन पाँचों नियमों का सार यह है कि व्यक्ति अपनी नकारात्मक सोच व क्षुद्र भावनाओं से दूर रहे, क्योंकि ये नकारात्मक सोच व क्षुद्र भावनाएँ ही हैं, जिनसे न केवल देह में स्थित प्राण ऊर्जा का क्षरण होता है, बल्कि विश्वव्यापी प्राण ऊर्जा के जीवन में आने के मार्ग अवरुद्ध होते हैं। ये सभी नियम रेकी साधक को विधेयात्मक बनाते हैं, जिनकी वजह से प्राण प्रवाह नियमित रहता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ९२

👉 संयम मन से भी करें:-

विचारों का संयम न हो तो वाणी, इन्द्रिय, धन आदि का अपव्यय न करते हुए भी व्यक्ति कुछ पाता नहीं, सतत खोता ही है। एक ग्रामीण ने संत ज्ञानेश्वर से पूछा- ''संयमित जीवन बिताकर भी मैं रोगी हूँ, महात्मन् ऐसा क्यों ?'' दृष्टा संत बोले-''पर मन में विचार तो निकृष्ट हैं। भले ही तुम बाहर से संयम बरतते रहो-मन में कलुष भरा हो, विचार गन्दे हो तो वह अपव्यय रोगी बनायेगा ही।''

विचारों को आवारा कुत्तों की तरह अचिन्त्य-चिंतन में भटकने न दिया जाय। उन्हें हर समय उपयोगी दिशा-धारा के साथ नियोजित करके रखा जाय। अनगढ़-अनैतिक विचारों से जूझने के लिए सद्विचारों की एक सेना बनाकर रखी जाय, जो अचिन्त्यय-चिंतन उठते ही जूझ पड़े उन्हें निरस्त करके भगा दें।।

विचार संयम का सबसे अच्छा तरीका है, उन्हें बिखराव से रोककर उत्कृष्ट उद्देश्य के साथ जोड़ दिया जाय। इसके लिए अपने अन्दर भी एक विरोधी विचारों की सेना उसी प्रकार खड़ी करनी होगी जैसी कि विजातीय द्रव्यों के शरीर में प्रविष्ट होने पर रक्त के कण खड़ी कर देते हैं। निकृष्ट विचारों व उत्कृष्ट चिंतन की परस्पर लड़ाई ही अन्तर्जगत का देवासुर संग्राम है। विचारों की विचारों से काट एक बहुत बड़ा पुरुषार्थ है। इसलिए अनिवार्य है कि कुविचारों को सद्विचारों से काटने का महाभारत अहर्निश जारी रखा जाय। विचारों के लिए उपयोगी मर्यादा एवं दिशाधारा निर्धारित की जाय जिनमें अभीष्ट प्रयोजन अथवा मनोरंजन के लिऐ परिभ्रमण करते रहने की छूट रहे। चिड़ियाघरों में जानवरों का बाड़ा होता है।
उन्हें घूमने-फिरने की छूट तो रहती है, पर उस बाड़े से बाहर नहीं जाने दिया जाता। ठीक यही नीति विचार वैभव के बारे में भी बरती जाय। उसे जहाँ-तहाँ बिखरने न दिया जाय।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १ से

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...