प्रभु का स्मरण सतत् हो, उनमें समर्पण निरन्तर हो, तो जीवन में अनोखा रूपान्तरण घटित होता है। कुछ ऐसा, जैसे कि मिट्टी फूल बन जाती है और गन्दगी खाद बनकर सुगन्ध में बदल जाती है। मनुष्य के विकार भी शक्तियाँ हैं, जो प्रभु के स्मरण और प्रभु में समर्पण से रूपान्तरित हो जाती हैं। आज जो मनुष्य में पशु जैसा दिखता है, वही दिशा परिवर्तित होने से दिव्यता को उपलब्ध हो जाता है।
जीवन का आध्यात्मिक सच यही है कि इसमें जो अदिव्य दिखता है, वह भी बीज रूप में दिव्य है। अपने दृष्टिकोण में यदि आध्यात्मिकता आ सके तो पता चलता है कि वस्तुतः अदिव्य एवं अपवित्र कुछ भी नहीं है। सभी कुछ यहाँ दिव्य है। भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति के हैं।
भगवान् का स्मरण और भगवान् में समर्पण होने से कुछ भी घृणा, द्वेष एवं वैर योग्य नहीं रह जाता। सच तो यह है कि जो एक छोर पर पशु है, वही दूसरे छोर पर प्रभु है। पशु और प्रभु में विरोध नहीं विकास है। यह सत्य आत्मसात हो सके तो फिर आत्मदमन, उत्पीड़न और संघर्ष व्यर्थ हो जाते हैं। भला कहीं कोई अपने को टुकड़ों में तोड़कर सुखी होता है। यह तरीका आत्मशान्ति का नहीं बल्कि आत्मसन्ताप का है। इससे ज्ञान नहीं अज्ञान गहरा होता है।
स्वयं की चेतना के किसी अंश को नष्ट नहीं किया जा सकता। इसका दमन भी अधिक समय के लिए सम्भव नहीं है। क्योंकि जिसका दमन किया गया है, जिसे हराया गया है, उसका निरन्तर दमन करना पड़ता, उसे निरन्तर पराजित करना होता है। यह पूर्ण विजय का मार्ग का नहीं है। पूर्ण विजय का मार्ग तो रूपान्तरण है। इसमें दमन नहीं बोध है। इसमें गन्दगी को हटाना नहीं उसे खाद बनाना होता है। परमात्मा का निरन्तर स्मरण और उनमें सतत् समर्पण ही वह रसायनशास्त्र है, जिससे यह सम्भव है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १९७
जीवन का आध्यात्मिक सच यही है कि इसमें जो अदिव्य दिखता है, वह भी बीज रूप में दिव्य है। अपने दृष्टिकोण में यदि आध्यात्मिकता आ सके तो पता चलता है कि वस्तुतः अदिव्य एवं अपवित्र कुछ भी नहीं है। सभी कुछ यहाँ दिव्य है। भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति के हैं।
भगवान् का स्मरण और भगवान् में समर्पण होने से कुछ भी घृणा, द्वेष एवं वैर योग्य नहीं रह जाता। सच तो यह है कि जो एक छोर पर पशु है, वही दूसरे छोर पर प्रभु है। पशु और प्रभु में विरोध नहीं विकास है। यह सत्य आत्मसात हो सके तो फिर आत्मदमन, उत्पीड़न और संघर्ष व्यर्थ हो जाते हैं। भला कहीं कोई अपने को टुकड़ों में तोड़कर सुखी होता है। यह तरीका आत्मशान्ति का नहीं बल्कि आत्मसन्ताप का है। इससे ज्ञान नहीं अज्ञान गहरा होता है।
स्वयं की चेतना के किसी अंश को नष्ट नहीं किया जा सकता। इसका दमन भी अधिक समय के लिए सम्भव नहीं है। क्योंकि जिसका दमन किया गया है, जिसे हराया गया है, उसका निरन्तर दमन करना पड़ता, उसे निरन्तर पराजित करना होता है। यह पूर्ण विजय का मार्ग का नहीं है। पूर्ण विजय का मार्ग तो रूपान्तरण है। इसमें दमन नहीं बोध है। इसमें गन्दगी को हटाना नहीं उसे खाद बनाना होता है। परमात्मा का निरन्तर स्मरण और उनमें सतत् समर्पण ही वह रसायनशास्त्र है, जिससे यह सम्भव है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १९७