बुधवार, 24 जुलाई 2024

👉 अभागो! आँखें खोलो!!

🔹 अभागे को आलस्य अच्छा लगता है। परिश्रम करने से ही है और अधर्म अनीति से भरे हुए कार्य करने के सोच विचार करता रहता है। सदा भ्रमित, उनींदा, चिड़चिड़ा, व्याकुल और संतप्त सा रहता है। दुनिया में लोग उसे अविश्वासी, धोखेबाज, धूर्त, स्वार्थी तथा निष्ठुर दिखाई पड़ते हैं। भलों की संगति उसे नहीं सुहाती, आलसी, प्रमादी, नशेबाज, चोर, व्यभिचारी, वाचाल और नटखट लोगों से मित्रता बढ़ाता है। कलह करना, कटुवचन बोलना, पराई घात में रहना, गंदगी, मलीनता और ईर्ष्या में रहना यह उसे बहुत रुचता है।

🔸 ऐसे अभागे लोग इस दुनिया में बहुत है। उन्हें विद्या प्राप्त करने से, सज्जनों की संगति में बैठने से, शुभ कर्म और विचारों से चिढ़ होती है। झूठे मित्रों और सच्चे शत्रुओं की संख्या दिन दिन बढ़ता चलता है। अपने बराबर बुद्धिमान उसे तीनों लोकों में और कोई दिखाई नहीं पड़ता। खुशाकय, चापलूस, चाटुकार और धूर्तों की संगति में सुख मानता है और हितकारक, खरी खरी बात कहने वालों को पास भी खड़े नहीं होने देता नाम के पथ पर सरपट दौड़ता हुआ वह मंद भागी क्षण भर में विपत्तियों के भारी भारी पाषाण अपने ऊपर लादता चला जाता है।


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🔹 कोई अच्छी बात कहना जानता नहीं तो भी विद्वानों की सभा में वह निर्बलता पूर्वक बेतुका सुर अलापता ही चला आता है। शाम का संचय, परिश्रम, उन्नति का मार्ग निहित है यह बात उसके गले नहीं उतरती और न यह बात समझ में आती है कि अपने अन्दर की त्रुटियों को ढूँढ़ निकालना एवं उन्हें दूर करने का प्रचण्ड प्रयत्न करना जीवन सफल बनाने के लिए आवश्यक है। हे अभागे मनुष्य! अपनी आस्तीन में सर्प के समान बैठे हुए इस दुर्भाग्य को जान। तुम क्यों नहीं देखते? क्यों नहीं पहचानते?

✍🏻 समर्थ गुरु रामदास
📖 अखण्ड ज्योति जून 1943 पृष्ठ 12

👉 प्रलोभन के आगे न झुकिये।

🔹 आध्यात्मिक उन्नति का आधार इस महान तत्व पर निर्भर है कि साधक प्रलोभन के सामने सर न झुकाए। विषय- वासना, क्रोध, घृणा, स्वार्थ के विचार से सन्निविष्ट होकर प्रलोभन हमारे दैनिक जीवन में प्रवेश करते हैं। वे इतने मनमोहक, इतने लुभावने, इतने मादक होते हैं कि क्षणभर के लिए हम विक्षिप्त हो उठते हैं। हमारी चित्तवृत्तियां उत्तेजित हो उठती हैं और हम पथभ्रष्ट हो जाते हैं।

🔸 विषयों में रमणीयता का भास बुद्धि के विपर्यय से होता है। बुद्धि के विपर्यय में अज्ञान-सम्भूत अविद्या प्रधान कारण है। इस अविद्या के ही कारण हमें प्रलोभन में रमणीयता का बोध होता है।

🔹 प्रलोभन में दो तत्व मुख्यतः कार्य करते हैं उत्सुकता तथा दूरी। प्रारम्भिक काल में आदि पुरुष का पतन उत्सुकता के कारण ही हुआ। जिस वस्तु से दूर रहने को कहा जाता है उसी के प्रति उत्सुकता उत्पन्न होती है और औत्सुक्य से प्रभावित होकर हमें रमणीयता का भास होता है। इसी भाँति जो वस्तुएँ हमसे दूर हैं उनमें रमणीयता का आकर्षण प्रतीत होता है। वास्तव में रमणीयता किसी वस्तु में नहीं होती, वह तो हमारी कल्पना तथा उत्सुकता की भावनाओं की प्रतिच्छाया (Reflection) मात्र है।

🔸 साधन यथारुढ़ होने से पूर्व आप यह निश्चित कर लीजिए कि प्रलोभन चाहे जिस रूप में आवे, हम उसे आत्म समर्पण न करेंगे। अल्प सुख विशेष को ही पूर्ण सुख मानकर उससे परितृप्त न होंगे, हताश होकर नहीं बैठेंगे, विषयासक्ति के शिकार नहीं बनेंगे, अपने मनःक्षेत्र से कुत्सित प्रलोभनों की जड़े उखाड़ फेंकेंगे।


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🔹 प्रलोभन दुर्बल हृदय की कल्पना मात्र है। दुर्बल चित्त वालों के चंचल मन में प्रलोभन एक छोटी सी तरंग के समान आता है किन्तु आश्रय पाकर वह वृहत् रूप धारण कर लेती है और साधक को डुबो देता है।

🔸 पतन का मार्ग सदैव ढालू और सुगम होता है। गिरते हुए नहीं, गिर जाने पर मनुष्य को अपनी भूल का भान होता है और कई बार तो यह चोट इतनी भयंकर होती है कि वह मनुष्य को जीवन पर्यन्त के लिए पंगु कर देता है। अतः प्रलोभन से सावधान रहिए।

📖 अखण्ड ज्योति, मार्च 1945

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 14 Aug 2024

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