रविवार, 5 अप्रैल 2020

👉 सन्तोष का फल मधुर है

किसी कसाई के यहाँ एक बकरा और कुत्ता था, बकरे को वह अच्छे स्थान पर बाँध कर नित्य हरी-हरी घास खिलाता, उसके रहने का स्थान साफ किया करता था। कुत्ते को सूखे रूखे टुकड़े दे दिया करता था। धूप, वर्षा, शीत का कष्ट सहन करते हुए, सूखे टुकड़े पाकर अपने मालिक की सेवा करता हुआ कुत्ता अपने मन में विचार करने लगा, मैं इतना कष्ट सहन कर मालिक की सेवा करता हूँ और बकरा जो कुछ भी सेवा नहीं करता उसे सुस्वाद भोजन मिला करते है। इस प्रकार के विचारों से ईश्वर के अस्तित्व अथवा उसके न्याय पर शंका होने लगी।

बकरा दिन-दिन मोटा होने लगा, जिससे कुत्ते की ईर्ष्या भी बढ़ने लगी। जब बकरा खूब तैयार हो गया तो कुत्ते ने देखा कि कसाई ने अपनी छुरी उसकी गर्दन पर फेर दी और माँस विक्रय कर जितना उस बकरे के लिए व्यय किया था, उससे कई गुना लाभ कमाया।

कुत्ते ने यह देखकर नास्तिक भाव से घृणा कर यह विश्वास किया कि ईश्वर न्यायी हैं, हराम की कमाई किसी दिन इसी प्रकार जान पर संकट लाती है। रूखी सूखी खाकर सन्तोष से जीवन व्यतीत करने का फल मीठा होता है।

👉 Aaj Ka Sadchintan आज का सद्चिंतन 5 April 2020


👉 Prernadayak Prasang प्रेरणादायक प्रसंग 5 April 2020


👉 हमारी चेतावनी को अनदेखा न करें

अगले दिन बहुत ही उलट-पुलट से भरे हैं। उनमें ऐसी घटनायें घटेंगी ऐसे परिवर्तन होंगे जो हमें विचित्र भयावह एवं कष्टकर भले ही लगें पर नये संसार की अभिनव रचना के लिए आवश्यक हैं। हमें इस भविष्यता का स्वागत करने के लिए-उसके अनुरूप ढलने के लिए-तैयार होना चाहिये। यह तैयारी जितनी अधिक रहे उतना ही भावी कठिन समय अपने लिये सरल सिद्ध होगा।

भावी नर संहार में आसुरी प्रवृत्ति के लोगों को अधिक पिसना पड़ेगा। क्योंकि महाकाल का कुठाराघात सीधा उन्हीं पर होना है। “परित्राणाय साधूनाँ विनाशायश्च दुष्कृताम्” की प्रतिज्ञानुसार भगवान को युग-परिवर्तन के अवसर पर दुष्कृतों का ही संहार करना पड़ता है। हमें दुष्ट दुष्कृतियों की मरणासन्न कौरवी सेना में नहीं, धर्म-राज की धर्म संस्थापना सेना में सम्मिलित रहना चाहिये। अपनी स्वार्थपरता, तृष्णा और वासना को तीव्र गति से घटाना चाहिए और उस रीति-नीति को अपनाना चाहिये जो विवेकशील परमार्थी एवं उदारचेता सज्जनों को अपनानी चाहिये।

संकीर्णताओं और रूढ़ियों की अन्य कोठरी से हमें बाहर निकलना चाहिए। अगले दिनों विश्व-संस्कृति, विश्व-धर्म, विश्व-भाषा, विश्व-राष्ट्र का जो भावी मानव समाज बनेगा उसमें अपनी-अपनी महिमा गाने वालों और अपनी ढपली अपना राग गाने वालों के लिये कोई स्थान न रहेगा। पृथकतावादी सभी दीवारें टूट जायेंगी और समस्त मानव समाज को न्याय एवं समता के आधार पर एक परिवार का सदस्य बन कर रहना होगा। जाति लिंग या सम्पन्नता के आधार पर किसी को वर्चस्व नहीं मिलेगा। इस समता के अनुरूप हमें अभी से ढलना आरम्भ कर देना चाहिये।

धन-संचय और अभिवर्धन की मूर्खता हमें छोड़ देना ही उचित है, बेटे पोतों के लिए लम्बे चौड़े उत्तराधिकार छोड़ने की उपहासास्पद प्रवृत्ति को तिलाँजलि देनी चाहिये क्योंकि अगले दिनों धन का स्वामित्व व्यक्ति के हाथ से निकल कर समाज, सरकार के हाथ चला जायगा। केवल शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार एवं सद्गुणों की सम्पत्ति ही उत्तराधिकार में दे सकने योग्य रह जायगी। इसलिए जिनके पास आर्थिक सुविधायें हैं वे उन्हें लोकोपयोगी कार्यों में समय रहते खर्च करदें ताकि उन्हें यश एवं आत्म-संतोष का लाभ मिल सके। अन्यथा वह संकीर्णता मधुमक्खी के छत्ते पर पड़ी डकैती की तरह उनके लिये बहुत ही कष्ट-कारक सिद्ध होगी।

📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1967 पृष्ठ 54

👉 The Water Bearer

A water bearer in India had two large pots, each hung on each end of a pole which he carried across his neck. One of the pots had a crack in it, and while the other pot was perfect and always delivered a full portion of water at the end of the long walk from the stream to the master’s house, the cracked pot arrived only half full.

For a full two years, this went on daily, with the bearer delivering only one and a half pots full of water in his master’s house. Of course, the perfect pot was proud of its accomplishments, perfect to the end for which it was made. But the poor cracked pot was ashamed of its own imperfection and miserable that it was able to accomplish only half of what it had been made to do.

After two years of what it perceived to be a bitter failure, it spoke to the water bearer one day by the stream. “I am ashamed of myself, and I want to apologize to you. “Why?” asked the bearer. “What are you ashamed of?” “I have been able, for these past two years, to deliver only half my load because this crack in my side causes water to leak out all the way back to your master’s house. Because of my flaws, you have to do all of this work, and you don’t get full value from your efforts,” the pot said.

The water bearer felt sorry for the old cracked pot, and in his compassion, he said, “As we return to the master’s house, I want you to notice the beautiful flowers along the path.” Indeed, as they went up the hill, the old cracked pot took notice of the sun warming the beautiful wild flowers on the side of the path, and this cheered it somewhat. But at the end of the trail, it still felt bad because it had leaked out half its load, and so again it apologized to the bearer for its failure.

The bearer said to the pot, “Did you notice that there were flowers only on your side of your path, but not on the other pot’s side? That’s because I have always known about your flaw, and I took advantage of it. I planted flower seeds on your side of the path, and every day while we walk back from the stream, you’ve watered them. For two years I have been able to pick these beautiful flowers to decorate my master’s table. Without you being just the way you are, he would not have this beauty to grace his house.”

Moral: Each of us has our own unique flaws. We’re all cracked pots. In this world, nothing goes to waste. You may think like the cracked pot that you are inefficient or useless in certain areas of your life, but somehow these flaws can turn out to be a blessing in disguise.

👉 वर्तमान दुर्दशा क्यों? (अंतिम भाग)

यदि लोगों के हृदय कपट, पाखंड, द्वेष, छल आदि दुर्भावों से भरे रहें तो उससे अदृश्य लोक एक प्रकार की आध्यात्मिक दुर्गन्ध से भर जाते हैं जैसे वायु के दूषित, दुर्गन्धित होने से हैजा आदि बीमारियाँ फैलती हैं वैसे ही पाप वृत्तियों के कारण सूक्ष्म लोकों का वातावरण गंदा हो जाने से युद्ध, महामारी, दारिद्र, अर्थ संकट, दैवी प्रकोप आदि उपद्रवों का आविर्भाव होता है। संसार की सुख शान्ति इस बात के ऊपर निर्भर है कि प्रेम, दया, सहानुभूति, उदारता और न्याय का व्यवहार अन्य लोगों के साथ किया जावे, जब इस प्रकार के विचार और व्यवहार की अधिकता होती है तो संसार में ईश्वरीय कृपा के सुन्दर आनन्ददायक परिणाम दिखाई पड़ते हैं सब लोग सुख शान्ति के साथ प्रफुल्लता मय जीवन बिताते हैं, किन्तु जब स्वार्थ लिप्सा में अन्धे होकर मनुष्य एक दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयत्न करते हैं तो उसके दुर्गन्धित धुँए से सबका दम घुटने लगता हैं विपत्ति, आपदा और कष्टों के पहाड़ चारों ओर से टूटने लगते हैं। दुख दारिद्र का नंगा नाच होने लगता है।

वर्तमान समय की चतुर्मुखी दुर्दशा का एक ही कारण “नैतिकता का पतन हो जाना है”। मन की वृत्तियों का स्वार्थ प्रधान हो जाना ही पाप है। यह पाप पिछली एक शताब्दी से तो बहुत अधिक मात्रा में बढ़ गया है। सच्चे धर्म का, हृदय की विशालता का, लोप हो रहा है उसके स्थान पर ‘मजहबी कर्म काण्डों’ को धर्म कहा जाने लगा है। नदी नालों में गोता लगाकर, तस्वीर खिलौनों के दर्शन करके, किसी पुस्तक के पन्ने रट देने, तिलक छाप लगा लेने, शिर मुड़ा लेने, दाढ़ी रखा लेने, खड़ाऊ पहनने, सात बार आचमन कर लेने, तेरह बार हाथ माँज लेने या ऐसे ही किसी अन्य कर्मकाण्ड को करने वाले लोग धर्मध्वजी समझे जाते हैं, चाहे उनके आचरण और विचार कैसे ही क्यों न हों।

वेशभूषा और साम्प्रदायिक कर्मकाण्डों के आधार पर धर्म की विवेचना होना इस बात का द्योतक है कि सच्चे धर्म की तो जानकारी भी लोगों को नहीं रही, धर्म के स्थान पर पाखंड विराजमान हो गया, ईश्वर के स्थान पर शैतान की पूजा होने लगी। आज जो मनुष्य जितना धर्मात्मा बनने का ढोंग रचता है परीक्षा करने पर उसका हृदय उतनी ही मात्रा में अनुदारता, निर्दयता, कपट, असत्य, घमंड और स्वार्थ रूपी पापों से भरा पूरा मिलता है। ढोंग के लिए करोड़ों रुपये पानी की तरह बहते दिखाई देते हैं पर सच्चे धर्म के लिए कोई कौड़ियाँ भी लगाने को तत्पर नहीं होता। यह सब परिस्थितियाँ बताती हैं कि मानव जाति से धर्म का लोप बहुत बड़ी मात्रा में हो गया है। पाखंड की आड़ में अधर्म का साम्राज्य छाया हुआ है ऐसी दशा में पाप की दुर्गन्ध से अदृश्य लोकों का गंदा होना और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप इन कष्ट क्लेशों का आना कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1943 पृष्ठ 5
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/January/v1.5

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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