जीवन वृक्ष की जड़ मन के अन्दर है। अक्सर बाहर की परिस्थितियाँ जीवन से मेल नहीं रखतीं, तब बड़ा दुख होता है। पिता की मृत्यु हो गई, हम बालकों की तरह फट-फट कर रोते हैं। धन चोरी चला गया, हम दुख से व्याकुल हो जाते हैं। शरीर अस्वस्थ हो गया, हमें चारों ओर मृत्यु ही नाचती नजर आती है। कार्य में सफलता नहीं मिली, हम चिन्ता की चिता में जल उठते हैं। दूसरे लोग कहना नहीं मानते, हम क्रोध से क्षुब्ध हो जाते हैं। इनमें से एक ही परिस्थिति जीवन को दुखमय बना देने के लिये पर्याप्त है, फिर यदि कई घटनायें एक साथ मिलें तो कहना ही क्या, जीवन में दुख शोकों की भट्टी जलने लगती है।
कई बार ऐसी कोई परिस्थिति नहीं आती, फिर भी हम उनकी कल्पना करके अपने को दुखी बनाते रहते हैं। मेरे एक ही पुत्र है, वह मर गया तो? घर में अकेला कमाने वाला हूँ, मेरी मृत्यु हो गई तो? पशुओं को कोई चुरा ले गया तो? कोई झूठा मुकदमा लग गया तो? इस प्रकार की आशंकाएं कल्पित होती हैं। जितना भय होता है, वास्तव उसका चौथाई भी नहीं आता। हम देखते हैं कि कई धनवान और बलवान अपने घर में डाका पड़ जाने, अपने कत्ल हो जाने की आशंका से रात भर चैन की नींद नहीं लेते। हर घड़ी भय उन्हें सताता रहता है, यद्यपि जैसा वे सोचते हैं, वैसी घटना जीवन भर नहीं होती और अपनी इन्द्रियों का तो कहना ही क्या ? वे यदि काबू में न हों तो हिरन की तरह चौकड़ी मारती हैं। तृप्ति उन्हें होती ही नहीं। अपने भोगों के लिये उनकी सदा ‘और लाओ और लाओ’ की रट लगी रहती है।
दैनिक जीवन की यह अवस्थाएं मनुष्य को एक बड़ी उलझन में डाल देती हैं। दुख, शोक, तृष्णा, चिन्ता, भय, क्रोध, लोभ, द्वेष की भावनाएं उसके मस्तिष्क पर अधिकार जमा कर उसे बड़ी दयनीय दशा में असहाय छोड़ देती हैं। वह शान्ति के लिये प्यासे मृग की तरह चारों ओर दौड़ता है परन्तु दृष्टि दोष के कारण सफेद भूमि ही जल दिखाई पड़ती है, दौड़ कर वहाँ तक पहुँचता है, परन्तु वहाँ धरा ही क्या था? दौड़ने के श्रम से पहले की अपेक्षा भी अधिक अशान्ति हो जाती है। धन कमाने के लिए अधर्म करते हैं, इन्द्रिय तृप्ति के लिये पाप करते हैं, सुख के लिये मायाचार करते हैं परन्तु हाथ कुछ नहीं आता।
जितना चाहते हैं जितनी तृष्णा होती है, उसका शताँश भी प्राप्त नहीं हुआ तो ओस चाटने पर तृप्ति कैसे हो सकती है। एक कामी पुरुष रात दिन सैकड़ों सुन्दरियों का चिन्तन करता रहता है, कितना ही प्रयत्न करने पर भी उसे उतनी स्त्रियाँ भोग के लिये नहीं मिल सकती। यदि नहीं मिलीं तो शान्ति कहाँ? संसार के निर्बाधित क्रम के अनुसार जो घटनाएं घटित होती रहती हैं, उनसे हम बच नहीं सकते। हम कितना हो प्रयत्न क्यों न करें, प्रियजनों की मृत्यु होगी ही, दान, भोग के बाद बचा हुआ धन नष्ट होगा ही। बेशक मनुष्य बहुत शक्तिशाली है, प्रयत्न करने पर परिस्थितियों को बहुत कुछ अपने अनुकूल कर सकता है, परन्तु यह न भूलना चाहिये कि मनुष्य-मनुष्य ही है। आज की परिस्थिति में वह ईश्वर नहीं है। घटनाएं संसार के क्रम के साथ है वह होती है और होंगी। उनके प्रवाह से भगवान् राम और योगिराज कृष्ण भी नहीं बच सके। परिस्थितियों से कोई नहीं बच सकता।
परिस्थितियों का मुकाबला मनुष्य कर सकता है। वह अपना पथ खुद निर्माण कर सकता है। दुख में से सुख खोज सकता है और अपने जीवन में नरक तुल्य दिखाई देने वाली वेदनाओं से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। तीन चौथाई दुख तो उसके अपने पैदा किये हुए होते है। अपने को ठीक जगह पर खड़ा कर दिया जाय तो अधिकाँश दुखों से अपने आप छुटकारा मिल जाता है। कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी होती हैं, जो संसार क्रम के साथ सम्बन्धित हैं, उनको सहन करने की शक्ति विवेक द्वारा प्राप्त हो सकती है। इस प्रकार अपने को विवेकपूर्वक ठीक स्थिति पर रख कर हम संसार के समस्त दुखों से छुटकारा पा सकते हैं। यही आध्यात्म पथ है। बाहरी परिस्थितियाँ आदमी को सुख या दुख नहीं दे सकतीं। यदि ऐसा होता तो समस्त धनी सुखी और सब गरीब दुखी हुए होते, परन्तु वास्तव में बात इससे उलटी है। निकट से परीक्षा करने पर अधिकाँश गरीब सुखी और अधिकाँश धनी दुखी मिलेंगे।
मनुष्य स्वभावतः आनन्द प्रिय है, उसे हर घड़ी आनन्द की तलाश रहती है और जो कुछ सोचता विचारता या करता धरता है वह इसीलिये कि सुख मिले। परन्तु वह अज्ञान में भटक जाता है, ऊंट को घड़े में तलाश करता है। धन और भोगों के पीछे दुनिया पागल है। दाद को खुजलाने में लोग बुरी तरह लगे हुए हैं कि शायद यही सुख है। परन्तु यह कैसा सुख जिसकी खुजली बढ़ती ही जाती है और अन्त में चमड़ी छील जाने पर दुखदायी घाव उत्पन्न हो जाते हैं। दाद के घावों में भी खुजली उठती है। उन घावों को खुजाने में जैसा सुख दुख मिलता है वैसा ही आम तौर पर सब भोगते हैं। खुजली का सुख लूटने के लिये प्रयत्न करते हैं, पर घाव दूना बढ़ कर असह्य वेदना उत्पन्न कर देता है।
इस अज्ञान से छुटकारा पाने के लिये आध्यात्म पथ पर अग्रसर होना ही एक मात्र उपाय है। अज्ञान के अन्धकार से छुटकारा पाने के लिये प्रकाश की ओर चलना चाहिये। माया से बच कर ईश्वर की ओर मुँह करना चाहिये। तभी वास्तविकता का ज्ञान होगा और तभी सब वस्तुओं का यथार्थ स्वरूप समझ में आवेगा। अँधेरे में पानी के धोखे दवात की स्याही पी जाने से कडुआ मुँह हो जाता है, इस कडुए पन को दूर करने का उपाय नहीं है, कि उस स्याही को मीठा मिला कर पीने का प्रयत्न करो, वरन् उचित यह है कि प्रकाश जलाओ और देखो कि जिन वस्तुओं से हम उलझे हुए थे, वे वास्तव में क्या हैं?
इसी प्रकाश द्वारा तुम्हें पता चलेगा कि पानी कहाँ रखा हुआ है। शीतल जल पीने से ही प्यास बुझेगी। यह अन्धकार में नहीं, प्रकाश में ही हो सकता है। आध्यात्म पथ प्रकाश का मार्ग है। वास्तविकता प्रकाश में ही मालूम हो सकती है। प्रकाश की जड़ें आत्मा में हैं। आत्मस्वरूप का दर्शन करके ही सारे दुख शोकों को जाना और त्यागा जा सकता है। आत्मा सुखों का मूल है। जीवन का वास्तविक आनन्द उसी से प्राप्त हो सकता है। श्रुति कहती है-तमसो मा ज्योतिर्गमय, अन्धकार से प्रकाश की ओर चलो। पाठको, आध्यात्म पथ की ओर चलो।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1941पृष्ठ 4
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1941/February/v1.4