असंभव को संभव बनाने वाला अन्तर्यात्रा का विज्ञान उनके लिए ही है जो अंतर्चेतना के वैज्ञानिक होने के लिए तत्पर हैं। योग साधक भी रहस्यवेत्ता वैज्ञानिक होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि सामान्य पदार्थ वैज्ञानिक बाह्य प्रकृति एवं पदार्थों को लेकर अनुसंधान करते हैं, जबकि योग साधक आंतरिक प्रकृति एवं चेतना को लेकर अनुसंधान करते हैं। जिस जीवन को साधारण लोग दुःखों का पिटारा या फिर सुख-भोग का साधन समझते हैं, उसमें से वह अलौकिक आध्यात्मिक विभूतियों के मणि-मुक्तकों का अनुसंधान कर लेता है।
ध्यान की परम प्रगाढ़ता संस्कारों की काई-कीचड़ को धो डालती है। हालाँकि यह सब होता मुश्किल है, क्योंकि एक-एक संस्कार को मिटने-हरने में भारी श्रम, समय एवं साधना की जरूरत पड़ती है। इन तक पहुँचने से पहले मन की उर्मियों को शान्त करना पड़ता है। मन की लहरें जब थमती हैं, मन की शक्तियाँ जब क्षीण होती हैं, तभी साधना गहरी व गहन होती है।
मन का अपना कोई विशेष अस्तित्व नहीं। यह तो बस विचारों-भावों की लहरों का प्रवाह है। इन लहरों की गति एवं तीव्रता कुछ ऐसी है कि मन का अस्तित्व भासता है। सारी उम्र ये लहरें न तो थमती है और न मिटती है। आम जन के लिए तो मन को नियंत्रित करना कठिन है, पर ध्यान इन कठिन को सम्भव बनाता है। ध्यान ज्यों-ज्यों गहरा होता है, मन की लहरें शान्त पड़ती जाती हैं और इस शान्ति के साथ प्रकट होती है-एक अद्भुत स्वच्छता, जिसे महर्षि शुद्ध स्फटिक की भाँति कहते हैं। मन-मन में भेद है। मन कोयला भी है और हीरा भी। विचारों के शोरगुल, विचारों के धूल भरे तूफान में इसका शुद्ध स्वरूप प्रकट नहीं होता है। ध्यान की गहनता इसे सम्भव बनाती है। जो ध्यान करते हैं, इसे अनुभव करते हैं। यह अनुभूति उन्हें शान्ति भी देती है और ऊर्जा भी। इसी से ज्ञान की नवीन किरणें भी फूटती और फैलती हैं।
यह मन की विशेष अवस्था है, जिसका अहसास केवल उन्हीं को हो सकता है, जिन्होंने इसे जिया हो-अनुभव किया हो। क्योंकि यह मन की वर्तमान अवस्था एवं व्यवस्थता से एकदम उलट है। जहाँ वर्तमान में अज्ञान, अशान्ति एवं असक्ति छायी रहती है। वही इसमें ज्ञान, शान्ति एवं ऊर्जा के नये-नये रूप भासते हैं। जीवन का हरपल-हरक्षण ज्ञानदायी, शान्तिदायी एवं ऊर्जादायी होता है। और यह सब होता है बिना किसी बाहरी साधन-सुविधाओं की बैशाखी का सहारा लिये।
अभी तो स्थिति है कि ज्ञान चाहिए तो पढ़ो, सीखो, शान्ति चाहिए तो शान्त वातावरण तलाशो और शक्ति चाहिए तो शरीर व मन को स्वस्थ रखने की कवायद करो। पर इस अद्भुत अवस्था वाला मन तो जब, जहाँ, जिस वस्तु, विषय अथवा विचार पर एकाग्र होता है, वही वह उससे तदाकार हो जाता है।
यही नहीं वह जिसे भी अपने ध्यान का विषय बना ले, उसी के सभी रहस्यों को अनुभव कर सकता है। तदाकार होने की यह अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि है। इसके अवलम्बन से किसी भी वस्तु, व्यक्ति, विषय, विचार के यथार्थ को जाना जा सकता है। ऐसे व्यक्ति के ध्यान की एकाग्रता में सब कुछ बड़े स्पष्ट रीति से साफ-साफ प्रतिबिम्बित होता है। ऐसा सम्प्रज्ञात समाधि पाने वाला योगी जब जो चाहे देख-जान सकता है।
योग साधक जिसका चित्त स्फटिक की भाँति स्वच्छ है, उसके संकल्प मात्र से, तनिक सा एकाग्र होने पर उसे सब कुछ अनुभव होने लगता है। परन्तु इसमें अभी तर्क की सीमाएँ बनी रहती हैं। विकल्प की अवस्था बनी रहती है। वह इस अवस्था को पाने के बाद भी भेदों के पार नहीं जा पाता। सीमाबद्ध होता है, उसका ज्ञान। सीमाओं से मुक्त होने के लिए तो समाधि की निर्वितर्क अवस्था चाहिए।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य