मंगलवार, 2 मार्च 2021

👉 स्फटिक मणि सा बनाइये मन

असंभव को संभव बनाने वाला अन्तर्यात्रा का विज्ञान उनके लिए ही है जो अंतर्चेतना के वैज्ञानिक होने के लिए तत्पर हैं। योग साधक भी रहस्यवेत्ता वैज्ञानिक होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि सामान्य पदार्थ वैज्ञानिक बाह्य प्रकृति एवं पदार्थों को लेकर अनुसंधान करते हैं, जबकि योग साधक आंतरिक प्रकृति एवं चेतना को लेकर अनुसंधान करते हैं। जिस जीवन को साधारण लोग दुःखों का पिटारा या फिर सुख-भोग का साधन समझते हैं, उसमें से वह अलौकिक आध्यात्मिक विभूतियों के मणि-मुक्तकों का अनुसंधान कर लेता है। 
 
ध्यान की परम प्रगाढ़ता संस्कारों की काई-कीचड़ को धो डालती है। हालाँकि यह सब होता मुश्किल है, क्योंकि एक-एक संस्कार को मिटने-हरने में भारी श्रम, समय एवं साधना की जरूरत पड़ती है। इन तक पहुँचने से पहले मन की उर्मियों को शान्त करना पड़ता है। मन की लहरें जब थमती हैं, मन की शक्तियाँ जब क्षीण होती हैं, तभी साधना गहरी व गहन होती है। 
मन का अपना कोई विशेष अस्तित्व नहीं। यह तो बस विचारों-भावों की लहरों का प्रवाह है। इन लहरों की गति एवं तीव्रता कुछ ऐसी है कि मन का अस्तित्व भासता है। सारी उम्र ये लहरें न तो थमती है और न मिटती है।  आम जन के लिए तो मन को नियंत्रित करना कठिन है, पर ध्यान इन कठिन को सम्भव बनाता है। ध्यान ज्यों-ज्यों गहरा होता है, मन की लहरें शान्त पड़ती जाती हैं और इस शान्ति के साथ प्रकट होती है-एक अद्भुत स्वच्छता, जिसे महर्षि शुद्ध स्फटिक की भाँति कहते हैं। मन-मन में भेद है। मन कोयला भी है और हीरा भी। विचारों के शोरगुल, विचारों के धूल भरे तूफान में इसका शुद्ध स्वरूप प्रकट नहीं होता है। ध्यान की गहनता इसे सम्भव बनाती है। जो ध्यान करते हैं, इसे अनुभव करते हैं। यह अनुभूति उन्हें शान्ति भी देती है और ऊर्जा भी। इसी से ज्ञान की नवीन किरणें भी फूटती और फैलती हैं। 
यह मन की विशेष अवस्था है, जिसका अहसास केवल उन्हीं को हो सकता है, जिन्होंने इसे जिया हो-अनुभव किया हो। क्योंकि यह मन की वर्तमान अवस्था एवं व्यवस्थता से एकदम उलट है। जहाँ वर्तमान में अज्ञान, अशान्ति एवं असक्ति छायी रहती है। वही इसमें ज्ञान, शान्ति एवं ऊर्जा के नये-नये रूप भासते हैं। जीवन का हरपल-हरक्षण ज्ञानदायी, शान्तिदायी एवं ऊर्जादायी होता है। और यह सब होता है बिना किसी बाहरी साधन-सुविधाओं की बैशाखी का सहारा लिये। 
अभी तो स्थिति है कि ज्ञान चाहिए तो पढ़ो, सीखो, शान्ति चाहिए तो शान्त वातावरण तलाशो और शक्ति चाहिए तो शरीर व मन को स्वस्थ रखने की कवायद करो। पर इस अद्भुत अवस्था वाला मन तो जब, जहाँ, जिस वस्तु, विषय अथवा विचार पर एकाग्र होता है, वही वह उससे तदाकार हो जाता है।
यही नहीं वह जिसे भी अपने ध्यान का विषय बना ले, उसी के सभी रहस्यों को अनुभव कर सकता है। तदाकार होने की यह अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि है। इसके अवलम्बन से किसी भी वस्तु, व्यक्ति, विषय, विचार के यथार्थ को जाना जा सकता है। ऐसे व्यक्ति के ध्यान की एकाग्रता में सब कुछ बड़े स्पष्ट रीति से साफ-साफ प्रतिबिम्बित होता है। ऐसा सम्प्रज्ञात समाधि पाने वाला योगी जब जो चाहे देख-जान सकता है। 
योग साधक जिसका चित्त स्फटिक की भाँति स्वच्छ है, उसके संकल्प मात्र से, तनिक सा एकाग्र होने पर उसे सब कुछ अनुभव होने लगता है। परन्तु इसमें अभी तर्क की सीमाएँ बनी रहती हैं। विकल्प की अवस्था बनी रहती है। वह इस अवस्था को पाने के बाद भी भेदों के पार नहीं जा पाता। सीमाबद्ध होता है, उसका ज्ञान। सीमाओं से मुक्त होने के लिए तो समाधि की निर्वितर्क अवस्था चाहिए। 

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अपनी श्रद्धा को उर्वर एवं सार्थक बनने दें (भाग १)

जीवन की गति एक ही दिशा में चलते- चलते -- विचार और प्रक्रिया का एक ही प्रवाह बहते रहने- आत्मा और परमात्मा की एक ही सम्मिलित प्रेरणा अनुभव करते- करते कर्तव्य और धर्म का एक ही निर्देश- संकेत देखते- देखते अब हमारा व्यक्तित्व निर्दिष्ट लक्ष्य में एक प्रकार से तन्मय एवं सघन हो गया है। अलग से अपनी कोई हस्ती कोई सत्ता सही नहीं। जो हमें प्यार करता हो- उसे हमारे मिशन से भी प्यार करना चाहिए। जो हमारे मिशन की उपेक्षा, तिरस्कार करता है लगता है वह हमें ही उपेक्षित तिरस्कृत कर रहा है। व्यक्तिगत रूप से कोई हमारी कितनी ही उपेक्षा करे पर यदि हमारे मिशन के प्रति श्रद्धावान् उनके लिए कुछ करता, सोचता है तो लगता है मानो हमारे ऊपर अमृत बिखेर रहा है और चन्दन लेप रहा है। किन्तु यदि केवल हमारे व्यक्तित्व के प्रति ही श्रद्धा है- शरीर से ही मोह है- उसी की प्रशिस्त पूजा को जाती है। यदि मिशन की बात उठाकर ताक पर रख दी जाती है तो लगता है हमारे प्राण का तिरस्कार करते हुए केवल शरीर पर पंखा रुलाया जा रहा हो। 

अपनी- अपनी मनोदशा हो तो है। लोगों की दृष्टि में व्यक्ति पूजा पर्याप्त है- मिशन के झंझट में पड़ने की जरूरत नहीं। अपनी दृष्टि में शरीर- पूजा बुत परस्ती मात्र है, देव- पूजा तो श्रद्धास्पद प्राण प्रवाह के साथ बहने से है लोग अपनी जिस अभिव्यंजना को पर्याप्त मानते हैं हमारे लिए वह निरर्थक है क्योंकि शरीर के साथ किये हुए सद्व्यवहार आत्मा के गहरे परतों तक पहुँचते- पहुँचते बीच में ही क्षीण विलीन हो जाते हैं। अपनी मनोदशा मिशन को आगे बढ़ते देख कर प्रसन्न और सन्तुष्ट होने की है, अब उसी में अपना सारा आनन्द, उल्लास केन्द्रीभूत हो गया है। सो जो कोई उस दिशा में आगे बढ़ता दीखता है, लगता है अपने कर्तव्य के लिए ही नहीं हमारे लिए भी बहुत कुछ करने में संलग्न है। ऐसे लोगों के प्रति हमारी श्रद्धा, कृतज्ञता, ममता और सहानुभूति का अन्तः प्रवाह अनायास ही प्रवाहित होने लगता है। बाहर से संकोचवश कुछ न कह सकें पर भीतर ही भीतर ऐसा कुछ उमड़ता उमड़ता रहता है जो कहता है कि इस पर कितना प्यार बखेर दें, कितनी आत्मीयता उड़ेल दें, जो कुछ अपने पास है सो सब कुछ उसके ऊपर निछावर करने को जी करता है। 

वस्तुतः अब शरीर की सेवा समीपता से नहीं भावना और आदर्शों की प्रखरता ही से अपने को शान्ति और सन्तुष्टि मिलती है किसी से हमारी कितनों निकटता है उसकी परख अब इसी कसौटी पर कसने हैं कि उसने हमारे कन्धे से कन्धा मिलाकर कितना भार बँटाया और हमारे कदमों से कदम मिलाकर कितनी सह यात्रा की। निन्दा, स्तुति अपने लिए समान हैं। जब व्यक्तित्व रहा ही नहीं- मिशन में घुल गया तो उस मृतप्राय सत्ता से शरीर कलेवर से अपना मोह हो क्या है ?? फिर उसकी पूजा- प्रशंसा और अभ्यर्थना का अपने ऊपर क्या प्रभाव पड़े। कामनाओं, आकांक्षाओं और अभावों की सांसारिक सीमा समाप्त हो गई तो उसकी उपलब्धि में रस भी क्या ?? अपनी सारी सरसता अब अपने लक्ष्य मिशन में है, उसी क्षेत्र की उत्साहवर्धक हलचल आशा, उल्लास और सन्तोष की भूमिका प्रस्तुत करती है। सो अपने विशाल परिवार में कहीं सच्ची आत्मीयता का कितना अंश विद्यमान है यह जानने की इच्छा होती है तो इसी कसौटी पर कसकर वस्तुस्थिति जान लेते हैं कि हमारा दर्द किस- किस की नसों में और कितनी मात्रा में भर चला और हमारी आग की कितनी चिनगारियाँ कितने अंशों में किसके कलेजे में सुलगने लगीं। अपनी- अपनी मनोदशा ही तो है। लोगों के सोचने का ढंग जो भी हो अपनी- अपनी तो यही प्रकृति बन गई। मजबूरी अपनी भी है जो अपने को हमारे सम्मुख अपने लौकिक व्यवहार से प्रियजन सिद्ध करना चाहते हैं वे हमें निरर्थक लगते हैं किन्तु जो कभी मिलते भी नहीं, पत्र भी नहीं लिखते, प्रशंसा- पूजा का हलका- सा भी प्रयत्न नहीं करते वे प्राणप्रिय और अति समीप लगते हैं यदि मिशन के लिए कुछ काम कर रहे हैं। 

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1969 

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