शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

👉 जहाँ प्रेम है, वहाँ लक्ष्मी का वास है।

एक व्यापारी से लक्ष्मी जी रूठ गई। जाते वक्त बोली मैं जा रही हूँ और मेरी जगह टोटा (नुकसान) आ रहा है। तैयार हो जाओ। लेकिन मै तुम्हे अंतिम भेट जरूर देना चाहती हूँ। मांगो जो भी इच्छा हो।

बनिया बहुत समझदार था। उसने 🙏 विनती  की टोटा आए तो आने दो। लेकिन उससे कहना की मेरे परिवार में आपसी  प्रेम बना रहे। बस मेरी यही इच्छा है। लक्ष्मी जी ने तथास्तु कहा।

कुछ दिन के बाद :-

बनिए की सबसे छोटी बहू खिचड़ी बना रही थी। उसने नमक आदि डाला और अन्य  काम करने लगी। तब दूसरे लड़के की बहू आई और उसने भी बिना चखे नमक डाला और चली गई। इसी प्रकार तीसरी, चौथी बहुएं आई और नमक डालकर चली गई। उनकी सास ने भी ऐसा किया।

शाम को सबसे पहले बनिया  आया। पहला निवाला मुह में लिया। देखा बहुत ज्यादा नमक है। लेकिन वह समझ गया टोटा (हानि) आ चुका है। चुपचाप खिचड़ी खाई और चला गया। इसके बाद बङे बेटे का नम्बर आया। पहला निवाला मुह में लिया। पूछा पिता जी ने खाना खा लिया। क्या कहा उन्होंने?

सभी ने उत्तर दिया-" हाँ खा लिया, कुछ नही बोले।"
अब लड़के ने सोचा जब पिता जी ही कुछ नही बोले तो मै भी चुपचाप खा लेता हूँ।
इस प्रकार घर के अन्य सदस्य एक-एक आए। पहले वालो के बारे में पूछते और चुपचाप खाना खा कर चले गए।

रात को टोटा (हानि) हाथ जोड़कर बनिए से कहने लगा-,"मै जा रहा हूँ।"
बनिए ने पूछा- क्यों?

तब टोटा (हानि) कहता है, "आप लोग एक किलो तो नमक खा गए। लेकिन बिलकुल भी झगड़ा नही हुआ। मेरा यहाँ कोई काम नहीं।"

निचौङ

⭐ झगड़ा कमजोरी,  टोटा, नुकसान की पहचान है।

👏 जहाँ प्रेम है, वहाँ लक्ष्मी का वास है।

🔃 सदा प्या -प्रेम  बांटते रहे। छोटे-बङे की कदर करे।

जो बङे हैं, वो बङे ही रहेंगे। चाहे आपकी कमाई उसकी कमाई से बङी हो।

👉 आज का सद्चिंतन 12 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 12 April 2019


👉 शक्ति व स्वास्थ्य प्राप्त करो

इस प्रकार के कितने ही मनुष्य हैं जो दूसरों की भलाई करते हैं पर स्वयं अपना भला नहीं चाहते। वे न तो अपने शरीर और स्वास्थ्य की ही परवाह करते हैं और न अपनी शक्तियों का सदुपयोग। वे दूसरे के मित्र बनना चाहते हैं पर अपने शत्रु बने हुए हैं। दूसरों के साथ भलाई करना अच्छा है पर अपने साथ भलाई करना उससे भी अच्छा है। हर एक व्यक्ति का धर्म है कि मैं ईश्वर की सन्तान हूँ-उसी का प्रतीक हूँ।

ऐसे बहुत से मनुष्य हैं जो चाहें तो बहुत बड़े काम कर सकते हैं परन्तु कर नहीं पाते। उनका जीवन निराशा के झूले में झूलता हुआ उन छोटे कामों में ही व्यतीत हो जाता है। कारण यह है कि उनमें इतनी शक्ति नहीं रही कि वे अपनी कठिनाइयों को दूर कर सकें और विघ्न -बाधाओं को हटा सकें। उन्होंने अपने शरीर की रक्षा नहीं की है और इसी कारण उनका हृदय दुर्बल हो गया है तथा इन्द्रियाँ शिथिल पड़ गई हैं ज़रा ज़रा से कामों के करने पर वे थक जाते हैं।

हमारी शक्ति का बहुत बड़ा भाग क्रोधादि दुर्गुणों से नष्ट हो जाता है। शरीर को भस्म कर देने के लिये क्रोध से बढ़कर कोई चीज़ नहीं। क्रोधी मनुष्य रात-दिन अपने को जलाता रहता है । चिन्ता की उपमा चिता से होती है। ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, घृणा सब शरीर को घुलाने वाली हैं। इनसे मन और शरीर दोनों की अवनति होती है।

तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य यह होना चाहिए कि अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को ऊंची से ऊंची बनाओ।

📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1941 पृष्ठ 10

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 6)

HOW DOES CHITRAGUPTA MAINTAIN THE RECORD?

Let us take an example. In a remote, undeveloped tribal area, one may barter a kilogram of food grains for sugar, but in a developed country one has to pay in hard currency. In the material world, people do earn fame and name by making large contributions to charity, helping in popular welfare activities, joining religious or charitable institutions, delivering or listening to sermons, and participating in pilgrimages; but the “Domain of Chitragupta” does not accept this currency. The ledgers of this domain record only debits and credits of motives and emotional involvements in the performance of deeds and convert these into virtues and sins accordingly.

Upon being exhorted by his Divine Teacher Krishna, Arjun got millions killed in the war of Mahabharata. This great confrontation, during which the entire battlefield became littered with corpses, took place because Arjun agreed to take part in the war. In this way, Arjun could have been considered as a great sinner, but Chitragupta gave credit to his motive for waging the Mahabharata war. Arjun’s intentions were pious. He had fought only to re-establish the ‘Moral Order’ (Dharma Sthapana). Chitragupta’s ledger did not take into account the slain bodies of the dead soldiers. Physical objects have no relevance in the invisible realm.

Chitragupta simply ignored the number of toys of flesh and bones destroyed during the war. Does a king bother about the number of toys broken or the number of grains spilled? In this world billionaires are held in high regard but in the realm of Chitragupta they are paupers and nonentities. On the other hand a poor man of this world, if he is kind hearted, could be counted in the realm of Chitragupta amongst the king of kings. Whatever a man does, only his motives-good or bad are recorded in the corresponding account of Chitragupta. A public executioner, who, in course of duty, hangs a person condemned to death without any malice, could be considered a virtuous person by Chitragupta, Whereas a priest, who meticulously follows the rituals, but is secretly engaged in corrupt practices will be labelled as a sinner.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 13

👉 आत्मचिंतन के क्षण 12 April 2019

★ स्पष्ट है कि मनेाबल छोटी-छोटी सफलताएँ प्राप्त करते-करते विकसित होता है। वह आसमान से किसी पर नहीं टपकता। छोटे कदम, छोटे प्रयोग, छोटी सफलता का क्रम चलता रहे तो मनुष्य क्रमशः अधिक आत्म विश्वासी बनता जाता है और इस आधार पर विकसित हुई प्रतिभा के सहारे अपने शरीर तंत्र के मनःसंस्थान के हर कलपुर्जे को क्रिया-कुशल बनाकर सचमुच इस स्थिति में जा पहुँचता है कि उसे अतिरिक्त शक्ति संपन्न, असाधारण महत्त्व एवं सामर्थ्य का व्यक्ति समझा जा सके।

◆ अगर हम चाहते हैं कि बच्चा हमारा आज्ञाकारी बने, जो बात हम कहें वह उसकी उपयोगिता को समझे-स्वीकार करे तथा उसी के अनुसार आचरण करे तो हमें पहले उसका श्रद्धास्पद बनना होगा। बालकों के लिए श्रद्धेय बनने का एकमात्र उपाय है-मधुर स्नेह की अभिव्यक्ति। जोर-जबर्दस्ती से बच्चे आपके आदेश को मान लेंगे, उस समय वैसा आचरण भी कर लेंगे, पर जोर-जबर्दस्ती का जो एहसास उन्हें रहेगा वह उनके मन में आपके प्रति विद्रोह के बीच बोयेगा। यह विद्रोह आगे चलकर बड़ा होने पर फूटेगा।

◇ वाणी से असत्य वचन, चापलूसी, परनिन्दा, कटुभाषण, व्यर्थ वार्तालाप का त्याग करना चाहिए, क्योंकि ये अशुभ और अनैतिक हैं। इनसे जीवन में कलह, पश्चाताप, लड़ाई-झगड़े, अशान्ति पैदा हो सकते हैं। परस्पर संबंध खराब हो जाते हैं। उन सभी दृश्यों तथा प्रसंगों से दूर रहें जिनसे दूषित मनोभावों, वासनाओं को पोषण मिलता हो। मनुष्य जो कुछ भी देखता है उसकी प्रतिक्रिया मन पर होती है। उस दृश्य से संबंधित जो वासना मन में होती है, वह प्रबल हो उठती है और मनुष्य को वैसा ही करने की प्रेरणा देती है।

■ निराश कभी मत होइए। उन्नति के लिए, अच्छी आदतों के लिए, अपने शुभ संकल्पों की सिद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहिए। बार-बार प्रयत्न करने से ही आपको उत्साह मिलेगा, सफलता मिलेगी। आपके कठिन कार्य सरल होते जायेंगे। प्रत्येक प्रत्यन, आपकी प्रत्येक छोटी-सी सफलता आपका आत्मबल बढ़ाने वाली है। भविष्य में आप कठिनतर कार्य भी हँसते-हँसते कर सकेंगे। अपने शुभ संकल्पों की सिद्धि के लिए सावधान रहकर प्रयत्न करना भी  है। अति आवश्यक है। इस आत्मबल की आवश्यकता हम सबको  है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1 द्वितीयोSध्याय) श्लोक 14 से 15

उच्चादर्शाय संसृष्टौ मानवो यदि जीवति।
तिरश्चां प्राणिनां हेयस्तरेण मनसा तथा ॥१४॥
अनात्माचरणं कुर्यान्सृष्टिसन्तुलनं तथा।
विकुर्याद् महदाश्चर्यं चिन्ताया विषयस्तथा॥१५॥

टीका- उच्च प्रयोजनों के लिए सृजा गया मनुष्य तिर्यक् योनियों में रहने वाले प्राणियों सभी अधिक हेय स्तर की मनःस्थिति रखे, अनात्म आचरण करे और सृष्टि सन्तुलन बिगाड़े तो सचमुच ही यह बड़े आश्चर्य और चिन्ता की बात है ॥१४-१५॥

व्याख्या- सोचा यह था कि मनुष्य अपने को श्रेष्ठता से जोड़े रहेगा, अन्य जीवधारियों के लिए एक आदर्श उदाहरण बनेगा पर स्थिति कुछ विचित्र एवं चिन्ताजनक भी है।

विवेक चूड़ामणि में यह स्पष्ट करते हुए कि मनुष्य भ्रष्ट आचरण की ओर कब प्रवृत्त होता है, संकेत करते हुए कहा गया है-

शब्दादिभि: पञ्चभिरेव पञ्च, पञ्चत्वमापु: स्वगुणेनबद्धा:।
कुरंगमातंगपतंगमीनभृंग नर: पञ्चभिरञ्चित: किम्॥

अर्थात्- 'हिरण, हाथी, पतिंगा, मछली और भौंरा-ये अपने-अपने स्वभाव के कारण शब्दादि पाँच विषयों में से केवल एक-एक से आसक्त होने के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं, तो फिर इन पाँचों विषयों में जकड़ा हुआ, असंयमी पुरुष कैसे बच सकता है। उसकी तो दुर्गति सुनिश्चित ही है।

अन्य जीवधारियों के समान यदि मनुष्य भी शिश्नोदर परायण रहकर अपना आचरण व चिन्तन बिगाड़ ले तो फिर यह मानना चाहिए कि वह धरती पर इस योनि में अवतरित होकर भी दुर्भाग्यशाली ही बना रहा। आज मानव की उपभोग की ललक व सुख साधना अर्जित करने की एकांगी घुड़दौड़ ने यह भुला दिया कि इस तथाकथित प्रगति और सभ्यता का सृष्टि संतुलन पर क्या असर पडे़गा। उच्छृंखल भौतिकवाद अनियन्त्रित दानव की तरह अपने पालने वाले का ही वह भक्षण कर रहा है। पर्यावरण, असंतुलन और अदृश्य जगत में संव्याप्त हाहाकार मानव की स्वयं की संरचना है जो आस्था संकट के रूप में प्रकट हुआ है और जिसकी प्रतिक्रिया विभिन्न विभीषिकाओं के रूप में मानव जाति को भुगतनी पड़ रही है। इतिहास का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि ऐसे उदाहरण पहले भी हुए हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 39

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...