मंगलवार, 17 जनवरी 2017
👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 11) 18 Jan
🌹 त्रिविध प्रयोगों का संगम-समागम
🔴 जीवन एक सुव्यवस्थित तथ्य है। वह न तो अस्त-व्यस्त है और न कभी कुछ करने, कभी न करने जैसा मनमौजीपन। पशु-पक्षी तक एक नियमित प्रकृति व्यवस्था के अनुरूप जीवनयापन करते हैं। फिर मनुष्य तो सृष्टि का मुकुटमणि है। उसके ऊपर मात्र शरीर निर्वाह का ही नहीं, कर्तव्यों और उत्तरदायित्व के परिपालन का अनुशासन भी है। उसे मानवी उदारता के अनुरूप मर्यादायें पालनी और वर्जनायें छोड़नी पड़ती हैं। इतना ही नहीं, वह पुण्य परमार्थ भी विशेष पुरुषार्थ के रूप में अपनाना पड़ता है, जिसके लिये स्रष्टा ने अपना अजस्र अनुदान देते हुए आशा एवं अपेक्षा रखी है। इतना सब बन पड़ने पर ही उसे लक्ष्य की प्राप्ति होती है जिसे ईश्वर की प्राप्ति या महानता की उपलब्धि कहा जाता है।
🔵 जीवन साधना नकद धर्म है। इसके प्रतिफल प्राप्त करने के लिये लम्बे समय की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। ‘‘इस हाथ दें, उस हाथ लें’’ का नकद सौदा इस मार्ग पर चलते हुए हर कदम पर फलित होता रहता है। एक कदम आगे बढ़ने पर मंजिल की दूरी उतनी फुट कम होती है, साथ ही जो पिछड़ापन था, वह पीछे छूटता हैं। इसी प्रकार जीवन साधना यदि तथ्यपूर्ण, तर्कसंगत और विवेकपूर्ण स्तर पर की गई है तो इसका प्रतिफल दो रूप में हाथों-हाथ मिलता चलता है। एक संचित पशु प्रवृत्तियों का अभ्यास छूटता है, वातावरण की गन्दगी से ऊपर चढ़े कषाय-कल्मष घटते हैं।
🔴 दूसरा लाभ यह होता है कि नरपशु से नरदेव बनने के लिये जो प्रगति करनी चाहिये उसकी व्यवस्था सही रूप से बन पड़ती है। स्वयं को अनुभव होता है कि व्यक्तित्त्व निरन्तर उच्चस्तरीय बन रहा है। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की दोनों ही उपलब्धियाँ निरन्तर हस्तगत हो रही हैं। यही है वह उपलब्धि, जिसे जीवन की सार्थकता, सफलता एवं मनुष्य में देवत्व का प्रत्यक्ष अवतरण कहते हैं। तत्त्वज्ञान की भाषा में इसी को ईश्वरप्राप्ति, भव बन्धनों से मुक्ति, परमसिद्धि अथवा स्वर्ग सोपान में प्रविष्टि कहा जाता है। इन सहज उपलब्धियों से वंचित इसलिये रहना पड़ता है कि न तो जीवन साधना का दर्शन ठीक तरह समझा जाता है और न जानकारी के अभाव में सही प्रयोग का अभ्यास बन पड़ता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 जीवन एक सुव्यवस्थित तथ्य है। वह न तो अस्त-व्यस्त है और न कभी कुछ करने, कभी न करने जैसा मनमौजीपन। पशु-पक्षी तक एक नियमित प्रकृति व्यवस्था के अनुरूप जीवनयापन करते हैं। फिर मनुष्य तो सृष्टि का मुकुटमणि है। उसके ऊपर मात्र शरीर निर्वाह का ही नहीं, कर्तव्यों और उत्तरदायित्व के परिपालन का अनुशासन भी है। उसे मानवी उदारता के अनुरूप मर्यादायें पालनी और वर्जनायें छोड़नी पड़ती हैं। इतना ही नहीं, वह पुण्य परमार्थ भी विशेष पुरुषार्थ के रूप में अपनाना पड़ता है, जिसके लिये स्रष्टा ने अपना अजस्र अनुदान देते हुए आशा एवं अपेक्षा रखी है। इतना सब बन पड़ने पर ही उसे लक्ष्य की प्राप्ति होती है जिसे ईश्वर की प्राप्ति या महानता की उपलब्धि कहा जाता है।
🔵 जीवन साधना नकद धर्म है। इसके प्रतिफल प्राप्त करने के लिये लम्बे समय की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। ‘‘इस हाथ दें, उस हाथ लें’’ का नकद सौदा इस मार्ग पर चलते हुए हर कदम पर फलित होता रहता है। एक कदम आगे बढ़ने पर मंजिल की दूरी उतनी फुट कम होती है, साथ ही जो पिछड़ापन था, वह पीछे छूटता हैं। इसी प्रकार जीवन साधना यदि तथ्यपूर्ण, तर्कसंगत और विवेकपूर्ण स्तर पर की गई है तो इसका प्रतिफल दो रूप में हाथों-हाथ मिलता चलता है। एक संचित पशु प्रवृत्तियों का अभ्यास छूटता है, वातावरण की गन्दगी से ऊपर चढ़े कषाय-कल्मष घटते हैं।
🔴 दूसरा लाभ यह होता है कि नरपशु से नरदेव बनने के लिये जो प्रगति करनी चाहिये उसकी व्यवस्था सही रूप से बन पड़ती है। स्वयं को अनुभव होता है कि व्यक्तित्त्व निरन्तर उच्चस्तरीय बन रहा है। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की दोनों ही उपलब्धियाँ निरन्तर हस्तगत हो रही हैं। यही है वह उपलब्धि, जिसे जीवन की सार्थकता, सफलता एवं मनुष्य में देवत्व का प्रत्यक्ष अवतरण कहते हैं। तत्त्वज्ञान की भाषा में इसी को ईश्वरप्राप्ति, भव बन्धनों से मुक्ति, परमसिद्धि अथवा स्वर्ग सोपान में प्रविष्टि कहा जाता है। इन सहज उपलब्धियों से वंचित इसलिये रहना पड़ता है कि न तो जीवन साधना का दर्शन ठीक तरह समझा जाता है और न जानकारी के अभाव में सही प्रयोग का अभ्यास बन पड़ता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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