रस्सी की तरह घिस दें—चुनौतियों के पत्थर
इस तरह केन्द्र में स्थित होने के लिए क्या करें? तो इसके जवाब में परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि जप, ध्यान, प्राणायाम आदि योगाभ्यास की सारी प्रक्रियाएँ इसीलिए हैं। योग की सभी प्रक्रियाओं का एक ही मतलब है कि आपको अपना परिचय करा दे। आपको अपने में स्थित कर दे। हालाँकि कभी-कभी यह देखा जाता है कि काफी सालों से जप करने वाले, ध्यान का अभ्यास करने वाले लोगों में भी कोई गुणात्मक मौलिक परिवर्तन नहीं आ पाता। इसकी वजह प्रक्रियाओं का दोष नहीं, बल्कि उसके अभ्यास में खामियाँ हैं। ध्यान रहे योग-प्रक्रियाएँ मात्र क्रियात्मक नहीं हैं, उनमें गहरी विचारणा एवं उच्च भावनाएँ भी समावेशित हैं।
भगवद्गीता में इसके बारे में कहा गया है-
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥—गीता-१७/२८
अर्थात्- हे पार्थ! अश्रद्धा से किया गया हवन, दिया गया दान, तपा गया तप और भी जो कुछ आध्यात्मिक क्रिया की गई है, वह सब कुछ असद् है, उसका न कोई परिणाम आध्यात्मिक जीवन में है और नहीं इस लौकिक जीवन में। इसलिए योगाभ्यास की कोइ भी प्रक्रिया हो, उसमें गहरी श्रद्धा और पवित्र विचारणा का समोवश निहायत जरूरी है।
इस सम्बन्ध में वृन्दावन के सन्त स्वामी अखण्डानन्द महाराज का संस्मरण बड़ा ही प्रेरक है। ध्यान रहे कि ये सन्त परम पूज्य गुरुदेव पर गहरी श्रद्धा करते थे। इनकी एक पुस्तक है पावन संस्मरण। इसमें उन्होंने लिखा है कि एक दिन वे ब्रह्ममुहूर्त में बैठकर माला जप रहे थे। उनकी कोशिश यही थी कि ज्यादा से ज्यादा मालाएँ जप ली जाएँ। इस बीच परमहंस जगन्नाथपुरी जी उधर से गुजरे। उन्हें जन सामान्य लोग नेपाली बाबा के नाम से जानते थे। इनका जप देखकर वह बोल पड़े- भला कहीं ऐसे जप किया जाता है? उनके वचनों से इनकी आँख खुली। नमस्कार करने पर परमहंस जी ने इन्हें गले लगाया और बोले- मंत्र साक्षात् भगवान् है, अपने ईष्ट की शब्दमूर्ति है। मंत्र चाहे कोई भी हो, उसे जपने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। सत्कार के साथ, धीर गम्भीर भाव के साथ मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए। प्रत्येक शब्द का गहराई से उच्चारण करें। इस तरह एक अक्षर से दूसरे अक्षर तक पहुँचने में कुछ समय लगे। इससे मन में संकल्प नहीं होगा। जब मन खाली होगा, तो उसमें अपने ईष्ट का प्रकाश होगा।
गायत्री महामंत्र को योग साधक अपनी योग साधना का सर्वस्व मानकर अभ्यास करें। मन ही मन प्रत्येक अक्षर का स्पष्ट उच्चारण, साथ ही यह प्रगाढ़ भाव कि इन चौबीस अक्षरों में स्वयं आदि शक्ति जगन्माता अपनी चौबीस शक्तियों के साथ समायी हैं। यह मंत्र स्वयं ही परमा शक्ति है, साथ ही साधक को सब कुछ देने में समर्थ है। जप करते समय ही नहीं, जप करने के बाद रह-रहकर साधक के मन में माता का स्मरण होते रहना चाहिए। ध्यान रहे जप के साथ मौन-एकान्त एवं अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य साधक के अभ्यास को दृढ़ करते हैं।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
इस तरह केन्द्र में स्थित होने के लिए क्या करें? तो इसके जवाब में परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि जप, ध्यान, प्राणायाम आदि योगाभ्यास की सारी प्रक्रियाएँ इसीलिए हैं। योग की सभी प्रक्रियाओं का एक ही मतलब है कि आपको अपना परिचय करा दे। आपको अपने में स्थित कर दे। हालाँकि कभी-कभी यह देखा जाता है कि काफी सालों से जप करने वाले, ध्यान का अभ्यास करने वाले लोगों में भी कोई गुणात्मक मौलिक परिवर्तन नहीं आ पाता। इसकी वजह प्रक्रियाओं का दोष नहीं, बल्कि उसके अभ्यास में खामियाँ हैं। ध्यान रहे योग-प्रक्रियाएँ मात्र क्रियात्मक नहीं हैं, उनमें गहरी विचारणा एवं उच्च भावनाएँ भी समावेशित हैं।
भगवद्गीता में इसके बारे में कहा गया है-
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥—गीता-१७/२८
अर्थात्- हे पार्थ! अश्रद्धा से किया गया हवन, दिया गया दान, तपा गया तप और भी जो कुछ आध्यात्मिक क्रिया की गई है, वह सब कुछ असद् है, उसका न कोई परिणाम आध्यात्मिक जीवन में है और नहीं इस लौकिक जीवन में। इसलिए योगाभ्यास की कोइ भी प्रक्रिया हो, उसमें गहरी श्रद्धा और पवित्र विचारणा का समोवश निहायत जरूरी है।
इस सम्बन्ध में वृन्दावन के सन्त स्वामी अखण्डानन्द महाराज का संस्मरण बड़ा ही प्रेरक है। ध्यान रहे कि ये सन्त परम पूज्य गुरुदेव पर गहरी श्रद्धा करते थे। इनकी एक पुस्तक है पावन संस्मरण। इसमें उन्होंने लिखा है कि एक दिन वे ब्रह्ममुहूर्त में बैठकर माला जप रहे थे। उनकी कोशिश यही थी कि ज्यादा से ज्यादा मालाएँ जप ली जाएँ। इस बीच परमहंस जगन्नाथपुरी जी उधर से गुजरे। उन्हें जन सामान्य लोग नेपाली बाबा के नाम से जानते थे। इनका जप देखकर वह बोल पड़े- भला कहीं ऐसे जप किया जाता है? उनके वचनों से इनकी आँख खुली। नमस्कार करने पर परमहंस जी ने इन्हें गले लगाया और बोले- मंत्र साक्षात् भगवान् है, अपने ईष्ट की शब्दमूर्ति है। मंत्र चाहे कोई भी हो, उसे जपने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। सत्कार के साथ, धीर गम्भीर भाव के साथ मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए। प्रत्येक शब्द का गहराई से उच्चारण करें। इस तरह एक अक्षर से दूसरे अक्षर तक पहुँचने में कुछ समय लगे। इससे मन में संकल्प नहीं होगा। जब मन खाली होगा, तो उसमें अपने ईष्ट का प्रकाश होगा।
गायत्री महामंत्र को योग साधक अपनी योग साधना का सर्वस्व मानकर अभ्यास करें। मन ही मन प्रत्येक अक्षर का स्पष्ट उच्चारण, साथ ही यह प्रगाढ़ भाव कि इन चौबीस अक्षरों में स्वयं आदि शक्ति जगन्माता अपनी चौबीस शक्तियों के साथ समायी हैं। यह मंत्र स्वयं ही परमा शक्ति है, साथ ही साधक को सब कुछ देने में समर्थ है। जप करते समय ही नहीं, जप करने के बाद रह-रहकर साधक के मन में माता का स्मरण होते रहना चाहिए। ध्यान रहे जप के साथ मौन-एकान्त एवं अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य साधक के अभ्यास को दृढ़ करते हैं।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या