🔴 भिक्षुक क्या कभी सुखी रह सकता है? यदि उसको कोई कुछ देता है तो वह घृणा के भाव से। और इसीलिये भिक्षुक को जो कुछ मिलता है उसका आनन्द वह नहीं उठा सकता। उसी प्रकार हम सभी भिक्षुक हैं। हम जो कुछ भी करते हैं उसका बदला पाने की आशा करते हैं। हम लोगों की बुद्धि व्यापारिक हो गयी है। जीवन में, सुकृति में प्रेम में सब में हम लोग व्यापारी बन गये, तो जब हमारे अन्दर व्यापारिक बुद्धि का प्रवेश होगा तो फिर व्यापार की सभी अवस्थाओं का सामना भी करना पड़ेगा। व्यापार में आदान-प्रदान, क्रय-विक्रय, मन्दी-तेजी, हानि-लाभ सभी होते हैं और हमें उन सबको भोगना पड़ेगा। बस यहीं मनुष्य फंसता है, इसी जगह उसकी कठिनाई आरम्भ होती है। स्पृहा, अभिलाषा और आशा जहाँ शुरू हुई कि दुःख स्रोत उमड़ पड़ा।
🔵 अतः जो निस्वार्थ कर्म करेगा, जो पुनः वापस पाने कि इच्छा रखकर कार्य नहीं करेगा वही सफल होगा, वही दुःखों से मुक्त रहेगा। कितने ही लोग कहेंगे, “यह तो विचित्र बात है, असम्भव है, गलत है। रोज ही हम देखते हैं कि सीधा सादा, सरल निस्वार्थ कर्मी ठगा जाता है, हानि उठाता रहता है। भगवान ईसा ने सेवा की भावना रख कर कर्म किया, उनका कर्म केवल कर्म के लिये था। फल के लिये उनके अन्दर तनिक भी आसक्ति न थी फिर भी उनको प्राण गंवाना पड़ा। किन्तु साथ ही साथ यह भी हम जानते हैं कि ईसा के आत्मबलिदान ने जगत को वह अमूल्य निधि दी जिसका ठिकाना नहीं। ईसा का उद्देश्य सफल हुआ, अपने लक्ष्य को उन्होंने प्राप्त कर लिया।
🔴 आप जो कुछ भी करो, जो कुछ भी दो उसका बदला न चाहो। जो कुछ भी दे सको दो, जहाँ तक हो सके करो, इसका फल आपको हजार गुना मिलेगा किन्तु आप आशा न करो, अभिलाषा न करो, माँगो नहीं। जीवन देना ही तो है और क्या है? यदि आप देना बन्द कर दोगे या नहीं देना चाहोगे तो प्रकृति आपका गला दबा कर आपसे ले लेगी। आप सोचते हो कि जीवन संग्रह करने के लिये है, हाथ बन्द करने के लिये हैं किन्तु जब प्रकृति आपका गला दबा कर आपका हाथ खोल देती, तब आपको इस बात का ज्ञान होता कि वास्तव में जीवन देने के लिये बना था। मरने के बाद सिकन्दर के दोनों हाथ खुले हुए बाहर निकल कर लटक रहे थे। उसने इस ध्रुव सत्य को समझ लिया था कि जीवन में कुछ संचय नहीं किया जा सकता, यह तो देने के ही लिये बना था। इसी को प्रारम्भ में लोग नहीं समझते किन्तु एक समय ऐसा आता है जब विवश होकर उन्हें समझना पड़ता है। लेकिन यदि हममें इतनी बुद्धि होती कि हम प्रकृति के इस रहस्य को समझते, भगवान के उपदेशों के अनुसार चलते तो दुःख किस बात का था।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 स्वामी विवेकानन्द
🌹 अखण्ड ज्योति- जुलाई 1950 पृष्ठ 7
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1950/July/v1.7
🔵 अतः जो निस्वार्थ कर्म करेगा, जो पुनः वापस पाने कि इच्छा रखकर कार्य नहीं करेगा वही सफल होगा, वही दुःखों से मुक्त रहेगा। कितने ही लोग कहेंगे, “यह तो विचित्र बात है, असम्भव है, गलत है। रोज ही हम देखते हैं कि सीधा सादा, सरल निस्वार्थ कर्मी ठगा जाता है, हानि उठाता रहता है। भगवान ईसा ने सेवा की भावना रख कर कर्म किया, उनका कर्म केवल कर्म के लिये था। फल के लिये उनके अन्दर तनिक भी आसक्ति न थी फिर भी उनको प्राण गंवाना पड़ा। किन्तु साथ ही साथ यह भी हम जानते हैं कि ईसा के आत्मबलिदान ने जगत को वह अमूल्य निधि दी जिसका ठिकाना नहीं। ईसा का उद्देश्य सफल हुआ, अपने लक्ष्य को उन्होंने प्राप्त कर लिया।
🔴 आप जो कुछ भी करो, जो कुछ भी दो उसका बदला न चाहो। जो कुछ भी दे सको दो, जहाँ तक हो सके करो, इसका फल आपको हजार गुना मिलेगा किन्तु आप आशा न करो, अभिलाषा न करो, माँगो नहीं। जीवन देना ही तो है और क्या है? यदि आप देना बन्द कर दोगे या नहीं देना चाहोगे तो प्रकृति आपका गला दबा कर आपसे ले लेगी। आप सोचते हो कि जीवन संग्रह करने के लिये है, हाथ बन्द करने के लिये हैं किन्तु जब प्रकृति आपका गला दबा कर आपका हाथ खोल देती, तब आपको इस बात का ज्ञान होता कि वास्तव में जीवन देने के लिये बना था। मरने के बाद सिकन्दर के दोनों हाथ खुले हुए बाहर निकल कर लटक रहे थे। उसने इस ध्रुव सत्य को समझ लिया था कि जीवन में कुछ संचय नहीं किया जा सकता, यह तो देने के ही लिये बना था। इसी को प्रारम्भ में लोग नहीं समझते किन्तु एक समय ऐसा आता है जब विवश होकर उन्हें समझना पड़ता है। लेकिन यदि हममें इतनी बुद्धि होती कि हम प्रकृति के इस रहस्य को समझते, भगवान के उपदेशों के अनुसार चलते तो दुःख किस बात का था।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 स्वामी विवेकानन्द
🌹 अखण्ड ज्योति- जुलाई 1950 पृष्ठ 7
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1950/July/v1.7