प्रसन्नता और आनन्द में मौलिक अन्तर है। प्रसन्नता इच्छित भौतिक वस्तुओं की उपलब्धि पर होती है। पर वह देर तक टिकती नहीं। क्योंकि उससे भी बड़ी उपलब्धि की उत्कण्ठा तत्काल आ दबोचती है। सौ रुपये का लाभ हुआ। क्षण भर प्रसन्नता हुई। दूसरे ही क्षण, हजार की लालसा जग पड़ी और वे सौ रुपये अपर्याप्त लगने लगे। असन्तोष उत्पन्न करने लगे। साथ ही उन सौ रुपयों की रखवाली का नया ताना-बाना बुनना पड़ा। इतना ही नहीं जब उनके खर्च का हाथ बढ़ता है तो मुफ्त का या अनीति उपार्जित धन मात्र कुमार्ग में जाने के लिए रास्ता बनाता है। नशा, जुआ, शृंगार, व्यभिचार, ठाट-बाट बनाने जैसी बातें सूझती हैं। क्षण भर की प्रसन्नता कुछ ही क्षणों में नई चिन्ताओं और हैरानियों का बोझ लाद देती है।
सन्तोषी, प्रसन्नचित्त, कर्तव्यपरायण, सज्जन, समझदार, ईमानदार, जिम्मेदार और बहादुर मनुष्य जिसके प्रौढ़ और परिपक्व मन:स्थिति में रहते हैं उसे स्वर्ग कहते हैं। कठिनाइयां उनके सामने भी आती रहती हैं, पर वे उन्हें अपनी परीक्षा मानते हैं कि समाधान खोजने या सहने का पराक्रम या साहस उदय हुआ या नहीं। ऐसी आत्माएं स्वर्गलोक में काम करती हैं। उनकी प्रसन्नता, प्रफुल्लता को कोई छीन नहीं सकता है।
मुक्ति भव-बन्धनों से छुटकारे को कहते हैं। भव-बन्धनों में हथकड़ी, बेड़ी और गले की तौक की तुलना दी गई है। पर इन्हें क्रूर, दुर्धर्ष अपराधियों को बन्दीगृहों में ही पहनाया जाता है। सामान्य लोग तो खुले हुए भी फिरते हैं। इस बन्धन अलंकार का तात्पर्य लोभ, मोह और अहंकार से है। उन्हें मनुष्य स्वयं ही अपने ऊपर लादता और मकड़ी के जाले की तरह उनमें स्वयं ही फंसता है। वह चाहे तो उस जाल-जंजाल को विवेक दृष्टि अपनाकर आसानी से समेट भी सकता है।
सन्तोषी, प्रसन्नचित्त, कर्तव्यपरायण, सज्जन, समझदार, ईमानदार, जिम्मेदार और बहादुर मनुष्य जिसके प्रौढ़ और परिपक्व मन:स्थिति में रहते हैं उसे स्वर्ग कहते हैं। कठिनाइयां उनके सामने भी आती रहती हैं, पर वे उन्हें अपनी परीक्षा मानते हैं कि समाधान खोजने या सहने का पराक्रम या साहस उदय हुआ या नहीं। ऐसी आत्माएं स्वर्गलोक में काम करती हैं। उनकी प्रसन्नता, प्रफुल्लता को कोई छीन नहीं सकता है।
मुक्ति भव-बन्धनों से छुटकारे को कहते हैं। भव-बन्धनों में हथकड़ी, बेड़ी और गले की तौक की तुलना दी गई है। पर इन्हें क्रूर, दुर्धर्ष अपराधियों को बन्दीगृहों में ही पहनाया जाता है। सामान्य लोग तो खुले हुए भी फिरते हैं। इस बन्धन अलंकार का तात्पर्य लोभ, मोह और अहंकार से है। उन्हें मनुष्य स्वयं ही अपने ऊपर लादता और मकड़ी के जाले की तरह उनमें स्वयं ही फंसता है। वह चाहे तो उस जाल-जंजाल को विवेक दृष्टि अपनाकर आसानी से समेट भी सकता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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