शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ३८)

सृष्टि जगत का अधिष्ठाता

इस सम्बन्ध में कई लोगों को संदेह होता है कि ईश्वर है भी अथवा नहीं, सामान्य दृष्टि से विचार करने पर भी ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले अनेकों प्रमाण मिल जाते हैं। कोई यह सिद्ध करने के लिये पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर ही चले कि ईश्वर नहीं है तो बात अलग है। अन्यथा ईश्वर का अस्तित्व उदित और चमकते सूरज से भी अधिक प्रत्यक्ष है। उदाहरण के लिये प्रत्येक कर्म का कोई अधिष्ठाता, प्रत्येक रचना का कोई कलाकार अवश्य होता है। आगरे का ताजमहल संसार के सर्व प्रसिद्ध सात आश्चर्यों में से एक है। उसके निर्माण में प्रतिदिन 20 हजार मजदूर काम करते थे, इतिहासकारों के अनुमान के अनुसार उसका निर्माण 6 करो रुपये में हुआ। उसके निर्माण में साढ़े अट्ठारह वर्ष लगे। उसमें राजस्थान से आया संगमरमर, तिब्बत की नीलम मणि, सिंहल की सिपास्लाजुली मणि, पंजाब के हीरे, बगदाद के पुखराज रत्न लगे हैं। इतनी सारी व्यवस्था और साधन सामग्री जुटाने में एक व्यक्ति की बुद्धि काम कर रही थी वह था शाहजहां। ताजमहल की रचना के साथ शाहजहां चिरकाल अमर है।

कोरिया का मेलोलियम संसार का दूसरा आश्चर्य। 62 हाथ लम्बी उतनी ही चौड़ी चहारदीवारी के मध्य 40-40 हाथ ऊंचे 36 स्तम्भ जो नीचे मोटे पर ऊपर क्रमशः पतले होते गये हैं। सीढ़ियों पर नीचे से ऊपर तक संगमरमर की बहुमूल्य मूर्तियों की सजावट। प्रसिद्ध कलाकार पाइथिस और माटीराम द्वारा विनिर्मित इस समाधि मन्दिर का निर्माण केवल एक व्यक्ति की इच्छित रचना है वह थीं वहां की महारानी ‘आर्टीमिसिया’।

20 लाख रुपये की लागत से बनी 25 फुट ऊंची ओलम्पिया की जुपिटर प्रतिमा एथेन के सम्राट पैराक्लीज की हार्दिक इच्छा का अभिव्यक्त रूप है। इफिसास का डायना मन्दिर चांदफिन की कल्पना  का साकार है तो अजन्ता की 29 गुफाओं में 5 मन्दिरों और 24 बौद्ध बिहारों में प्रवर सेन युग के आचार्य सुनन्द का नाम अंकित है। सिकन्दरिया का प्रकाश स्तम्भ सिकन्दर के संकल्प का मूर्तिमान है। 263 हाथ के घेरे में 22 फुट ऊंचे ठोस घेरे में खड़ा किया गया बैबिलोन का लटकता हुआ बाग (हैंगिंग गार्डन) साम्राज्ञी ने बनवाया। रोम का कोलोसियस, पीसा की मीनार, रोडस की पीतल की मूर्ति, मिस्र के पिरामिड चार्टेज गिरजाघर डेविड, मोजेट, सिस्टाइन चैपिल पियेंटा की प्रतिमाएं, एफिल टावर (पेरिस) ह्वाइट हाउस अमेरिका, लाल किला दिल्ली आदि जितनी भी सर्वश्रेष्ठ रचनाएं हैं, उनके रचनाकार आला मस्तिष्क और भाव सम्पन्न आत्माएं रही हैं किसी भी सांसारिक निर्माण को स्वनिर्मित नहीं कहा जा सकता इसी से रचना के साथ रचनाकार का नाम अविच्छिन्न रूप से चलता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६१
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ३८)

भगवान में अनुराग का नाम है भक्ति
    
उसका बालमन एक दिन भगवान की मूर्ति को नजदीक से देखने के लिए मचल पड़ा और उसने अपने पिता को अपनी यह इच्छा कह सुनायी। पुत्र कीयह बात सुनकर पिता तो सहम ही गये, क्योंकि उस युग की प्रथा-परम्परा के मुताबिक चण्डाल भला किस तरह मंदिर में प्रवेश पा सकता था। पिता ने पुत्र को समझाने की भरपूर कोशिश की पर पुत्र का बालमन नहीं माना। उसे तो भगवान को नजदीक से देखने की जिद थी। उसके मन में ललक थी- हुलस थी प्रभु के श्रीविग्रह की पूजा करने की। अपनी जिद में उसने खाना-पीना छोड़ दिया। हारकर पिता ने गाँव से दूर वनप्रान्त में रहने वाले एक तपस्वी संत को अपनी समस्या बतायी। उन्होंने सुगना को बेधक दृष्टि से देखा और उसके पिता से बोले-जिसके हृदय में भगवान की इतनी प्रगाढ़ भक्ति हो, वह तो हजारों-हजार ब्राह्मणों से भी श्रेष्ठ और पवित्र है।
    
फिर उन्होंने सुगना से कहा-पुत्र! तुम तो भगवान को पुकारो-वे अवश्य आयेंगे। पर मेरे पास तो उनकी मूर्ति नहीं है, लगभग रोते हुए उस चण्डाल पुत्र ने कहा। वह तुम गढ़ लो- या फिर किसी भी मिट्टी-पत्थर के टुकड़े को मूर्ति मानकर उनका आह्वान करो। तुम्हारी पुकार पर वे अवश्य आयेंगे। उन तपस्वी संत की बात में कुछ ऐसा जादुई असर था कि बालक सुगना प्रसन्न हो गया और उसने जंगल के एकांत में वृक्षों के झुरमुट के पास अपने ही हाथों से भगवान की मूर्ति गढ़ ली। उस मिट्टी की मूर्ति के लिए फूस का छप्पर भी बनाया, ताकि उसके प्रिय प्रभु भींगे नहीं।
    
और फिर प्रारम्भ हो गयी उसकी अद्भुत पूजा। जंगल के फूल-पत्ते, जंगली फल, झरने का जल उसकी पूजा सामग्री बन गये। प्रकृति से प्रदत्त चीजों को वह अपने प्रिय परमेश्वर को चढ़ाने लगा। पूजा करते-करते वह बालक विह्वल हो जाता, बार-बार बस यही कहता कि हे प्रभु! मुझे तो यह पता भी नहीं है कि तुम कैसे हो? तुम्हें क्या पसन्द है? हे स्वामी! अपने इस भक्त की पूजा स्वीकार करो-इसकी भक्ति को स्वीकारो और हे प्रभु! अपने इस भक्त को भी अपने दास के रूप में स्वीकार करो। सुगना की इस पूजा का यह क्रम वर्षों चलता रहा। न तो परिस्थितियों के व्याघात उसे विचलित कर सके, न तो उसका मन ही कहीं किसी और ओर गया। एक दिन वह पूजा करके आँख बन्द करके भगवान से प्रार्थना कर रहा था तो अचानक ही उसका अस्तित्व एक अपूर्व ज्योति से भर उठा-भगवान आज स्वयं ही भक्त के हृदय में प्रकट हो गये थे। इस विचित्र दृश्य को अपने अंतर में निहारकर उसने आँखें खोल दीं, पर यह क्या वही भगवान बाहर भी खड़े मुस्करा रहे हैं।
    
उसे बोध हो गया कि आज उसकी पूजा स्वीकार हुई, उसकी भक्ति पूर्ण   हुई। भक्तवत्सल भगवान ने उसे अपना लिया है।’’ देवर्षि के मुख से यह भक्तिकथा सुनकर महर्षि अंगिरा कहने लगे, भक्त की भावनाओं से बढ़कर भला और भगवान को क्या प्रिय हो सकता है। सच तो यही है कि भावनाओं के जितने भी प्रकार हैं-वही सब तो भक्ति के विविध रूप हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ७२

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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