शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १८)

जीवन कमल खिला सकती हैं—पंच वृत्तियाँ
  
महर्षि पतंजलि कहते हैं कि यह शक्ति मन में है। परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि प्रमाण हमारे मन की वह उच्चतम क्षमता है, जो सामान्य क्रम में अविकसित अथवा अल्प विकसित या अर्धविकसित दशा में होती है। यदि यह क्षमता ठीक तरह से विकसित या जाग्रत् हो जाए, तो फिर जो कुछ भी जाना जाय सत्य होता है। साधारण तौर पर प्रायः मन की यह शक्ति अविकसित ही रह जाती है। इसका प्रयोग हो ही नहीं पाता। मन की इस शक्ति को समझने के लिए पूज्य गुरुदेव एक उदाहरण दिया करते थे। वह कहते थे- ‘मान लो तुम जिस घर में रहते हो, उस घर में बिजली-बत्ती तो है, पर उसके स्विच का तुम्हें पता नहीं। एकदम घनघोर-घुप अन्धेरा वहाँ छाया रहता है। अब तुम्हें रहना उसी घर में है, और स्विच के बारे में तुम्हें पता नहीं है, तो क्या स्थिति होगी? बस जैसे-तैसे टटोल कर काम चलाना पड़ेगा। कई बार ठोकरें लगेंगी। यह भी हो सकता है कि कई बार सिर फूटे और पैर टूटे। इस अंधेरे के कारण न जाने कितनी मुश्किलें खड़ी होंगी।’
  
अब यदि किसी तरह प्रयास, प्रयत्न से अथवा गुरुकृपा या भगवत्कृपा से बिजली का स्विच मिल जाय, यही नहीं वह स्विच ऑन हो जाय और घर के कोने-कोने में रोशनी बिखर जाय, हर ओर उजियारा फैल जाय, तो एक पल में सारी परेशानियाँ, सारी मुश्किलें समाप्त हो जाएँगी। फिर सब कुछ साफ-साफ नजर आएगा। सत्य प्रश्न या जिज्ञासा की विषय वस्तु न बनकर जीवन का अनुभव हो जाएगा। बस यही है प्रमाणवृत्ति। इसके विकसित होने का मतलब है कि हाथ में स्विच आ गया। कहीं किसी तरह की कोई भटकन नहीं। किसी से कुछ पूछने की भी जरूरत नहीं। किसी तरह के भ्रम अथवा सन्देह की भी कोई गुंजाइश नहीं।
  
बुद्ध, महावीर, श्री रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण या फिर स्वयं परम पूज्य गुरुदेव इन सबमें इस प्रमाणवृत्ति की स्वाभाविक जागृति थी। गुरुदेव अपने जीवन काल में हजारों जगह गए और वहाँ लाखों लोगों से मिले। लोगों से मिलने का यह सिलसिला तब भी चलता रहा, जब उन्होंने कहीं भी आना-जाना बन्द कर दिया। जहाँ कोई जो भी मिला, गुरुदेव ने उसके प्रश्नों का बड़ी सहजता से समाधान कर दिया। कई बार तो पूछने वाले ने संकोचवश प्रश्न पूछा भी नहीं, और गुरुदेव ने उसके सवाल का सही जवाब दे दिया। उनके प्रवचनों में यह बात रोज ही देखी जाती थी। उस समय जिस किसी व्यक्ति की जो भी जिज्ञासा, शंका या प्रश्न होते, गुरुदेव उसी का समाधान करते। उनके प्रवचनों में एक साथ अनेकों के समाधान का सिलसिला चलता रहता था।
  
किसी के पूछने पर वह हँस देते और कहते- अरे भाई! तुम सोचते हो, टटोलते हो, उलझते हो और मैं सब कुछ साफ-साफ देखता हूँ। मुझे तुम्हारा प्रश्न भी दिखाई देता है, उत्तर भी। मुझे तो तुम्हारे वे अजन्मे सवाल भी दिखाई देते हैं जो कल जन्म लेंगे। साथ ही वे समाधान भी नजर आते हैं, जिनकी तुम्हें कल जरूरत होगी। यह होती है—प्रमाण वृत्ति। इसके विकास का मतलब है सहज बोध की प्राप्ति। फिर उधार के विचारों की, किसी तरह के तर्कजाल की, बौद्धिक जोड़-तोड़ की कोई जरूरत नहीं। गुरुदेव कहते थे कि गायत्री महामंत्र की भावभरी साधना से मन की यह शक्ति अपने आप ही कुछ वर्षों में जाग जाती है। साथ ही इस शक्ति के जागरण में अवरोध उत्पन्न करने वाली शक्ति समूल नष्ट हो जाती है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ३६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 अध्यात्म-लक्ष और उसका आवश्यक कर्तृत्व (भाग २)

छलाँग नहीं लगाई जा सकती

जो साधक इन आरम्भिक बातों की उपेक्षा करते हैं और समाधि तक ही सीधे पहुँचना चाहते हैं, जीवन को सब प्रकार अस्त-व्यस्त और पतित-गलित स्थिति में पड़ा रखकर जो आध्यात्मिक पूर्णता की बात सोचते हैं, वे अतिवादी ही कहे जायेंगे। आग के बिना जैसे भोजन पका लेना कठिन है वैसे ही आत्मिक प्रगति के आवश्यक उपकरणों का परित्याग कर, शरीर मन और समाज को हीन स्थिति में रखने से प्रयोजन कैसे सिद्ध होगा? प्राचीन काल में कठिन तपश्चर्या और साधना का मार्ग अपनाकर लोग इन तीनों साधनों को शुद्ध करते थे। आज के जल्दबाज लोगों ने अमुक जगह स्नान कर लेने, अमुक पुस्तक पढ़ लेने, अमुक जप कर लेने मात्र से चुटकियों में परम-लक्ष की प्राप्ति की कल्पना आरम्भ कर दी है। स्नान, पाठ, जप का पूरा लाभ उन्हीं को मिल सकता है जिनके साधन सबल हैं। सब प्रकार की हीन और पतित स्थिति में पड़े हुए लोगों का केवल इन उपचारों का मात्र सहारा लेकर भव-सागर से पार हो सकना कठिन है। यदि यह मार्ग इतना ही सरल होता तो प्राचीन काल में किसी को इतनी कष्ट-साध्य, श्रम-साध्य और समय साध्य साधनाऐं न करनी पड़तीं। वे भी आज के लोगों की तरह कुछ उपचार मात्र करके सब कुछ प्राप्त कर लेने की बात क्यों न सोच लेते?

राजमार्ग यही रहा है

प्राचीन इतिहास पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो हमें अध्यात्म-लक्ष की प्राप्त करने वाले महापुरुषों में प्रथम सोपान की सफलता प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित होती है। जिन्होंने परमात्मा की प्राप्ति की, वे परशुराम, विश्वामित्र, अगस्त, शुक्राचार्य, द्रोणाचार्य आदि क्या शारीरिक दृष्टि से दुर्बल थे? अत्रि, वशिष्ठ, अंगिरा, याज्ञवल्क्य, भारद्वाज, गौतम आदि ऋषियों के मानसिक स्तर क्या गिरे हुये थे? समाज को अवसाद की ओर जाते देखकर उसे रोकने के लिए व्यास जी ने पुराणों की साहित्य रचना आरम्भ की थी। चरक, सुश्रुत, वागभट्ट ने आयुर्वेद शास्त्र का निर्माण किया था। नारद जी प्रचार के लिए परिव्राजक बन गये थे। परशुरामजी ने लड़ाई ही ठान दी थी। भगवान बुद्ध, महावीर, कबीर, नानक, गाँधी, दयानन्द, विवेकानन्द, रामतीर्थ आदि अर्वाचीन ऋषियों ने भी अस्वस्थ समाज को स्वस्थ बनाने के प्रयत्न को ही अपनी प्रधान साधना बना लिया था। वे जानते थे कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज का अधिक भाग पतित स्थिति में पड़ा रहे तो थोड़े से साधना-रत व्यक्तियों के लिए भी उस कीचड़ को पार कर सकना कठिन होगा। बलवान हाथी भी दलदल में फंस जाता है, पतित-समाज की परिस्थितियाँ ध्यान, भजन में संलग्न व्यक्तियों का मन भी अपने जाल में उलझा लेती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 35

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