शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

👉 आवेशग्रस्त न रहें, सौम्य जीवन जियें (भाग 1)

मस्तिष्कीय तनाव की परिणति समूची काया के गति तन्त्र को अस्त-व्यस्त कर देती है इसकी जानकारी चिकित्सकों को द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त मिली। देखा गया कि मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिक वहाँ की डरावनी परिस्थितियों के कारण लगातार उत्तेजित रहे। शान्ति और सन्तोष का अवसर नहीं मिला। हलके, निश्चिन्त एवं प्रसन्न भी न रह सके। अतएव मनःसंस्थान आवेशग्रस्त रहा और उसकी परिणति शरीर के अन्यान्य अवयवों की गतिविधियों से अस्त-व्यस्तता उत्पन्न करने लगी।

सैनिकों के स्नायु संस्थान स्वाभाविक नहीं रहे। रक्तचाप बढ़ा, पाचन तन्त्र गड़बड़ाया और उत्साह घटने अन्यमनस्कता बढ़ने के लक्षण उभरने लगे। तात्कालिक उपचार तो टॉनिकों की मात्रा बढ़ाकर किया गया, पर यह प्रश्न विचारणीय ही बना रहा कि उत्तेजित मनःस्थिति के शरीर के अन्याय अवयवों पर भी प्रभाव पड़ता है। मात्र अनिद्रा, सिर दर्द आदि तक ही सीमित नहीं रहता।

तनावजन्य बीमारियों को ‘साइको सोमेटिक’ कहा जाता है। मनःचिकित्सकों का मत है कि- उत्तेजनात्मक वातावरण के कारण मस्तिष्क का एक महत्वपूर्ण पक्ष हायपोथेमस आवेशग्रस्त रहने लगता है। कारटैक्स के अतिरिक्त स्नायु संस्थान के अन्यान्य क्षेत्र भी इससे प्रभावित होते हैं।

जान कौलहन ने उत्तेजनात्मक वातावरण का प्रभाव चूहे, खरगोश जैसे छोटे जानवरों पर जाँचा और पाया कि अविश्रान्ति की स्थिति में विक्षिप्त रहने लगे और असामान्य गतिविधियां अपनाने लगे। उनका स्वभाव भी वैसा न रहा और वजन भी घटा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1984 पृष्ठ 39

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1984/May/v1.39

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👉 दोषों में भी गुण ढूँढ़ निकालिये (भाग 1)

संसार की प्रत्येक वस्तु गुण-दोष-मय है। न तो कोई ऐसा पदार्थ है जिससे किसी प्रकार का दोष न हो और कोई चीज ऐसी जिसमें केवल दोष ही दोष भरे हों। मनुष्य के भीतर स्वयं दैवी और आसुरी दोनों प्रकार की वृत्तियाँ काम करती हैं। परिस्थिति के अनुसार उनमें से कभी कोई दबती है तो कभी उभरती है। जिससे एक मनुष्य जो एक समय से बुरा प्रतीत होता था दूसरे समय में अच्छा लगने लगता है।

हर वस्तु के बुरे और भले दोनों ही पहलू हैं। उन्हें हम अपनी दृष्टि के अनुसार देखते और अनुभव करते हैं। हंस के सामने पानी और दूध मिला कर रखा जाए तो केवल दूध ही ग्रहण करेगा और पानी छोड़ देगा। फूलों में शक्कर होती तो है पर उसकी मात्रा बहुत स्वल्प है, हम लोग किसी फूल को तोड़ कर चखें तो उसमें जरा सी मिठास प्रतीत होती है पर शहद की मक्खी को देखिए वह फूलों में से केवल मिठास ही चूसती है शेष अन्य स्वादों का जो बहुत सा पदार्थ फूल में भरा पड़ा है, उसे व्यर्थ समझ कर छोड़ देती है।

स्वाति की बूँद एक ही प्रकार की होती है पर उससे अलग-अलग जीव अपनी आंतरिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग प्रकार के लाभ उठाते हैं। साँप के मुख में जाकर स्वाति बूँद हलाहल विष बन जाती है, सीप के मुख में पड़ने से वह मूल्यवान मोती बनती है, बाँस के छेदों में जाने से वंशलोचन उपजता है और पपीहे के मुख में जाने से उसकी प्यास-मात्र लुप्त होती है। वस्तु एक ही थी पर अलग-अलग जीवों ने उसका उपयोग अपने-अपने ढंग से किया और उसका लाभ भी अलग-अलग उठाया। एक वैद्य पारद् को लेकर बहुमूल्य रसायन बनाता है जिससे अनेक व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ करते हैं। दूसरी ओर उसी पारद को खाकर दूसरा आदमी प्राणघात कर लेता है। चाकू से एक विद्यार्थी कमल बनाता है, कागज काटता है, दूसरा ना समझ बालक उससे अपनी उंगली काट लेता है। बिजली से एक व्यक्ति बत्ती जलाने, पंखा चलाने और रेडियो बजाने का काम लेता है दूसरा उसी का गलत उपयोग करके अपने लिए संकट उत्पन्न कर लेता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य



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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 2 Oct 2016

हर मनुष्य की अपनी एक तौल होती है। इसे आत्म-श्रद्धा कहें या आत्म-गौरव। हर व्यक्ति इसी आंतरिक तौल के आधार पर आचरण करता है, उसी के अनुरूप ही उसे दूसरों से प्रतिष्ठा भी मिलती है और सांसारिक सुखोपभोग भी मिलते हैं। अपने आपके प्रति जिसमें जितनी प्रगाढ़ श्रद्धा होती है वह उतने ही अंश में नेक, ईमानदार, सच्चरित्र, तेजस्वी और प्रतापी होता है। इन सद्गुणों का बाहुल्य ही विपुल  सफलता के रूप में परिलक्षित होता है।

सच्चा भक्त साहसी और शूरवीर होता है। वह प्रलोभनों एवं भय के आगे झुकता नहीं। जो उचित है, जो सत्य है, उसी का समर्थन करता है, उसी पर दृढ़ बना रहता है और उसी को अपनाने में दुनियादारों की सम्मति की परवाह न करते हुए जो विवेक सम्मत है उसी पर अड़ा रहता है। सत्प्रवृत्तियों को अभ्यास में लाते समय अपनी बुरी आदतेां से जो संघर्ष करना पड़ता है, उसे वीर योद्धा की तरह करता है। अभावग्रस्त और कष्टप्रद जीवन जीकर भी वह आदर्शवादिता की रक्षा करता है इसलिए वह तपस्वी कहलाता है।

श्रद्धा वह प्रकाश है जो आत्मा की, सत्य की प्राप्ति के लिए बनाये गये मार्ग को दिखाता रहता है। जब कभी मनुष्य एक क्षण के लिए  भी लौकिक चमक-दमक, कामिनी और कंचन के लिए मोहग्रस्त होता है तो माता की तरह ठंडे जल से मुँह धोकर जगा देने वाली शक्ति यह श्रद्धा ही होती है। सत्य के सद्गुण, ऐश्वर्य स्वरूप एवं ज्ञान की थाह अपनी बुद्धि से नहीं मिलती। जबउसके प्रति सविनय प्रेम भावना विकसित होती है, उसी को श्रद्धा कहते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...