बुधवार, 2 नवंबर 2016
👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 17)
🌞 दूसरा अध्याय
🔴 आत्म-दर्शन की सीढ़ियों पर चढ़ने से पहले सर्वप्रथम समतल भूमि पर पहुँचना होगा। जहाँ आज तुम भटक रहे हो, वहाँ से लौट आओ और उसी भूमि पर स्थित हो जाओ, जिसे प्रवेश द्वार कहते हैं। मानलो कि तुमने अपने अन्य सब ज्ञानों को भुला दिया है और नये सिरे से किसी पाठशाला में भर्ती होकर क, ख, ग सीख रहे हो। इसमें अपमान मत समझो। तुम्हारा अब तक का ज्ञान झूँठा नहीं है। तुम उर्दू खूब पढ़े हो और यदि हिन्दी द्वारा भी लाभ प्राप्त करना चाहो, तो एकदम उसका दर्शन-शास्त्र नहीं पढ़ने लगोगे, वरन् वर्णमाला ही से आरम्भ करोगे। हम अपने आदणीय और ज्ञानी जिज्ञासुओं की पीठ थपथपाते हुए दो कदम पीछे लौटने को कहते हैं, क्योंकि ऐसा करने से प्रथम सीढ़ी पर पाँव रख सकेंगे और आसानी एवं तीव्र गति से ऊपर चढ़ेंगे।
🔵 तुम्हें विचार करना चाहिए कि जब मैं कहता हूँ कि 'मैं' तब उसका क्या अभिप्राय होता है? पशु, पक्षी तथा अन्य अविकसित प्राणियों में यह 'मैं' की भावना नहीं होती। भौतिक सुख-दुख का तो वे अनुभव करते हैं, किन्तु अपने बारे में कुछ अधिक नहीं सोच सकते। गधा नहीं जानता कि मुझ पर किस कारण बोझ लादा जाता है? लादने वाले के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है? मैं किस प्रकार अन्याय का शिकार बनाया जा रहा हूँ? वह अधिक बोझ लद जाने पर कष्ट का और हरी घास मिल जाने पर शांति का अनुभव करता है, पर हमारी तरह सोच नहीं सकता।
🔴 इन जीवों में शरीर ही आत्म-स्वरूप है। क्रमशः अपना विकास करते-करते मनुष्य आगे बढ़ आया है। फिर भी कितने मनुष्य हैं, जो आत्म-स्वरूप को जानते हैं? तोता रटन्त दूसरी बात है। लोग आत्म-ज्ञान की कुछ चर्चा को सुनकर उसे मस्तिष्क में रिकार्ड की तरह भर लेते हैं और समयानुसार उसमें से कुछ सुना देते हैं। ऐसे आदमियों की कमी नहीं, जो आत्मा के बारे में कुछ नहीं जानते। इनमें सोचने-विचारने की शक्ति चुक गई है। उनका संसार आहार, निद्रा, भय, मैथुन, क्रोध, लोभ, मोह आदि तक ही सीमित होता है। इन्हीं समस्याओं को सोचने, समझने और हल करने लायक योग्यता उन्होंने प्राप्त की होती है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 आत्म-दर्शन की सीढ़ियों पर चढ़ने से पहले सर्वप्रथम समतल भूमि पर पहुँचना होगा। जहाँ आज तुम भटक रहे हो, वहाँ से लौट आओ और उसी भूमि पर स्थित हो जाओ, जिसे प्रवेश द्वार कहते हैं। मानलो कि तुमने अपने अन्य सब ज्ञानों को भुला दिया है और नये सिरे से किसी पाठशाला में भर्ती होकर क, ख, ग सीख रहे हो। इसमें अपमान मत समझो। तुम्हारा अब तक का ज्ञान झूँठा नहीं है। तुम उर्दू खूब पढ़े हो और यदि हिन्दी द्वारा भी लाभ प्राप्त करना चाहो, तो एकदम उसका दर्शन-शास्त्र नहीं पढ़ने लगोगे, वरन् वर्णमाला ही से आरम्भ करोगे। हम अपने आदणीय और ज्ञानी जिज्ञासुओं की पीठ थपथपाते हुए दो कदम पीछे लौटने को कहते हैं, क्योंकि ऐसा करने से प्रथम सीढ़ी पर पाँव रख सकेंगे और आसानी एवं तीव्र गति से ऊपर चढ़ेंगे।
🔵 तुम्हें विचार करना चाहिए कि जब मैं कहता हूँ कि 'मैं' तब उसका क्या अभिप्राय होता है? पशु, पक्षी तथा अन्य अविकसित प्राणियों में यह 'मैं' की भावना नहीं होती। भौतिक सुख-दुख का तो वे अनुभव करते हैं, किन्तु अपने बारे में कुछ अधिक नहीं सोच सकते। गधा नहीं जानता कि मुझ पर किस कारण बोझ लादा जाता है? लादने वाले के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है? मैं किस प्रकार अन्याय का शिकार बनाया जा रहा हूँ? वह अधिक बोझ लद जाने पर कष्ट का और हरी घास मिल जाने पर शांति का अनुभव करता है, पर हमारी तरह सोच नहीं सकता।
🔴 इन जीवों में शरीर ही आत्म-स्वरूप है। क्रमशः अपना विकास करते-करते मनुष्य आगे बढ़ आया है। फिर भी कितने मनुष्य हैं, जो आत्म-स्वरूप को जानते हैं? तोता रटन्त दूसरी बात है। लोग आत्म-ज्ञान की कुछ चर्चा को सुनकर उसे मस्तिष्क में रिकार्ड की तरह भर लेते हैं और समयानुसार उसमें से कुछ सुना देते हैं। ऐसे आदमियों की कमी नहीं, जो आत्मा के बारे में कुछ नहीं जानते। इनमें सोचने-विचारने की शक्ति चुक गई है। उनका संसार आहार, निद्रा, भय, मैथुन, क्रोध, लोभ, मोह आदि तक ही सीमित होता है। इन्हीं समस्याओं को सोचने, समझने और हल करने लायक योग्यता उन्होंने प्राप्त की होती है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 हमारी युग निर्माण योजना भाग 6
🌹 युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है
🔵 व्यक्ति के परिवर्तन से ही समाज, विश्व एवं युग का परिवर्तन सम्भव है। इस धरती पर स्वर्गीय वातावरण का सृजन करने के लिए हमें जन-मानस का स्तर बदलना पड़ेगा। आज जिस स्वार्थपरता, संकीर्णता, असंयम और अनीति ने अपना पैर पसार रखा है, उसे हटाने का प्रयत्न करना होगा और उसके स्थान पर सज्जनोचित सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठापित करना पड़ेगा। यह कार्य केवल कहने-सुनने से—लिखने-पढ़ने से सम्भव नहीं। लेखनी एवं वाणी में प्रचारात्मक शक्ति तो होती है, पर इनका प्रभाव बहुत थोड़ा और बहुत स्वल्प काल तक रहता है।
🔴 मनुष्यों में एक दूसरे को देखकर अनुकरण करने की प्रवृत्ति ही प्रधान रूप से काम करती है। दुष्कर्मों को देखकर लोग दुष्कर्म करते हैं। सत्कर्मों को देखकर वैसी गतिविधि अपनाने को जी करता है। इसलिए प्रयत्न यह करना होगा कि सुधरे हुए आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार लोग अपने जीवन क्रम बनावें। श्रेष्ठ व्यक्तियों के श्रेष्ठ आचरणों को देखकर ही जन-साधारण में वे सत्प्रवृत्तियां विकसित होंगी जो युग-निर्माण जैसे महान् अभियान के लिए नितान्त आवश्यक है।
🔵 अच्छा होता कि यह कार्य राष्ट्र के कर्णधारों द्वारा विशाल पैमाने पर सुसंगठित रूप से किया जाता। पर आज हमारे नेताओं की विचारधारा बिलकुल दूसरी है, वे आर्थिक उन्नति को सर्वोपरि मानते हैं और नीति सदाचार की बात एक फैशन की तरह कहते-सुनते तो रहते हैं, पर उस तरह की स्थिति पैदा करने के लिए कोई ठोस कदम उठाने का उनका कोई मन दिखाई नहीं पड़ता। ऐसी निराशाजनक परिस्थितियों में हम जो कुछ भी हैं—जिस छोटी स्थिति में भी हैं, वहीं से अपनी स्वल्प सामर्थ्य के अनुसार कार्य आरम्भ कर देना चाहिए, वही कर भी रहे हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 व्यक्ति के परिवर्तन से ही समाज, विश्व एवं युग का परिवर्तन सम्भव है। इस धरती पर स्वर्गीय वातावरण का सृजन करने के लिए हमें जन-मानस का स्तर बदलना पड़ेगा। आज जिस स्वार्थपरता, संकीर्णता, असंयम और अनीति ने अपना पैर पसार रखा है, उसे हटाने का प्रयत्न करना होगा और उसके स्थान पर सज्जनोचित सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठापित करना पड़ेगा। यह कार्य केवल कहने-सुनने से—लिखने-पढ़ने से सम्भव नहीं। लेखनी एवं वाणी में प्रचारात्मक शक्ति तो होती है, पर इनका प्रभाव बहुत थोड़ा और बहुत स्वल्प काल तक रहता है।
🔴 मनुष्यों में एक दूसरे को देखकर अनुकरण करने की प्रवृत्ति ही प्रधान रूप से काम करती है। दुष्कर्मों को देखकर लोग दुष्कर्म करते हैं। सत्कर्मों को देखकर वैसी गतिविधि अपनाने को जी करता है। इसलिए प्रयत्न यह करना होगा कि सुधरे हुए आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार लोग अपने जीवन क्रम बनावें। श्रेष्ठ व्यक्तियों के श्रेष्ठ आचरणों को देखकर ही जन-साधारण में वे सत्प्रवृत्तियां विकसित होंगी जो युग-निर्माण जैसे महान् अभियान के लिए नितान्त आवश्यक है।
🔵 अच्छा होता कि यह कार्य राष्ट्र के कर्णधारों द्वारा विशाल पैमाने पर सुसंगठित रूप से किया जाता। पर आज हमारे नेताओं की विचारधारा बिलकुल दूसरी है, वे आर्थिक उन्नति को सर्वोपरि मानते हैं और नीति सदाचार की बात एक फैशन की तरह कहते-सुनते तो रहते हैं, पर उस तरह की स्थिति पैदा करने के लिए कोई ठोस कदम उठाने का उनका कोई मन दिखाई नहीं पड़ता। ऐसी निराशाजनक परिस्थितियों में हम जो कुछ भी हैं—जिस छोटी स्थिति में भी हैं, वहीं से अपनी स्वल्प सामर्थ्य के अनुसार कार्य आरम्भ कर देना चाहिए, वही कर भी रहे हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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