मैं की भ्रान्ति से समस्त भ्रान्तियाँ पनपती हैं। जिन्हें अपने मैं पर भारी अभिमान है, उन्हें भी ठीक से नहीं पता कि आखिर यह मैं है क्या? रोगी, बीमार, अशक्त होने वाला यह शरीर मैं है? जो बचपन, यौवन और बुढ़ापे के जाने कितने रंग बदलता है। अथवा फिर वह मन है, जो विचारों और भावनाओं के ऊहापोह में पल-पल डूबता-उतराता है। अनुभवी कहते हैं कि मैं तो वह गाँठ है जो आत्मा ने प्रकृति से भ्रमवश बाँध ली है। भ्रम की इस गाँठ के कारण ही जीवन के सारे अनुभवों में भ्रम और भटकन घुल गयी है। यह गाँठ दुखती है, कसकती है, पर खुलती नहीं है। यह खुले तो तब, जब चेत हो।
जीवन के अनन्त-असीम प्रवाह पर इस मैं की गाँठ का बन्धन सम्पूर्ण जीवन प्रवाह में अनेकों विसंगतियाँ पैदा कर देता है। इससे व्यक्ति सत्य और स्वयं से टूट जाता है। मैं का बुद्बुदा सत्ता-प्रवाह से अपने को अलग समझ बैठता है। जबकि बुद्बुदे की कोई सत्ता नहीं है, उसका कोई केन्द्र नहीं है। वह सागर ही है, सागर ही उसका जीवन है। सागर से पृथक् सत्ता का बोध ही अज्ञान है। बुद्बुदे के मूल में भी तो सागर की अनन्त जलराशि ही है।
सूफी सन्तों में एक कथा कही जाती है- प्रेयसी के द्वार पर किसी ने दस्तक दी। भीतर से आवाज आयी, कौन है? जो द्वार के बाहर खड़ा था, उसने कहा, मैं हूँ। उत्तर में उसे सुनायी दिया, यह घर ‘मैं’ और ‘तू’ दो को नहीं सँभाल सकता है। और बंद द्वार बंद ही रहा। प्रेमी वन में चला गया। उसने तप किया, उपासनाएँ की, भक्ति में स्वयं को समर्पित किया। बहुत सालों बाद वह लौटा और पुनः उसने द्वार खटखटाए। दुबारा फिर वही सवाल पूछा गया- बाहर कौन है? लेकिन इस बार द्वार खुल गए, क्योंकि उसका उत्तर दूसरा था- ‘तू ही है’। यह उत्तर तू ही है, समस्त आध्यात्मिक जीवन का सार है। क्योंकि इसमें अपने क्षुद्र मैं की सर्वव्यापी परमात्मा की सत्ता में विलय की दिव्य अनुभूति है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २०१
जीवन के अनन्त-असीम प्रवाह पर इस मैं की गाँठ का बन्धन सम्पूर्ण जीवन प्रवाह में अनेकों विसंगतियाँ पैदा कर देता है। इससे व्यक्ति सत्य और स्वयं से टूट जाता है। मैं का बुद्बुदा सत्ता-प्रवाह से अपने को अलग समझ बैठता है। जबकि बुद्बुदे की कोई सत्ता नहीं है, उसका कोई केन्द्र नहीं है। वह सागर ही है, सागर ही उसका जीवन है। सागर से पृथक् सत्ता का बोध ही अज्ञान है। बुद्बुदे के मूल में भी तो सागर की अनन्त जलराशि ही है।
सूफी सन्तों में एक कथा कही जाती है- प्रेयसी के द्वार पर किसी ने दस्तक दी। भीतर से आवाज आयी, कौन है? जो द्वार के बाहर खड़ा था, उसने कहा, मैं हूँ। उत्तर में उसे सुनायी दिया, यह घर ‘मैं’ और ‘तू’ दो को नहीं सँभाल सकता है। और बंद द्वार बंद ही रहा। प्रेमी वन में चला गया। उसने तप किया, उपासनाएँ की, भक्ति में स्वयं को समर्पित किया। बहुत सालों बाद वह लौटा और पुनः उसने द्वार खटखटाए। दुबारा फिर वही सवाल पूछा गया- बाहर कौन है? लेकिन इस बार द्वार खुल गए, क्योंकि उसका उत्तर दूसरा था- ‘तू ही है’। यह उत्तर तू ही है, समस्त आध्यात्मिक जीवन का सार है। क्योंकि इसमें अपने क्षुद्र मैं की सर्वव्यापी परमात्मा की सत्ता में विलय की दिव्य अनुभूति है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २०१