बुधवार, 20 जून 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 20 June 2018


👉 आज का सद्चिंतन 20 June 2018


👉 प्रगति सद्गुणों पर निर्भर है।

🔶 मानव जीवन की प्रगति उसके सद्गुणों पर निर्भर है। जिनके गुण कर्म स्वभाव का निर्माण एवं विकास ठीक प्रकार हुआ है वे सुसंयत व्यक्तित्व वाले सज्जन मनुष्य अनेकों बाधाओं और कठिनाइयों को पार करते हुए अपनी प्रगति का रास्ता ढूँढ़ लेते हैं। विपरीत परिस्थितियों एवं बुरे स्वभाव के व्यक्तियों को भी, प्रतिकूलताओं को भी सुसंस्कृत मनुष्य अपने प्रभाव एवं व्यवहार से बदल सकता है और उन्हें अनुकूलता में परिणत कर सकता है। इसके विपरीत जिसके स्वभाव में दोष दुर्गुण भरे पड़े होंगे वह अपने दूषित दृष्टिकोण के कारण अच्छी परिस्थितियों को भी दूषित कर देगा। संयोगवश उन्हें अनुकूलता द्वारा सुविधा प्राप्त भी हो तो दुर्गुणों के आगे वह देर तक ठहर न सकेगी। दूषित दृष्टिकोण जहाँ भी होगा वहाँ नारकीय वातावरण बना रहेगा। अनेकों विपत्तियाँ वहाँ से उलझती रहेंगी।

🔷 इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें सद्गुणों की जननी आस्तिकता को धैर्य और विवेकपूर्वक अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए। ईश्वर का भय मनुष्य को नेक रास्ते पर चलाते रहने में सबसे बड़ा नियंत्रण है। राजकीय कानून या सामाजिक दंड की दुस्साहसी लोग उपेक्षा करते रहते है। अपराधों और अपराधियों का बाहुल्य, पुलिस और जेल का भय भी इन्हें कम नहीं कर पाता। पर यदि किसी को ईश्वर पर पक्का विश्वास हो, अपने चारों ओर प्रत्येक प्राणी में कण-कण में ईश्वर को समाया हुआ देखे, तो उसके लिए किसी के साथ अनुचित व्यवहार कर सकना संभव नहीं हो सकता। कर्मफल की ईश्वरीय अविचल व्यवस्था पर जिसे आस्था होगी वह अपना भविष्य अन्धकारमय बनाने के लिए कुमार्ग पर बढ़ने का साहस कैसे कर सकेगा? दूसरों को ठगने या परेशान करने का अर्थ है ईश्वर को ठगना या परेशान करना। ऐसी भूल उससे नहीं हो सकती जिसके मन में ईश्वर का विश्वास, भय और कर्मफल की अनिवार्यता का निश्चय गहराई तक जमा हुआ है।

🔶 सच्चरित्रता को आस्तिकता का पर्यायवाची शब्द माना जा सकता है। ढोंग जैसी झूठी भक्ति, जिसमें साढ़े  तेईस घंटे पाप करते रहने और आधे घंटे पूजा-पत्री करके सारे पापों से छुटकारा मिलने की प्रवंचना सिखाई जाती है, उपहासास्पद हो सकती है। इसी प्रकार देव दर्शन से सकल मनोरथ सहज ही पूरे जो जाने की मान्यता भी धृष्टता कही जा सकती है पर सच्चे अध्यात्म का सच्ची आस्तिकता का महत्व किसी भी प्रकार कम नहीं होता। ईश्वर विश्वास का आस्तिकता का प्रतिफल एक ही होना चाहिए- सन्मार्ग का अवलम्बन और कुमार्ग का त्याग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म और कर्तव्य का अनुशासन स्थापित करने के लिए ईश्वर विश्वास से बढ़कर और कोई प्रभावशाली माध्यम हो नहीं सकता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 6
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/January/v1.6

👉 Control and Refinement of Hormones – Part 2

🔶 Excessive secretion of this hormone also causes a variety of problems: the ‘engine’ –– source of energy of the body gets ‘over-charged’ and, as a result, different metabolic and biochemical reactions and physiological functions are accelerated untimely. This often gives rise to increase in pulse rate, professed perspiration, high blood pressure, excitation, hypersensitivity, mental restlessness and irritation etc.

🔷 The chemical processing of extraction of energy from the food constituents begins as soon as it reaches in the stomach.  Starch and sugar are converted into glucose. Part of this glucose goes in the blood stream and helps energize the body and maintain temperature. The remaining quantity of glucose is stored in the liver in the form of glycogen, making a stock for future energy-requirements.

🔶 In diabetic patients, the sugar level in the blood increases and the corresponding shortage of energy supplied by glucose gradually weakens the body.  This disorder in blood sugar arises due to the deficiency of insulin –– a hormone secreted by the pancreas. In healthy blood, the normal level of sugar is about one sixtieth ounce per liter.  This small amount is the fuel (source of energy) that keeps the cellular and muscular machinery warm and active.  Insulin along with another hormone adrenaline helps regulate this function.

Akhand Jyoti – June- 2003

👉 सादा जीवन उच्च विचार अन्योन्याश्रित (भाग 3)

🔶 अनावश्यक वैभव की भी ठीक ऐसी ही दुर्गति होती है। यह स्वयं तो हजार छेद बनाकर अपनी बिरादरी वालों से मिलने दौड़ता ही है, साथ ही जहाँ से भागता है वहाँ भी अनेकानेक रिसते घाव छोड़ जाता है, जो जन्म-जन्मान्तरों तक रिसते और कसकते हैं। इसलिए आदर्शों की बात सोचने वालों को सर्वप्रथम वैभव विसर्जन की तैयारी करने का परामर्श दिया जाता हैं। अन्यथा लिप्सा बनी रहने पर परमार्थ के नाम पर चित्र-विचित्र विडम्बनाएँ रचते रहने के अतिरिक्त और कुछ बन नहीं पड़ेगा। महानता और सम्पन्नता में एक प्रकार से शत्रुता है, जहाँ एक के पैर जमेंगे वहाँ दूसरे को पलायन करना पड़ेगा। तथ्य की यथार्थता एवं गम्भीरता को समझने वाले वाजिश्रवा जैसे सर्वमेध यज्ञ रचाते और अपने शरीर के कपड़े तक उतारकर परमार्थ प्रयोजन के लिए दान करते रहे हैं।

🔷 ऋषि परम्परा यही है। बुद्ध गाँधी को ही नहीं, प्रत्येक साधु और ब्राह्मण परम्परा अपनाने वालों को अपना प्रयास यही से आरम्भ करना पड़ा है। विसर्जन समर्पण बन पड़े तो ही यह आशा बँधती है कि महान के साथ एकत्व अद्वैत की स्थिति बन सके। जिस त्याग वैराग्य की शास्त्रकारों ने श्रेय मार्ग पर चलने वालों के निमित्त पग-पग पर आवश्यकता बताई है, उसमें यही रहस्य है कि जब तक तृष्णा से पिण्ड न छूटेगा तब तक श्रेष्ठता में न मन लगेगा और न तन जुटेगा। लगन कहीं लगी रहे तो फिर लकीर पीटने भर की विडम्बना ही शेष रह जाती है। उस झुनझुने से अपने आपको बहलाया फुसलाया भर जा सकता है।

🔶 परस्पर घोर मतभेद रखने वाले अध्यात्मवाद और साम्यवाद को इस केन्द्र पर सर्वथा एक मत देखा जा सकता है कि व्यक्ति को औसत नागरिक स्तर का निर्वाह क्रम अपनाने के लिए बाध्य किया जाय। अध्यात्म क्षेत्र में इसके लिए पुण्य परमार्थ का, त्याग वैराग्य का, स्वर्ग मुक्ति का दार्शनिक चक्रव्यूह रचा है। साम्यवाद ने झटके की नीति अपनाई है और आदमी की भलमनसाहत को अस्वीकार करते हुए गरदन दबोचकर जो पास पल्ले है उसे समाज की सम्पदा मानने के लिए बाधित किया है। तरीके अपने-अपने हैं। नींद की गोली खाकर मरा जाय या तलवार से गरदन कटे, मात्र तरीकों में ही भिन्नता है। आदर्शवाद की किसी भी धारा को यह स्वीकार नहीं कि मनुष्य विलासी, संग्रही, अपव्ययी बने, उद्धत विडम्बना रचे और मुफ्तखोरों के लिए उत्तराधिकार छोड़ मरे। हर दृष्टि से यह अनैतिक है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 समर्पण

🔷 एक तपस्वी किसी धर्मात्मा राजा के महल में पहुँचे। राजा गदगद हो गए और कहे, "आज मेरी इच्छा है कि आपको मुँह माँगा उपहार दूँ"। तपस्वी ने कहा, "आप ही अपने मन से सबसे अधिक प्रिय वस्तु दे दें, मैं क्या माँगूँ"।

🔶 राजा ने कहा, "अपने राज्य का समर्पण कर दूँ"। तपस्वी बोले, "वह तो प्रजाजनों का है। आप तो संरक्षक मात्र हैं"।

🔷 राजा ने बात मानी और दूसरी बात कही, "महल, सवारी आदि तो मेरे हैं, इन्हें ले लें"। तपस्वी हँस पड़े और कहा, "राजन् आप भूल जाते हैं। यह सब भी प्रजाजनों का है। आपको कार्य की सुविधा के लिए दिया गया है"।

🔶 अबकी बार राजा ने अपना शरीर दान देने का विचार व्यक्त किया। उसके उत्तर में तपस्वी ने कहा, "यह भी आपके बाल−बच्चों का है, इसे कैसे दे पाएँगे"।

🔷 राजा को असमंजस में देखकर तपस्वी ने कहा, "आप अपने मन का अहंकार दान कर दें। अहंकार ही सबसे बड़ा बंधन है"।

🔶 राजा दूसरे दिन से अनासक्त योगी की तरह रहने लगा। तपस्वी की इच्छा पूर्ण हो गई।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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