यदि जान सकें जप की कला
परम पूज्य गुरुदेव मंत्र विद्या के परम ज्ञाता थे। मंत्र विज्ञान के सूक्ष्म अन्तर-प्रत्यान्तरों के विशेषज्ञ-मर्मज्ञ थे। उनका कहना था कि मंत्र साधना के तीन आयाम हैं। पहला- मंत्र का मन ही मन अथवा अति धीमे स्वर में उच्चारण। दूसरा, इसका अर्थ अनुसन्धान। यह अर्थ अनुसन्धान, अर्थ चिन्तन से कहीं अधिक सूक्ष्म तत्त्व है। इसमें साधक क्रमिक रूप से अर्थ की गूढ़ता व रहस्यमयता में प्रवेश करता है। और उसकी अन्तर्चेतना में मंत्र के नए रहस्यार्थ प्रकट होते हैं। इसका तीसरा आयाम है- प्रगाढ़ भावना। यानि कि मंत्र के अधिदेवता के प्रति साधक के मन-अन्तःकरण में भक्ति की हिलोरे उठनी चाहिए। ये तीनों तत्त्व परस्पर गुँथे रहे, तो ही मंत्र की सार्थक साधना बन पड़ती है।
गुरुदेव मंत्र साधना की इन बारीकियों को बताते हुए नरपतगढ़ के महान् सिद्ध सन्त स्वामी कृष्णबोधानन्द के साधना प्रसंग सुनाते थे। वह कहते थे कि कृष्णबोधानन्द जी मंत्र विद्या के महान् ज्ञाता थे। उन्होंने गायत्री महामंत्र की पुरश्चरण साधनाओं के साथ अन्य मंत्रों की साधनाएँ भी सम्पन्न की थी। कई वैदिक, तांत्रिक, पौराणिक, जैन, बौद्ध एवं इस्लामिक मंत्र उन्होंने सिद्ध किए थे। मंत्रविद्या की साधना एवं अनुसन्धान उनका प्रिय कार्य क्षेत्र था। गुरुदेव के अनुसार इन महान् आत्मा का उनके साथ वर्षों का संग साथ रहा।
मंत्र साधना के बारे में ये कई प्रेरक बातें बताते थे। इन बातों में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि गायत्री महामंत्र के पाँच पुरश्चरण कर लेने पर अन्य मंत्रों की साधना में सफलता सुनिश्चित हो जाती है। जिसने भी गायत्री मंत्र की विधिपूर्वक साधना कर ली, वह किसी भी धर्म के किसी भी मंत्र की साधना कर सकता है, सिद्धि पा सकता है। कृष्णबोधानन्द जी का अपने अनुभव के आधार पर कहना था कि यदि धर्म, मजहब, जाति-देश आदि की संकीर्ण मान्यताएँ दरकिनार कर दी जाएँ और एक विज्ञानवेत्ता की भाँति निष्कर्ष प्रतिपादित किया जाय, तो यही कहना होगा कि गायत्री मंत्र विश्व भर के सभी मंत्रों का सार है।
इस सम्बन्ध में कृष्णबोधानन्द जी के अनुभव का एक अन्य निष्कर्ष भी था। वह कहा करते थे कि सन्ध्योपासना गायत्री में लय होती है और गायत्री का लय ओम् सहित व्याहृतियों (ॐ भूर्भुवः स्वः) में होता है। और अन्त में ये व्याहृतियाँ ॐ में लय हो जाती हैं। साधना करते-करते यह ॐकार साधक के सम्पूर्ण अस्तित्व में प्रकाशित हो जाता है। यही नहीं साधक का अस्तित्व भी ॐकार में विलीन हो जाता है। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति की सभी अवस्थाओं में विलीनता तुरीय अवस्था में हो जाती है।
गुरुदेव बताते थे कि विश्व भर के विभिन्न धर्मों, मतों, पंथों में बताए हुए अनगिनत मंत्रों की साधना करने वाले एवं इनकी सिद्धि पाने वाले कृष्णबोधानन्द जी अद्भुत व्यक्ति थे। जीवन के अन्तिम वर्षों में केवल ॐकार ही इनके जीवन में रह गया था। ॐकार का अर्थ चिन्तन एवं ध्यान ही इनके जीवन का पर्याय था। ये महापुरूष अपने शरीर में केवल एक टाट का टुकड़ा भर लपेटते थे। वे कहते थे कि ॐकार ही सूर्य है, यही गायत्री है, यही वेद है। मंत्र जप के प्रभाव से वृद्धावस्था में भी इनका शरीर सभी व्याधियों से मुक्त होकर एक अनोखी आभा बिखेरता था जिसे जो भी देखता, एक अलौकिक चुम्बकत्व से बँध जाता था।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ११२
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या