शनिवार, 18 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 19 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 19 March 2017


👉 विनम्रता से विगलित हुआ अहंकार

🔴 घटना १९६७ ई. की है। पूज्य गुरुदेव का दो दिवसीय कार्यक्रम कराया। कार्यक्रम गोण्डा, उत्तर प्रदेश में आयोजित किया गया था। आयोजक थे श्री रामबाबू माहेश्वरी। गोण्डा में सन्त पथिक जी महाराज को सभी जानते- मानते थे, इसलिए कार्यक्रम में उन्हें भी आमन्त्रित किया गया, यह सोच कर कि उनके रहने से लोगों की उपस्थिति अच्छी रहेगी।

🔵 पहले दिन का कार्यक्रम आरम्भ हुआ। क्षेत्रीय परिजनों की दृष्टि में श्रद्धेय पथिक ही अधिक वरिष्ठ थे। इसलिए, आरम्भ परम पूज्य गुरुदेव के उद्बोधन से हुआ। मिशन से जुड़े लोगों की संख्या वहाँ बहुत कम थी। अधिकांश लोग पथिक जी के शिष्य या प्रशंसक थे। पूज्य गुरुदेव ने गायत्री और यज्ञ पर अपना विवेचन प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया- भारतीय संस्कृति की जननी गायत्री है और जनक यज्ञ। उन्होंने विवेक, करुणा और भाव संवेदना को ऋषि परम्परा का आधार बताते हुए मानवमात्र के सर्वतोमुखी विकास के लिए इन मूल्यों को जीवन में स्थान दिए जाने की आवश्यकता पर बल दिया ।।

🔴 इसके बाद पथिक जी का उद्बोधन आरंभ हुआ। उन्होंने कहा कि अभी तक आचार्य जी ने जो कुछ भी कहा है, वह सब सनातन धर्म को, हिन्दू धर्म को भ्रष्ट करने वाला है। गायत्री मंत्र जोर से नहीं बोला जाता है। स्त्रियों को गायत्री मंत्र जपने का अधिकार नहीं है। यह शास्त्रों के प्रतिकूल है, इससे समाज भ्रष्ट हो जाएगा। पूज्य गुरुदेव मंच पर बैठे चुपचाप सुनते रहे। सभा समाप्त हुई सभी लोग पथिक जी के विचार प्रवाह में बहते हुए अपने- अपने घर की ओर चल पड़े।

🔵 पूज्य गुरुदेव ने विदा होने से पहले पथिक जी से बातचीत के लिए समय निर्धारित किया। अगले दिन सुबह निर्धारित समय पर श्री रामबाबू माहेश्वरी जी को साथ लेकर गुरुदेव पथिक जी से मिलने उनके निवास पर गए। पू. गुरुदेव के कहने पर माहेश्वरी जी ने वेदों- पुराणों के कुछ खण्ड अपने साथ रख लिए थे।

🔴 पथिक जी ने पू. गुरुदेव से अपने आसन पर ही बैठने का आग्रह किया, पर गुरुदेव ने विनम्रतापूर्वक मना करते हुए कहा कि आप विरक्त हैं। मैं गृहस्थ हूँ। बराबर कैसे बैठ सकता हूँ? पूज्य गुरुदेव ने बातचीत शुरू करते हुए कहा- सनातन धर्म को भ्रष्ट करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। हमारे पूर्वजों- ऋषियों ने जो कुछ अपने शास्त्रों, वेदों- पुराणों में कहा है, मैं वही कह रहा हूँ, एक शब्द भी मैंने अलग से नहीं कहा है।

🔵 पू. गुरुदेव वेद के मण्डल- सूक्त संख्या, पुराणों के अध्याय धारा प्रवाह बोलते रहे और माहेश्वरी जी उसी क्रम में सब कुछ वेदों- पुराणों के पन्ने पलट कर दिखाते चले गये। अन्त में श्रद्धेय पथिक जी ने पश्चात्ताप भरे स्वर में कहा- अज्ञानता में मुझसे बड़ा भारी अपराध हुआ है। मैंने तो कल संतों से सुनी- सुनाई बातें कही थीं। मैंने शास्त्र- पुराण पढ़े ही नहीं हैं। विद्वज्जनों के शास्त्रीय विवेचन से भी मेरा वास्ता नहीं के बराबर रहा है। आपकी बातों से मुझे इसका ज्ञान हुआ है कि अब तक सामाजिक रुढ़ियों को ही मैं शास्त्र सम्मत मानता रहा। आपने अपनी बातों की पुष्टि में जिस प्रकार वेद की ऋचाओं को प्रस्तुत किया है, उसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि आप तो वेदमूर्ति हैं।  

🔴 अगले दिन के प्रवचन में पहले दिन से काफी अधिक संख्या में लोग आए। उस दिन पथिक जी ने सभा आरम्भ होते ही आगे बढ़कर माइक पकड़ लिया और कहने लगे- पहले मैं बोलूँगा।

🔵 पथिक जी के इस प्रस्ताव का स्वागत लोगों ने करतल ध्वनि से किया। पथिक जी कहने लगे- कल जो कुछ मैंने कहा था, वह सब सच नहीं है। मैंने तो संतों से सुनी- सुनाई बातें ही कही थीं। आचार्यश्री ने जो भी कहा है वह सब अक्षरशः शास्त्र- सम्मत है और सभी के  लिए कल्याणकारी है।

🔴 इस तरह बिना विवाद- शास्त्रार्थ किए विनम्रता के अमोघ अस्त्र से पूज्य गुरुदेव ने पथिक जी का हृदय जीत लिया।

🌹 भारत प्रसाद शुक्ला बहराइच (उ.प्र.) 
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/ego.1

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 24)

🌹 आगे बढ़ें और लक्ष्य तक पहुँचें     
🔴 सत्संग से उत्थान और कुसंग से पतन की पृष्ठभूमि बनती है। यह और कुछ नहीं किसी समर्थ की प्रतिभा का भले-बुरे स्तर का स्थानान्तरण ही है। मानवीय विद्युत के अनेकानेक चमत्कारों की विवेचना करते हुए यह भी कहा जा सकता है कि यह प्रतिभा नाम से जानी जाने वाली प्राण-विद्युत ही अपने क्षेत्र में अपने ढंग से अपना काम कर रही है। जिसमें इसका अभाव होता है, उसे कायर, अकर्मण्य, डरपोक, आलसी एवं आत्महीनता की ग्रन्थियों से ग्रसित माना जाता है। संकोची, परावलम्बी एवं मन ही मन घुटते रहने वाले प्राय: इसी विशिष्टता से रहित पाए जाते हैं।                        

🔵 सोचना, चाहना, कल्पना करना और इच्छा-आकांक्षाओं का लबादा ओढ़े फिरने वालों में से कितने ही ऐसे भी होते हैं, जो आकांक्षा-अभिलाषा तो बड़ी-बड़ी सँजोए रहते हैं; पर उसके लिए जिस लगन, दृढ़ता, सङ्कल्प एवं अनवरत प्रयत्न-परायणता की आवश्यकता रहती है, उसे वह जुटा ही नहीं पाते। फलत: वे मन मारकर बैठे रहने और असफलताजन्य निराशा ही हाथ लगने तथा भाग्य को दोष देते रहने के अतिरिक्त मन को समझाने के लिए और कोई विकल्प खोज या अपना नहीं पाते।

🔴 पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है, यह प्रतिपादन सही हो या गलत, पर इस मान्यता में सन्देह करने की गुंजायश नहीं, कि प्रतिभा को आत्मसात करने के उपरान्त सामान्य परिस्थितियों में जन्मा और पला मनुष्य भी परिस्थितिजन्य अवरोधों को नकारता हुआ प्रगति के पथ पर अग्रगामी और ऊर्ध्वगामी बनता चला जाता है। फूल खिलते हैं, तो उसके इर्द-गिर्द मधुमक्खियाँ और तितलियाँ कहीं से भी आकर उसकी शोभा बढ़ाने लगती हैं, भौंरे उसका यशगान करने में न चूकते हैं, न सकुचाते; देवता फूल बरसाते और ईश्वर उसकी सहायता करने में कोताही नहीं करते।          
   
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सहकारिता ने गवर्नर बनाया

🔴 आगे पढ़ने की बहुत इच्छा थी पर करते क्या पास में तो गुजारे का भी प्रबध नहीं था। युवक ने सोचा बाहर चलना चाहिए, आजीविका और पढा़ई के खर्च का प्रबंध आप करके पढ़ना अवश्य है। ऐसा निश्चय करके उसने अभिभावकों से २० रुपये और किराए का प्रबध करा लिया और बंबई चला आया।

🔵 उन दिनों बंबई इतनी महँगी नहीं थी जितनी आज है। पाँच रुपये मासिक पर मकान किराए में मिल जाता था। पर जिसके पास आदि से अंत तक २० रुपये ही थे, उसके लिये पाँच ही पहाड के बराबर थे। अब क्या किया जाए ? यदि ५ रुपये मासिक किराए का कमरा लेता हूँ तो २० रुपये कुल ४ महीने के किराए भर के लिए है ? इस विचार-चिंतन के बीच युवक को एक उपाय सूझा सहयोग और सहकारिता का जीवन।

🔴 एक सीक बुहारी नहीं कर सकती, अकेला व्यक्ति सेना नहीं खडा़ कर सकता। एक लडके के लिए स्कूल खुले तो संसार की अधिकांश धनराशि पढाई मे ही चली जाए। इसी प्रकार की दिक्कतों से बचने के लिए सहकारिता एक देवता है जिसमें छोटी-छोटी शक्तियाँ एक करके अनेक लोग महत्त्वपूर्ण साधन सुविधाएं जुटा लेते हैं छोटी शक्तियां मिलकर बडे लाभ अर्जित कर ले जाती हैं। जिस समाज, जिन देशों में सहयोग और सहकरिता का भाव जितना अधिक होगा वह देश उतना सुखी, सशक्त और समुन्नत होगा।

🔵 यह उदाहरण युवक का प्रकाश बन गया। उसने अपनी तरह के ४ और निर्धन विद्यार्थी खोज लिए और एक कमरा ५ रुपए मासिक पर किराये में ले लिया। प्रत्येक लडके को अब १ रुपए मासिक देना होगा। इस तरह जो २० रुपये केवल ५ माह के किराए भर के लिए पर्याप्त होते। युवक की सूझ-बूझ ने यह सिद्ध कर दिया कि यदि उन्हें किराए में ही खर्च किया जाता तो ५ गुना अधिक समय अर्थात् २० महीने के लिये पर्याप्त होते।

🔴 फिर सामने आइ भोजन की समस्या यदि अकेले ही भोजन पकाते, २० रुपये एक ही महीने के लिए होते। लकडी, कोयले, बर्तन एक व्यक्ति के लिए भी उतने ही चाहिए जितने में ५ व्यक्ति आराम से खाना बनाकर खा लेते। व्यक्तिवाद  सामूहिकता से हर दृष्टि से पीछे है। सामूहिक परिवार आर्थिक और भावनात्मक दृष्टि से भी लामदायक है। उन्होंने इस वैज्ञानिक लाभ के कारण को प्रतिष्ठपित किया।

🔵 युवक ने इस समस्या का हल भी ऐसे ही निकाला। एक ढा़बा ढूढ़ लिया, जिसमें कई लोगों का खाना एक साथ पकता था। यह भी उसमे सम्मिलित हो गये, मासिक खर्च कुल ५ रुपया आया। जो पैसे १ महीने के खाना देने भर के लिए थे अब उनसे कम से कम ४ माह की निश्चितता हो गई।

🔴 अब रही बात पढ़ने की सो वह एक स्कूल में भरती हो गया। किताबों का खर्च था उसे भी सामूहिकता के स्वरूप पीटिट नामक पुस्तकालय ने कर दिया। अनेक लोगों के सहयोग और चंदे से बना पुस्तकालय न होता तो उससे इस युवक की तरह सैकडो हजारों लोगों की ज्ञानार्जन की पिपासाऐं अतृप्त ही रह गइ होती। एक रुपये की सदस्यता से पढी़ इस स्कोल की पुस्तके काम देती गई। आप विश्वास न करेंगे उसने इसी तरह एडवोकेट बनने तक की शिक्षा पाई। इस बीच वह कई स्थानों पर लिखने का काम करता रहा, जिससे वह कपड़े-लत्ते शाक-भाजी का खर्च निकालता रहा। इस युवक का नाम था कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (के० एम० मुंशी) जो एक समय उत्तर प्रदेश के गवर्नर पद तक पहुँचे और जो देश के माने हुए साहित्यकार एवं राजनैतिक नेता थे।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 89, 90

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 40)

🌹 श्रेष्ठ व्यक्तित्व के आधार सद्विचार

🔴 कोई मनुष्य कितना ही अच्छा तथा भला क्यों न हो यदि हमारे विचार उसके प्रति दूषित हैं, विरोधी अथवा शत्रुता पूर्ण हैं तो वह जल्दी ही हमारा विरोधी बन जायेगा। विचारों की प्रतिक्रिया विचारों पर होना स्वाभाविक है। इसको किसी प्रकार भी वर्जित नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं यदि हमारे विचार स्वयं अपने प्रति ओछे तथा हीन हो जायें, हम अपने को अभागा एवं अक्षम चिन्तन करने लगें तो कुछ ही समय में हमारे सारे गुण नष्ट हो जायेंगे और हम वास्तव में दीन-हीन और मलीन बन जायेंगे हमारा व्यक्तित्व प्रभावहीन हो जायेगा जो समाज में व्यक्त हुए बिना बच नहीं सकता।

🔵 जो आदमी अपने प्रति उच्च तथा उदात्त विचार रखता है, अपने व्यक्तित्व का मूल्य कम नहीं आंकता, उसका मानसिक विकास सहज ही हो जाता है। उसका आत्मविश्वास आत्म-निर्भरता और आत्म-गौरव जाग उठता है। इसी गुण के कारण बहुत से लोग जो बचपन से लेकर यौवन तक दब्बू रहते हैं, आगे चलकर बड़े प्रभावशाली बन जाते हैं। जिस दिन से आप किसी दब्बू, डरपोक तथा साहसहीन व्यक्ति को उठकर खड़े होते और आगे बढ़ते देखें, समझ लीजिए कि उस दिन से उसकी विचारधारा बदल गई और अब उसकी प्रगति कोई रोक नहीं सकता।

🔴 विचारों के अनुसार ही मनुष्य का जीवन बनता-बिगड़ता रहता है। बहुत बार देखा जाता है कि अनेक लोग बहुत समय तक लोक प्रिय रहने के बाद बहिष्कृत हो जाया करते हैं पहले तो उन्नति करते रहते हैं, फिर बाद में उनका पतन हो जाता है। इसका मुख्य कारण यही होता है कि जिस समय व्यक्ति की विचार-धरा शुद्ध, स्वच्छ तथा जनोपयोगी बनी रहती है और उसके कार्यों की प्रेरणा स्रोत बनी रहती है, वह लोकप्रिय बना रहता है। किन्तु जब उसकी विचार-धारा स्वार्थ, कपट अथवा छल के भावों से दूषित हो जाती है तो उसका पतन हो जाता है।

🔵 अच्छा माल देखकर और उचित मूल्य लेकर जो व्यवसायी अपनी नीति, ईमानदारी और सहयोग को दृढ़ रखते हैं, वे शीघ्र ही जनता का विश्वास जीत लेते हैं, और उन्नति करते जाते हैं। पर ज्यों ही उसकी विचार धारा में गैर-ईमानदारी, शोषण और अनुचित लाभ के दोषों का समावेश हुआ नहीं कि उसका व्यापार ठप्प होने लगता है। इसी अच्छी बुरी विचार-धारा के आधार पर न जाने कितनी फर्मे और कम्पनियां नित्य ही उठती गिरती रहती हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 18)

🌹 उदारता जन्मदात्री है प्रामाणिकता की   
🔵 दूसरा सद्गुण जो इतना ही आवश्यक है, वह है-उदारता जिसके अंतराल में करुणा, ममता, सेवा-सहायता की कोमलता है, वही दूसरों को भी निष्ठुरता से विरत कर सकता है, करुणाकर बना सकता है। ईश्वर की अनुकंपा उन्हें मिलती है, जो दूसरों पर अनुकंपा करने में रुचि रखते हैं। निष्ठुरों की कठोरता और संकीर्ण स्वार्थपरता देखकर पड़ोसियों से लेकर भगवान् तक की अनुकंपा वापस लौट जाती है। असुरों की निष्ठुरता और अनैतिकता प्रसिद्ध है, इसलिये उनका अंत भी अन्यत्र से दौड़ पड़ने वाली निष्ठुरता के द्वारा ही होता है। असुरों के वध की कथाएँ प्राय: इसी तथ्य से सनी हुई मिलती हैं।       

🔴 पूजा-पाठ का उद्देश्य आत्म-परिष्कार और सत्प्रवृत्ति-संवर्धन की उदारता जगाना भर है। यदि भाव-कृत्यों से ये दोनों उद्देश्य सध रहे हों तो समझना चाहिये कि उनका समुचित लाभ मिलेगा किंतु यदि क्रिया मात्र चल रही हो और सद्भावनाओं के विकास-परिष्कार पर उनका कोई प्रभाव न पड़ रहा हो तो समझना चाहिये कि क्रियाकलापों की लकीर भर पीटी जा रही है और उसके सहारे आत्म-प्रवंचना जैसी ही कुछ विडंबना बन पड़ेगी। इन दिनों प्राय: ऐसा ही खेल-खिलवाड़ चलता रहा है और लोग देवी-देवताओं की हजामत बनाने के लिये चित्र-विचित्र स्वांग रचते और बड़ी मनोकामनाओं की पूर्ति की प्रतीक्षा करते रहे हैं।       

🔵 देवता उतने मूर्ख हैं नहीं, जितने कि समझे जाते हैं। हेय स्तर का व्यक्ति ही छोटे-मोटे उपहारों या कथन-श्रवणों से भरमाया जा सकता है, पर देवता तो वास्तविकता परखने में प्रवीण होते हैं; साथ ही इतने दरिद्र भी नहीं हैं कि छोटे-छोटे उपहारों के लिये आँखें मूँदकर दौड़ पड़ें; जो माँगा गया है उसे मुफ्त में ही बाँटते-बखेरते रहें। यही कारण है कि मनौती मनाने के लिये पूजा-पत्री का सरंजाम जुटाने वालों में से अधिकांश को निराश रहना पड़ता है। आरंभ में जो लॉटरी खुलने जैसा उत्साह होता है, वह परीक्षा की कसौटी पर कसे जाने पर निरर्थक ही सिद्ध होता है। आस्तिकता के प्रति उपेक्षा-आशंका का भाव बढ़ते जाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि लोग कम कीमत में बहुमूल्य वस्तुएँ पाने की आशा लगाने लगते हैं और जब वह विसंगति गलत सिद्ध होती है तो कभी साधना को, कभी देवता को और कभी अपने भाग्य को दोष देते हुए भविष्य के लिये एक प्रकार से अनास्थावान् ही बन जाते हैं।
   
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 22)

🌹 प्रगति के कदम-प्रतिज्ञाएँ

🔴 दूसरों में गलतियाँ हैं। ये कौन नहीं कहता? लेकिन दूसरों की गलतियों को प्रेम से सुधारा जाना चाहिए ,  उनको बताया जाना चाहिए, उसको संतुलित होकर के ठीक किया जाना चाहिए। नहीं होता, तो बिलकुल दिल में नहीं रखना चाहिए, आवेश में नहीं आना चाहिए। बात- बात में गुस्से की क्या बात है? काम, क्रोध, लोभ और केवल एक कुटुम्ब से, एक घर से, एक शरीर से अपनापन जोड़ लेना, इसको मोह कहते हैं।       

🔵 आदमी एक शरीर से क्यों जुड़ा हुआ रहे? सभी शरीरों में अपनी आत्मा को समाया हुआ क्यों नहीं देखे। सारे समाज को एक कुटुम्ब क्यों नहीं माने? चंद आदमियों को ही कुटुम्ब क्यों माने? इस तरीके से ये संकीर्णता की भावना को मोह कहते हैं और ये काम, क्रोध, लोभ और मोह मानसिक विकार हैं और ये मानसिक पाप कहे जाते हैं। इससे आदमी को अपने आपको उठाना चाहिए।  

🔴 हराम की कमाई खाना भी एक बहुत बड़ा पाप है। बिना परिश्रम किये आप क्यों खायें? आपने मजदूरी करने के लिए प्रतिज्ञा की है, पूरी मजदूरी क्यों नहीं करें? पूरी मजदूरी का अर्थ है- पसीने की कमाई खानी चाहिए और हराम का पैसा नहीं ही खाना चाहिए। आज कल जुआ खेलने का रिवाज, सट्टा खेलने का रिवाज, लॉटरी लगाने का रिवाज बहुत बुरी तरह से बढ़ रहा है और बाप- दादों की हराम की कमाई उत्तराधिकार में खाने का रिवाज भी बुरी तरह से बढ़ रहा है। इन बुरे रिवाजों को बंद करना चाहिए। आदमी को सिर्फ अपनी मेहनत- मशक्कत की कमाई खानी चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 80)

🌹 हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ

🔴 परमात्मा कितना महान उदार और दिव्य हो सकता है, इसका परिचय उसकी प्रतिकृति उन आत्माओं में देखी जा सकती है जिन्होंने श्रेय पथ का अवलम्बन किया और काँटों को तलवों से रौंदते हुए लक्ष्य की ओर शान्ति, श्रद्धा एवं हिम्मत के साथ बढ़ते चले गये। मनुष्य को गौरवान्वित करने में इन महामानवों का अस्तित्व ही इस जगती को इस योग्य बनाये हुए है कि भगवान बार- बार नर तन धारण करके अवतार लेने के लिए ललचायें। आदर्शों की दुनियाँ में विचरण करने वाले और उत्कृष्टता की गतिविधियों को अवलम्बन बनाने वाले महामानव बहिरंग में अभाग्रस्त दीखते हुए भी अन्तरंग में कितने समृद्ध और सुखी रहते हैं- यह देखकर अपना चित्त भी पुलकित होने लगा।        

🔵 उसकी शान्ति अपने अन्त:करण को छूने लगी। महाभारत की वह कथा अक्सर याद आती रही, जिसमें पुण्यात्मा युधिष्ठिर के कुछ समय तक नरक में जाने पर वहाँ रहने वाले प्राणी आनन्द में विभोर हो गये थे। लगता था- जिन पुण्यात्माओं की स्मृति मात्र से अपने को इतना सन्तोष और प्रकाश मिलता है तो वे जाने कितनी दिव्य अनुभूतियों का अनुभव करते होंगे।

🔴 इस कुरूप दुनियाँ में जो कुछ सौन्दर्य है वह इन पुण्यात्माओं का ही अनुदान है। असीम स्थिरता से निरन्तर प्रेत- पिशाचों जैसा हाहाकारी नृत्य करने वाले अणु- परमाणुओं से बनी- भरी इस दुनियाँ में जो स्थिरता और शक्ति है वह इन पुण्यात्माओं के द्वारा ही उत्पन्न की गई है। सर्वत्र भरे बिखरे जड़- पंचतत्त्वों में सरसता और शोभा दीखती है, उसके पीछे इन सत्पथ गामियों का प्रयत्न और पुरूषार्थ ही झाँक रहा है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 79)

🌹 महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई

🔴 उचित होगा कि आगे का प्रसंग प्रारम्भ करने के पूर्व हम अपनी जीवन साधना के, स्वयं की आत्मिक प्रगति से जुड़े तीन महत्त्वपूर्ण चरणों की व्याख्या कर दें। हमारी सफल जीवन यात्रा का यही केन्द्र बिन्दु रहा है। आत्मगाथा पढ़ने वालों को इस मार्ग पर चलने की इच्छा जागे, प्रेरणा मिले तो वे उस तत्त्वदर्शन को हृदयंगम करें, जो हमने जीवन में उतारा है। अलौकिक रहस्य प्रसंग पढ़ने-सुनने में अच्छे लग सकते हैं, पर रहते वे व्यक्ति विशेष तक ही सीमित हैं।

🔵 उनसे ‘‘हिप्नोटाइज’’ होकर कोई उसी कर्मकाण्ड की पुनरावृत्ति कर हिमालय जाना चाहे, तो उसे कुछ हाथ न लगेगा। सबसे प्रमुख पाठ जो इस काया रूपी चोले में रहकर हमारी आत्म-सत्ता ने सीखा है, वह है सच्ची उपासना, सही जीवन साधना एवं समष्टि की आराधना। यही वह मार्ग है जो व्यक्ति को नर मानव से देवमानव, ऋषि, देवदूत स्तर तक पहुँचाता है।

🔴 जीवन धारणा के लिए अन्न, वस्त्र और निवास की आवश्यकता पड़ती है। साहित्य सृजन के लिए कलम, स्याही और कागज चाहिए। फसल उगाने के लिए बीज और खाद-पानी का प्रबन्ध करना है। यही तीनों ही अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है। उनमें एक की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। आत्मिक प्रगति के लिए उपासना, साधना और आराधना इन तीनों के समान समन्वय की आवश्यकता पड़ती है। इनमें से किसी अकेले के सहारे लक्ष्य तक नहीं पहुँचा जा सकता। कोई एक भी नहीं है, जिसे छोड़ा जा सके।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...