बुधवार, 29 मार्च 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 29 March 2023

◆ असफलताओं का दोष भाग्य, भगवान्, ग्रह दशा अथवा संबंधित लोगों को देकर मात्र मन को बहलाने की आत्म-प्रवंचना की जा सकती है, उसमें तथ्य तनिक भी नहीं है। संसार के प्रायः सभी सफल मनुष्य अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़े हैं। उन्होंने कठोर श्रम और तन्मय-मनोयोग का महत्त्व समझा है। यही दो विशेषताएँ जादू की छड़ी जैसा काम करती हैं और घोर अभाव की-घोर विपन्नताओं की परिस्थितियों के बीच भी प्रगति का रास्ता बनाती हैं।

◆ विपत्ति को टालने अथवा हलका करने का सबसे सस्ता और सबसे हलका नुसखा यह है कि कठिनाई को हलकी माना जाय और उसके हल हो जाने पर विश्वास रखा जाय। सही एवं भरपूर प्रयत्न करना ऐसी ही मनःस्थिति में संभव हो सकता है। जबकि लड़खड़ाता हुआ चिंतन तो और भी अधिक गहरे दलदल में फँसा देता है। उज्ज्वल भविष्य की आशा छोड़ दी जाय तो फिर चारों ओर अंधकार  ही अंधकार दिखाई देगा और हलकी सी कठिनाई को पार करना भी पहाड़ उठाने जैसा भारी मालूम पड़ेगा।

◆ साहस सदा बाजी मारता है। अंदर का शौर्य बाह्य जीवन में पराक्रम और पुरुषार्थ बनकर प्रकट होता है। कठिनाइयों के साथ दो-दो हाथ करने की खिलाड़ी जैसी उमंग मनुष्य को खतरा उठाने और अपनी विशिष्टता प्रकट करने के लिए प्रेरित करती है। साहसी लोग बड़े-बड़े काम कर गुजरते हैं। बड़े कदम उठाने में पहल तो उन्हें ही करनी पड़ती है, पर पीछे कहीं न कहीं से सहयोग भी मिलता है और साधन भी जुटते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्म निर्माण की ओर (भाग 1)

छोटी छोटी साधारण बातें बड़ी महत्वपूर्ण होती हैं-उनमें तत्वज्ञान और बड़े बड़े सत्य सिद्धान्त मिलते हैं। तुममें जितना ज्ञान है उसका उपयोग करते रहो जिससे वह नित्य नवीन बना चमकता रहेगा। केवल पुस्तकें पढ़ कर संसार की व्यावहारिक प्रथाओं में डूब जाने से ज्ञान होने से क्या लाभ जबकि अज्ञानियों के समान ही आचरण किया जाय। ज्ञानियों ने प्रथाओं की व्यवस्था मूर्खों के निर्देश के लिए ही हैं, ज्ञानी तो स्वतंत्र है और ज्ञान द्वारा विवेकबुद्धि से आचरण करने में समर्थ है यद्यपि मूर्ख लोग प्रथाबद्ध होकर ज्ञानी को धिक्कारते हैं कि उल्टा आचरण करते हो ? ज्ञानी जानता है कि तत्व सत्य क्या है अतः वह मुक्त है। अज्ञानी अभाव के कारण प्रथाओं और परम्परा को ही सत्य मान उसमें लिप्त बद्ध है। उसमें बुद्धि नहीं कि स्वतंत्र रूप से प्रथा और परम्परा से बाहर निकल कर कुछ सोच सके और कर सके। यदि तुम ज्ञानी होकर भी मूर्खों के बीच तथा और परम्परा के अनुसार आचरण करो तो तुममें और मूर्खों में क्या अन्तर रहा ?

अपने ज्ञान को स्वाध्याय और छोटे छोटे व्यवहार द्वारा नित्य परिमार्जित करते रहो। यदि कहीं ज्ञान चर्चा होती हो और उसके कुछ शब्द सुनकर तुम्हें मालूम पड़े तो यह कहकर वहाँ से मत खिसक जाओ कि यह सब तो मैंने पढ़ लिया है मैं जानता हूँ। संभव है उसके अन्दर कोई नवीन बात निकल आवे जो तुम्हारे लिए उपयोगी हो, तुम्हारे जीवन में महान् परिवर्तन उपस्थित कर दे।

अपनी बात चीत में सदैव सतर्क रहो। किसी के विषय में आलोचना या निन्दा मत करो और अपने विषय में किसी प्रकार की हीनता मत प्रकट करो। संसार में सभी प्राणी-परमात्मा की कला द्वारा रचित उसकी प्रतिमूर्ति हैं दिव्य हैं, तुम भी उसकी प्रतिमूर्ति और दिव्य हो। आवश्यकता है केवल आत्म विकास की, जिससे तुम दूसरों का और अपना सत्य स्वरूप समझ सको।

रात को सोते समय अन्वेषण करो कि दिन भर की बातचीत में तुमने किसी से कैसी कैसी बातें की। निश्चय करो कि अगले दिन बातचीत में कोई असत्य, हीन बात न निकले। तुम्हारे शब्द ठोस, रचनात्मक, दिव्य, प्रसन्न और चेतन हों जिससे दूसरों पर ऐसा प्रभाव पड़े जैसे एक चुम्बक दूसरे लोहे को खींचता है, और बिजली द्वारा मुर्दा ‘बैटरी चार्ज’ हो जाती है। ऐसा ही तुम्हारे शब्दों का प्रभाव हो कि सुनने वाला निराश निरुत्साही व्यक्ति चेतन हो जाय और असत्य भाषी का दिल हिल जाय और दुबारा असत्य बोलने का साहस न रह जाय।

यदि तुम्हें इस प्रकार प्रयत्न करने में प्रथम दिन सफलता न मिले तो हताश होकर छोड़ मत दो, प्रयत्न करते रहो। बहाना मत करो कि इतनी बारीकी से व्यवहार हमसे नहीं होता, कहाँ तक किस किसके साथ हरेक शब्द का खयाल रखें। एक एक व्यक्ति के सुधार से दुनिया धीरे धीरे सुधर जायगी, जल्दी नहीं होता। संसार का विकास क्रम सूक्ष्म गति से हो रहा है।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति -अगस्त 1948 पृष्ठ 23

http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1948/August.23

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