“गिरे हुओं को उठाना, पिछड़े हुओं को आगे बढ़ाना, भूले को राह बताना और जो अशान्त हो रहा है, उसे शान्तिदायक स्थान पर पहुँचा देना। यह वस्तुतः ईश्वर की सेवा ही है। जब हम दुःख और दरिद्र को देखकर व्यथित होते हैं और मलीनता को स्वच्छता में बदलने के लिए बढ़ते हैं तो समझना चाहिए यह कृत्य ईश्वर के लिए- उसकी प्रसन्नता के लिए ही किये जा रहे हैं। दूसरों की सेवा सहायता अपनी ही सेवा सहायता है।”
“प्रार्थना उसी की सार्थक है जो आत्मा को परमात्मा में घुला देने के लिए व्याकुलता लिए हुए हो। जो अपने को परमात्मा जैसा महान बनाने के लिए तड़पता है- जो प्रभु को जीवन के कण-कण में घुला लेने के लिए बेचैन है। जो उसी का होकर जीना चाहता है उसी को भक्त कहना चाहिए। दूसरे तो विदूषक हैं। लेने के लिए किया हुआ भजन वस्तुतः प्रभु प्रेम का निर्मम उपहास है। भक्ति में तो आत्म समर्पण के अतिरिक्त और कुछ होता ही नहीं। वहाँ देने की ही बात सूझती है लेने की इच्छा ही कहाँ रहती है?”
“ईश्वर का विश्वास, सत्कर्मों की कसौटी पर ही परखा जा सकता है। जो भगवान पर भरोसा करेगा वह उसके विधान और निर्देश को भी अंगीकार करेगा भक्ति और अवज्ञा का ताल-मेल बैठता कहाँ है?”
“हम अपने आपको प्यार करें ताकि ईश्वर से प्यार कर सकने योग्य बन सकें। हम अपने कर्त्तव्यों का पालन करें ताकि ईश्वर के निकट बैठ सकने की पात्रता प्राप्त कर सकें। जिसने अपने अन्तःकरण को प्यार से ओत-प्रोत कर लिया, जिसके चिन्तन और कर्तृत्व में प्यार बिखरा पड़ा है ईश्वर का प्यार केवल उसी को मिलेगा, जो दीपक की तरह जलकर प्रकाश उत्पन्न करने को तैयार है, प्रभु की ज्योति का अवतरण उसी पर होगा।”
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1986 फरवरी पृष्ठ 2
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