बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 16 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 16 Feb 2017


👉 इसी बुड्ढे ने बचाई थी मेरी जान

🔴 सन् १९८८ ई. की बात है। गायत्री शक्तिपीठ, बलसाड़ की एक विशेष गोष्ठी में गायत्री महामंत्र की असीम शक्तियों पर परिचर्चा हो रही थी। धीरे- धीरे परिचर्चा का विषय इस युग के अन्यतम गायत्री साधक पं. श्रीराम शर्मा ‘आचार्य’ की अलौकिक क्षमताओं की ओर मुड़ने लगा। कई परिजनों ने सूक्ष्म रूप से पूज्य गुरुदेव द्वारा जीवन- रक्षा किए जाने के विस्मयकारी प्रसंगों की झड़ी लगा दी। इन चर्चाओं से सभी इस नतीजे पर पहुँचे कि ऐसे अद्भुत कार्यों का सम्पादन या तो ईश्वर कर सकते हैं या ईश्वर के अवतार।

🔵 इन चर्चाओं से अभिभूत होकर कई वृद्ध परिजनों ने एक स्वर में कहा- काश! हम अभागे लोग भी अवतार पुरुष के दर्शन कर पाते। वृद्ध परिजनों की मार्मिक पीड़ा देखकर कुछ युवकों ने इन्हें हरिद्वार ले जाने का बीड़ा उठाया।

🔴 अगले दिन उन युवकों ने हरिद्वार की यात्रा की योजना पर विचार- विमर्श शुरू किया। गुरु दर्शन के लिए जाने की ललक से भरे ग्रामीणों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी। ६०० से अधिक लोगों की सूची तैयार हो चुकी थी। इतनी बड़ी संख्या को देखकर आयोजक युवकों ने एक पूरी ट्रेन बुक कराने का निर्णय लिया।
  
🔵 बलसाड़ स्टेशन से स्पेशल ट्रेन से यात्रा शुरू हुई। रेलगाड़ी के सभी डिब्बों का वातावरण गायत्रीमय हो गया था। किसी डिब्बे में गायत्री महामंत्र का सामूहिक जप, किसी में वरिष्ठ परिजनों का उद्बोधन, किसी में पूज्य गुरुदेव तथा वन्दनीया माता जी के  प्रेम- निर्झर की चर्चाएँ, तो किसी में युग संगीत का गायन- वादन। सभी हर्षोल्लास में डूबे यात्रा करते रहे।

🔴 दूसरे दिन, रात के १०:०० बजे ट्रेन दिल्ली पहुँची। आधे घंटे बाद हरिद्वार के लिए रवाना हुई। ट्रेन अभी आउटर सिग्नल को क्रास कर ही रही थी कि बीच के एक डिब्बे से अति वृद्ध महिला, जो खुले दरवाजे के पास बैठी थीं, ट्रेन के तेज झटके से संतुलन खोकर, नीचे गिर पड़ीं। महिला के नीचे गिरते ही पूरे ट्रेन में कोहराम मच गया- बाई गिर पड़ी...... बाई गिर पड़ी। शोर- शराबे और अफरा- तफरी के बीच एक युवक ने चेन पुलिंग की। ट्रेन रुक गई।

🔵 बहुत सारे परिजन टार्च लेकर उतरे और बाई क को खोजते हुए विपरीत दिशा में बढ़ने लगे। ये लोग कुछ ही दूर बढ़े थे कि दिल्ली की तरफ से दूसरी ट्रेन आती हुई दिखी। दिल्ली से तो वैसे भी बहुत सारी रेल गाड़ियाँ अलग- अलग जगहों के लिए चलती ही रहती हैं। सबको यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ग्रीन सिग्नल होने के बावजूद ट्रेन की रफ्तार कम होती जा रही है। धीरे- धीरे वह दूसरी ट्रेन उस ट्रेन के सामने आकर रुक गई जो इन लोगों को लेकर हरिद्वार जा रही थी।

🔴 जिस डिब्बे से बूढ़ी औरत गिरी थी, ठीक उसी डिब्बे के सामने वाले डिब्बे से कुछ लोगों ने ऊँची आवाज में कहा- इस ट्रेन से अभी थोड़ी देर पहले एक बाई गिर पड़ी थी। उसे हम सुरक्षित साथ ले आये हैं। इसके साथ के लोग यदि इस डिब्बे में हों, तो आकर इसे ले जाएँ। सामने के डिब्बे से बहुत सारी औरतें नीचे उतर आईं। उधर बाई को खोजने के लिए निकल पड़े लोग भी वापस लौटकर डिब्बे के पास आ चुके थे। सभी ने जोर से कहा- हाँ..हाँ। हम लोगों ने इसी बाई की खोज करने के लिए ट्रेन रुकवाई थी और दिल्ली की ओर जाने लगे थे। बाई को दूसरी ट्रेन से नीचे उतारकर वापस आरक्षित ट्रेन में बिठाया गया। बाई एकदम ठीक- ठाक दिख रही थी। फिर भी कई लोगों ने जिज्ञासावश पूछा- क्या हुआ था, कैसे गिरी, कहीं चोट तो नहीं लगी? बाई ने कहा- मैं बिल्कुल ठीक हूँ, कुछ नहीं हुआ है, अचानक गिर पड़ी थी। एक बूढ़े ने मुझे गिरने से पहले ही अपने हाथों में उठा लिया और ले जाकर आराम से उस ट्रेन में बिठा दिया।

🔵 ट्रेन का वातावरण एक बार फिर गायत्रीमय हो चुका था। लोग पहले की तरह गायन- वादन में तल्लीन हो गए। सुबह होते- होते ट्रेन हरिद्वार पहुँची। हरिद्वार से शांतिकुंज पहुँचने पर सभी नहा- धोकर गुरुदेव के दर्शन के लिए गए। साथ में वह बूढ़ी महिला भी थी। उसकी नजर जैसे ही गुरुदेव पर पड़ी, वह जोर से चिल्ला उठी- यही है.....यही वह बुड्ढा है, जिसने मेरी जान बचायी है। जब मैं ट्रेन से नीचे गिरी थी, तो इसी ने मुझे अपने हाथों में सम्हाल कर दूसरी ट्रेन में बिठाया और फिर तुरंत गायब हो गया। पूज्य गुरुदेव के दर्शन को आये हुए सभी लोग महिला की कहानी सुनकर विस्मय- विमुग्ध हो गए। गुरुसत्ता की उस असीम अनुकम्पा से सभी की आँखें भर आईं।

🌹  ई. एम. डी. शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula

👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 39)

🌹 साप्ताहिक और अर्द्ध वार्षिक साधनाएँ  

🔴 ब्रह्मभोज का दूसरा प्रचलित रूप वितरण भी है। यों प्रसाद में कोई मीठी वस्तुएँ थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बाँटने का भी नियम है। इसमें अधिक लोगों तक अपने अनुदान का लाभ पहुँचाना उद्देश्य है, भले ही वह थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ही क्यों न हो! एक का पेट भर देने की अपेक्षा सौ का मुँह मीठा कर देना इसलिए अच्छा माना जाता है कि इसमें देने वाले तथा लेने वालों को उस धर्म प्रयोजन के विस्तार की महिमा समझने और व्यापक बनाने की आवश्यकता का अनुभव होता है।   

🔵 यह कार्य मिष्ठान्न वितरण की अपेक्षा सस्ता युग साहित्य वितरण करने के रूप में अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है। ‘‘युग निर्माण का सत्संकल्प’’ नामक अति सस्ती पुस्तिका इस प्रयोजन के लिये अधिक उपयुक्त बैठती है। ऐसी ही अन्य छोटी पुस्तिकाएँ भी युग निर्माण योजना द्वारा प्रकाशित हुई हैं जिन्हें बाँटा या लागत से कम मूल्य में बेचने का प्रयोग किया जा सकता है। नवरात्र अनुष्ठानों में यह ब्रह्मभोज की सत्साहित्य के रूप में प्रसाद वितरण की प्रक्रिया भी जुड़ी रहनी चाहिये।    
                      
🔴 स्थानीय साधक मिल-जुलकर एक स्थान पर नौ दिन की साधना करें। अन्त में सामूहिक यज्ञ करें। सहभोज का प्रबन्ध रखें, साथ ही कथा-प्रवचन कीर्तन उद्बोधन का क्रम बनाये रह सके तो उस सामूहिक आयोजन से सोने में सुगन्ध जैसा उपक्रम बन पड़ता है।     

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अपव्ययता किसी की भी न चली

🔴 हिंदी के अनन्य सेवक भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र विचारवान् थे, उसके कारण उन्हें सार्वजनिक प्रतिष्ठा और सम्मान भी मिला, धन भी बहुत कमाया, किंतु अपव्यय के एक दुर्गुण ने ही उनके जीवन को दुर्दशाग्रस्त बना दिया। घर आए धन की होली फूँकने, अंधाधुंध खर्च करने से तो महाराजे भी कंगाल हो जाते हैं। भारतेंदु बाबू उक्त कथन के प्रत्यक्ष उदाहरण है।

🔵 पैतृण संपत्ति के रूप में उन्हें धन की कमी पहले ही न थी। अपने साहित्यिक उपार्जन से भी उन्होंने अपना कोष बढा़या। वह सब धन किसी बैंक या पोस्ट आफिस में जमा कर देते तो उसके ब्याज में सारा जीवन हँसी-खुशी और मस्ती में बिता लेते, पर अपव्यय की बुरी लत ने उन्हें ऐसा पछाडा कि मरते समय उनके पास कानी कौडी़ शेष न थी।

🔴 भारतवर्ष एक निर्धन देश है यहाँ के नागरिकों को साधारण मोटा-नोटा खाना और कपडा प्रयोग करना चाहिए पर भारतेंदु बाबू बहुत कीमती कपडे पहनते, खाना इतना मसालेदार और स्वादिष्ट बनता कि कोई राजा-महाराजा भी वैसा क्या खाता होगा ? प्रतिदिन दिन में कई बार अंगराग और कीमती सुंगधित तेलो की मालिश कराते। भोजन, वस्त्र, फुलेल की इतनी मात्रा खरीदी जाती कि स्वयं के पास प्रतिदिन कई चाटुकार और झूठे प्रशंसक भी उनका उतना ही आनंद लूटते।

🔵 दीपक में फुलेल जलता, रोशनदानों के कपडे रोज बदले जाते। जूते तो धनी आदमी भी पांच-छह महीने पहन लेते है, पर भारतेंदु बाबू के लिये इतने दिनों के लिये ४-५ जोडी जूते-चप्पल भी कम रहते। आखिर धन की आय की भी मर्यादा है। उस सीमा के भीतर पांव न रखने से तो आर्थिक दुर्गति होती ही है।

🔴 जाडे की रात्रि थी। कुछ लोग बाहर से मिलने आए थे। झूठे दंभ के लिए अपने में बहुत बडा़- चडा़कर व्यक्त करने वालों के पीछे उचक्कों की कमी नहीं रहती। वे प्रायः झूंठी प्रशंसा करके अपना उल्लू सीधा करते है। वह सज्जन उसी में अपना गौरव मानते है। ऐसे समय थोडा भविष्य पर भी विचार कर लिया करें तो संभवत लोग परेशानियों से पहले ही बच लें।

🔵 भारतेंदु पढे-लिखे थे, पर दूरदर्शी नहीं। उन लोगो ने आते ही उनकी उदारता की झूठी प्रशंसा प्रारंभ कर दी। इधर हाथ सेंकने के लिये अँगीठी की आवश्यकता पडी़। अँगीठी इधर-उधर दिखाई न दी तो उसे और बढकर ढूँढना अपना अपमान जान पडा। शेखी में आकर जेब से नोट निकालकर उन्हीं में आग लगा दी और अपने हाथ सेंके। हम नही समझते दर्शकों पर इसका क्या प्रभाव पडा़ होगा ? भीतर-ही-भीतर ऐसी मूर्खता पर वे हँसे ही होंगे।

🔴 इस तरह की संगति और जीवन-क्रम के कारण उनमे चरित्र-दोष भी आ गए। हितैषियों ने समझाया-भैया हाथ रोककर खर्च किया करो, जुटाया नही जाता, न जाने आगे कैसी स्थिति आ जाए पर भारतेंदु जी की बुद्धि ने सही काम न किया।

🔵 अपव्यय के दुर्गुणों ने उन्हें शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टि से विक्षिप्त कर दिया। वे तीस बष की आयु में ही मर गये। जीवन के अंतिम दिनों मे उन्हें पैसे-पैसे के लिए दूसरे साथियों के आगे हाथ फैलाना पडा। ऐसे पत्र सुरक्षित हैं, जिनमे उन्होंने आर्थिक सहायता की याचना की है, पर यहाँ इस संसार में अपनी-अपनी आवश्यकताओं से ही सभी तंग है, दूसरों की कौन देखे ? कौन सहायता करे

🔴 मृत्यु के क्षणो में भारतेंदु बाबू ने कहा-'किसी के पास धन और साधन कितने ही बडे़ क्यो न हो, उनका खर्च और उपयोग बहुत हाथ साधकर सावधानी के साथ भविष्य की चिंता रखकर ही करना चाहिए।"  यह तब पहले समझ में आई होती तो यह दुर्दशा न होती।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 31, 32

👉 नर से नारायण बनने का परम पुरुषार्थ

🔵  ईश्वर प्राप्ति को जीवन का परम पुरुषार्थ कहा गया है। महान् के साथ तुच्छ की घनिष्ठता स्थापित होने पर लाभ ही लाभ है। इस प्रक्रिया के आधार पर नगण्य को भी महान् बनने का अवसर मिलता है। नाला, गंगा में मिलकर उसी का नाम धारण कर लेता है। बूँद का विसर्जन उसे विराट् सागर बना देता है। उपेक्षणीय ईंधन देखते-देखते प्रचण्ड अग्नि का रूप धारण कर लेता है। पाणिग्रहण करने के उपरान्त पत्नी तत्काल अपने पति की समस्त सम्पदा पर सहज अधिकार प्राप्त कर लेती है। वृक्ष से लिपट कर दुबली कमर वाली बेल भी उतनी ही ऊँची उठ जाती है। वादक होठों से सटने पर पोले बाँस की नली को मनमोहक वंशी के रूप में श्रेय सम्मान मिलता है। कठपुतली का नाच वस्तुतः उन लकड़ी के टुकड़ों का कलाकार की अँगुलियों के साथ समर्पित भाव से बँध जाने के अतिरिक्त और कुछ है नहीं।

🔴  ऊँचे तालाब और नीचे तालाब के बीच एक सम्बन्ध स्थापित करने वाली नाली बना दी जाय, तो दोनों की सतह एक होने तक ऊँचे का प्रवाह नीचे की ओर बहता रहेगा। जेनरेटर के साथ सम्बन्ध सूत्र स्थापित होते ही बल्ब, पंखे आदि उपकरण तत्काल गतिशील होते हैं। ये उदाहरण बताते हैं कि परमात्मसत्ता के साथ घनिष्टता स्थापित करने वाले भगवद् भक्त क्यों कर देवात्मा माने गये? किस कारण अपना और समस्त संसार का कल्याण कर सकने में समर्थ हुए? प्रगति का उच्चतम सोपान यही है कि आत्मा-परमात्मा के स्तर तक जा पहुँचे और सर्वोत्कृष्ट शिखर पर अवस्थित होकर दूसरों के व अपने बीच का आकाश-पाताल जैसा अन्तर देखे।

🔵  प्रगति यदि किसी को सचमुच ही अभीष्ट है तो उसे बहिरंग के वैभव में नहीं, अन्तरंग के वर्चस् में तलाशा जाना चाहिए। एक ही उपाय का अवलम्बन लिया जाना चाहिए-महानता के साथ अपनी क्षुद्रता को जोड़ देना। कामना का भावना में, संकीर्णता का व्यापकता में, नर का नारायण में विलय-विसर्जन उसी परम पुरुषार्थ का सुनिश्चित स्वरूप है, जिसे ईश्वर प्राप्ति कहते हैं जिसे पा लेने के बाद फिर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 16

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 11)

🌹 विकास और शोध का श्रेय विचार को

🔴 पिछले दिनों में अपनी आकांक्षा को सुव्यवस्थित रूप में केन्द्रीभूत करके रूस और अमेरिका बहुत कुछ कर चुके हैं। हमारी आकांक्षा एवं विचार-धारा अपने लक्ष्य पर जहां भी तन्मयता से संलग्न रहेंगी, वहां सफलता की उपलब्धि असंदिग्ध है। विचार शक्ति को एक जीवित जादू कहा जा सकता है। उसके स्पष्ट होने से निर्जीव मिट्टी, नयनाभिराम खिलौने के रूप में और प्राणघातक विष जीवनदायी रसायन के रूप में बदल जाता है।

🔵 हम दिन भर सोचते हैं नाना प्रकार की समस्याओं को समझने और हल करने में अपनी विचार शक्ति को लगाते हैं। ईश्वर ने मस्तिष्क रूपी ऐसा देवता इस शरीर में टिका दिया है जो हमारी आकांक्षा की पूर्ति में निरन्तर सहायता करता रहता है। इस देवता से जो हम मांगते हैं वह उसे करने की व्यवस्था कर देता है। विचार शक्ति इस जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है। इसे कामधेनु और कल्पवता कह सकते हैं। प्रगति के पथ पर हम महान सम्बल के आधार पर ही मनुष्य आगे बढ़ सकता है। यह शक्ति यदि जीवन में उपस्थित उलझनों का स्वरूप समझने और उनका निराकरण करने में लगे तो निःसन्देह उसका भी हल निकल सकता है। विक्षोभ की परिस्थिति को बदलने का मार्ग रचनात्मक विचारों से ही मिलता है।

🔴 विचारों की रचना प्रचण्ड शक्ति है। जो कुछ मन सोचता है, बुद्धि उसे प्राप्त करने में, उसके साधन जुटाने में लग जाती है। धीरे-धीरे वैसी ही परिस्थिति सामने आने लगती है, दूसरे लोगों का वैसा ही सहयोग भी मिलने लगता है और धीरे-धीरे वैसा ही वातावरण बन जाता है, जैसा कि मन में विचार प्रवाह उठा करता है। भय, चिन्ता, और निराशा में डूबे रहने वाले मनुष्य के सामने ठीक वैसी ही परिस्थितियां आ जाती हैं जैसी कि वे सोचते रहते हैं। चिन्ता एक प्रकार का मानसिक रोग है जिससे लाभ कुछ नहीं, हानि की सम्भावना रहती है।

🔵 चिन्तित और विक्षुब्ध मनुष्य अपनी मानसिक क्षमता खो बैठता है। जो वह सोचता है, जो करना चाहता है, वह प्रयत्न गलत हो जाता है। उसके निर्णय अदूरदर्शिता पूर्ण और अव्यवहारिक सिद्ध होते हैं। उलझनों को सुलझाने के लिए सही मार्ग तभी निकलता है जबकि सोचने वाले का मानसिक स्तर सही और शान्त हो। उत्तेजना अथवा शिथिल मस्तिष्क तो ऐसे ही उपाय सोच सकता है जो उल्टे मुसीबत बढ़ाने वाले परिणाम उत्पन्न करें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 19)

🌹 उदारता अपनाई ही जाए  
🔵 शरीर कितना ही सुन्दर-सुसज्जित क्यों न हो, उसकी प्रतिष्ठा-उपयोगिता तभी है, जब उसमें जीवन चेतना विद्यमान हो। निष्प्राण हो जाने की स्थिति में तो, तथाकथित प्रेम प्रकट करने वाले भी उसे हटा देने का जुगाड़ बनाने में लग जाते हैं। सज्जनता की शोभा, उपयोगिता, आवश्यकता कितनी ही क्यों न हो, पर वह श्रेष्ठ स्तर की तभी मानी जायेगी, जब उसके साथ शालीनता की प्राणचेतना का सुनिश्चित समावेश हो।

🔴 सम्पत्ति से सुविधा साधन भर बढ़ या मिल सकते हैं किन्तु यदि उनका सदुपयोग न बन पड़े, तो वह दुधारी तलवार बन जाती है। वह रक्षा भी कर सकती है और अपनी तथा दूसरों की हत्या करने के काम भी आ सकती है। पिछले दिनों भूल यही होती रही है कि एक मात्र सम्पत्ति के ही गुण गाए जाते रहे। यहाँ तक समझा जाता रहा है कि उसके सहारे व्यक्ति की प्रतिभा-प्रतिष्ठा भी बढ़ सकती है। यह मान्यता ही आदि से अन्त तक भ्रान्तियों से भरी हुई है। यदि ऐसा ही रहा होता, तो धन सम्पन्नों के द्वारा लोकमंगल के श्रेष्ठ प्रयास बन पड़े होते और पिछड़ेपन का नाम निशान भी शेष कहीं न रहा होता। यदि सर्वसाधारण को पिछड़ेपन से अभावग्रस्तता से उबारने में सञ्चित सम्पदाओं को खर्च किया जा सका होता, तो संसार का नक्शा ही बदल गया होता।   

🔵 संसार में इतनी धन सम्पदा है कि उसे मिल-बाँटकर खाने पर सभी लोग सुख शान्ति से रह सकें और सन्तोषपूर्वक सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करते रहें। विलास, सञ्चय और अहंकार के प्रदर्शन में उसका उपयोग होने लगे, तो समझना चाहिए कि वह निरर्थक ही नहीं गई, वरन् उसने अनर्थ विनिर्मित करने के लिए अवाञ्छनीय वातावरण भी बनाकर रख दिया। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞     🌿🌞     🌿🌞

👉 जीवन कैसे जीयें? (भाग 3)

👉 युग ऋषि की अमृतवाणी

🔴 हम हिमालय के साथ जुड़ें, हम भगवान् के साथ जुड़ें तो हमारा भी सूखने का कभी मौका न आयेगा। फिर हम इतनी हिम्मत कर पायें तब। आप-हम भगवान् को समर्पित कर सकें अपने आपको तो भगवान् को हम पायें। हम भगवान् की कला का सारा लाभ उठा सकते हैं। शर्त ये है कि हम अपने आपको, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को, अपनी कामनाओं को और अपनी विष-वृत्तियों को भगवान् के सुपुर्द कर दें। हम भगवान् के साथ में अपने आपको उसी तरीके से जोड़ें जैसे कठपुतली, जैसे पतंग और जैसे बाँसुरी। न कि हम इस तरीके से करें कि पग-पग पर हुकूमत चलायें। भगवान् के पास हम अपनी मनोकामना पेश करें। ये भक्ति की निशानी नहीं है।

🔵 भगवान् की आज्ञा पर चलना हमारा काम है। भगवान् पर हुकूमत करना और भगवान् के सामने तरह-तरह के फरमाइश पेश करना, ये सब वेश्यावृत्ति का काम है। हम में से किसी की उपासना लौकिक कामनाओं के लिये नहीं; बल्कि भगवान् की साझेदारी के लिये, भगवान् को स्मरण रखने के लिये, भगवान् का आज्ञानुवर्ती होने के लिये और भगवान् को अपना समर्पण करने के उद्देश्य से उपासना होनी चाहिए।

🔴 अगर आप ऐसी उपासना करेंगे तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि उपासना सफल होगी। आपको आंतरिक संतोष मिलेगा। न केवल आंतरिक संतोष मिलेगा;  पर आपके व्यक्तित्व का विकास होगा और व्यक्तित्व के विकास करने का निश्चित परिणाम ये है कि आदमी भौतिक और आत्मिक, दोनों तरीके की सफलताएँ भरपूर मात्रा में प्राप्त करता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/jivan_kese_jiye

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 105)

🌹 प्रगतिशील जातीय संगठनों की रूपरेखा

🔴 11. वार्षिकोत्सव:--
संगठनों में चेतना और सक्रियता बने रहने के लिये यह आवश्यक है कि उस तरह के विचारों के लोगों का परस्पर सम्मिलन होता रहे। उत्सवों के द्वारा प्रत्येक चेतना को नवजीवन तथा प्रोत्साहन प्राप्त होता है। बड़े उत्सव खर्चीले होते हैं, किन्तु छोटे-छोटे आयोजन तो आसानी से हो सकते हैं। जातीय संगठनों के मेले आयोजित करने की बात बहुत ही महत्वपूर्ण है। आदर्श विवाहों की पृष्ठभूमि रूपी उन सम्मेलनों में सामूहिक विवाह होने की प्रथा चल पड़े तो और भी उत्तम रहे।

🔵 इन उत्सवों को गायत्री यज्ञ का रूप दिया जाना चाहिये। यज्ञ से उत्सव की शोभा सज्जा ही नहीं, भावनात्मक, धार्मिक वातावरण भी बनता है और शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक कई प्रकार के लाभ भी होते हैं। सामूहिक यज्ञोपवीत संस्कार, मुण्डन आदि भी उस अवसर पर हो सकते हैं। प्रचार के लिए तो यह एक प्रभावशाली माध्यम है ही। इन यज्ञो में कुछ लोग विधिवत् वानप्रस्थ लेकर समाज-सेवा के लिये अपना जीवन उत्सर्ग किया करें, ऐसी चेष्टा भी करते रहना चाहिये।

जिस जाति का सम्मेलन हो उसके लोगों को तो आना ही चाहिए, पर साथ ही अन्य जातियों के लोगों को भी बुलाया जाना आवश्यक है, ताकि वे भी उसके अनुकरण की प्रेरणा ले सकें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 52)

🌹 भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण

🔴 इस बार की हमारी हिमालय यात्रा में वह असमंजस बना हुआ था कि हिमालय की गुफाओं में सिद्ध पुरुष रहने और उनके दर्शन मात्र से विभूतियाँ मिलने की जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। हमें इनका कोई आधार नहीं मिला। वह बात ऐसे ही किंवदंती मालूम पड़ती है। था तो मन का भीतरी असमंजस, पर गुरुदेव ने उसे बिना कहे ही समझ लिया और कंधे पर हाथ रखकर पूछा-‘‘तुझे क्या जरूरत पड़ गई सिद्ध पुरुषों की? ऋषियों के सूक्ष्म शरीरों के दर्शन एवं हमसे मन नहीं भरा?’’

🔵 अपने मन में अविश्वास जैसी बात, कोई दूसरा खोजने जैसी बात स्वप्न में भी नहीं उठी थी। मात्र बाल कौतूहल मन में था। गुरुदेव ने इसे अविश्वास मान लिया होगा तो श्रद्धा क्षेत्र में हमारी कुपात्रता मानेंगे। यह विचार मन में आते ही स्तब्ध रह गया।

🔴 मन को पढ़ लेने वाले देवात्मा ने हँसते हुए कहा। वे हैं तो सही, पर दो बातें नई हो गई हैं। एक तो सड़कों की, वाहनों की सुविधा होने से यात्री अधिक आने लगे हैं। इससे उनकी साधना में विघ्न पड़ता है। दूसरे यह कि अन्यत्र जाने पर शरीर निर्वाह में असुविधा होती है। इसलिए उन्होंने स्थूल शरीरों का परित्याग कर दिया है और सूक्ष्म शरीर धारण करके रहते हैं। जो किसी को दृष्टिगोचर भी न हो और उनके लिए निर्वाह साधनों की आवश्यकता भी न पड़े।

🔵 इस कारण उन सभी ने शरीर ही नहीं स्थान भी बदल लिए हैं। स्थान ही नहीं साधना के साथ जुड़े कार्यक्रम भी बदल लिए हैं। जब सब कुछ परिवर्तन हो गया तो दृष्टिगोचर कैसे हो? फिर सत्पात्र साधकों का अभाव हो जाने के कारण वे कुपात्रों को दर्शन देने या उन पर की हुई अनुकम्पा में अपनी शक्ति गँवाना भी नहीं चाहते, ऐसी दशा में अन्य लोग जो तलाश करते हैं, वह मिलना सम्भव नहीं। किसी के लिए भी सम्भव नहीं। तुम्हें अगली बार पुनः हिमालय के सिद्ध पुरुषों की दर्शन झाँकी करा देंगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/bhavi

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 53)

🔵 जिसके पास मैं बैठा था वह बड़े से पीले फूल वाला पौधा बड़ा हंसोड़ तथा वाचाल था। अपनी भाषा में उसने कहा—दोस्त, तुम मनुष्यों में व्यर्थ जा जन्मे। उनकी भी कोई जिन्दगी है, हर समय चिन्ता, हर समय उधेड़बुन, हर समय तनाव, हर समय कुढ़न। अब की बार तुम पौधे बनना, हमारे साथ रहना। देखते नहीं हम सब कितने प्रसन्न हैं, कितने खिलते हैं, जीवन को खेल मान कर जीने में कितनी शान्ति है, यह हम लोग जानते हैं। देखते नहीं हमारे भीतर आन्तरिक उल्लास सुगन्ध के रूप में बाहर निकल रहा है। हमारी हंसी फूलों के रूप में बिखरी पड़ रही है। सभी हमें प्यार करते हैं, सभी को हम प्रसन्नता प्रदान करते हैं। आनन्द से जीते हैं और जो पास आता है उसी को आनन्दित कर देते हैं। जीवन जीने की यही कला है। मनुष्य बुद्धिमानी का गर्व करता है पर किस काम की वह बुद्धिमानी जिससे जीवन की साधारण कला, हंस खेल कर जीने की प्रक्रिया भी हाथ आये।’’

🔴 फूल ने कहा—‘‘मित्र, तुम्हें ताना मारने के लिए नहीं, अपनी बड़ाई करने के लिए भी नहीं, यह मैंने एक तथ्य ही कहा है? अच्छा बताओ जब हम धनी, विद्वान्, गुणी, सम्पन्न, वीर और बलवान न होते हुए भी अपने जीवन को हंसते हुए तथा सुगन्ध फैलाते हुए जी सकते हैं तो मनुष्य वैसा क्यों नहीं कर सकता? हमारी अपेक्षा असंख्य गुने साधन उपलब्ध होने पर भी यदि वह चिन्तित और असंतुष्ट रहता है तो क्या इसका कारण उसकी बुद्धिहीनता मानी जायगी?

🔵 ‘‘प्रिय, तुम बुद्धिमान हो जो उस बुद्धिहीनों को छोड़कर कुछ समय हमारे साथ हंसने खेलने चले आये। चाहो तो हम अकिंचनों से भी जीवन विद्या का एक महत्वपूर्ण तथ्य सीख सकते हो।’’

🔴 मेरा मस्तक श्रद्धा से नत हो गया—‘‘पुष्प मित्र, तुम धन्य हो। स्वल्प साधन होते हुए भी तुमको जीवन कैसे जीना चाहिये यह जानते हो। एक हम हैं—जो उपलब्ध सौभाग्य को कुढ़न में ही व्यतीत करते रहते हैं। मित्र, सच्चे उपदेशक हो, वाणी से नहीं जीवन से सिखाते हो, बाल सहचर, यहां सीखने आया हूं तो तुमसे बहुत सीख सकूंगा। सच्चे साथी की तरह सिखाने में संकोच न करना।’’

🔵 हंसोड़ पीला पौधा खिलखिला कर हंस पड़ा। सिर हिला-हिलाकर वह स्वीकृति दे रहा था। और कहने लगे—सीखने की इच्छा रखने वाले के लिए पग-पग पर शिक्षक मौजूद हैं। पर आज सीखना कौन चाहता है। सभी तो अपनी अपूर्णता के अहंकार के मद में ऐंठे-ऐंठे से फिरते हैं। सीखने के लिए हृदय का द्वार खोल दिया जाय तो बहती हुई वायु की तरह शिक्षा, सच्ची शिक्षा स्वयमेव हमारे हृदय में प्रवेश करने लगे।’’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 दुनिया में बने नंबर वन, इसरो ने सफलतापूर्वक लॉन्च किए रेकॉर्ड 104 सैटलाइट्स

🔵 104 सैटलाइट्स को एकसाथ छोड़कर इसरो ने बुधवार एक और रेकॉर्ड बनाते हुए इतिहास रच दिया। आंध्र प्रदेश स्थित श्रीहरिकोटा स्पेस सेंटर से एक ही रॉकेट से अंतरिक्ष में 104 सैटलाइट्स और एक रॉकेट छोड़कर इसरो ने रूस को पछाड़ दिया। अभी तक एक साथ सबसे ज्यादा(37) सैटलाइट्स छोड़ने का रेकॉर्ड रूस के नाम था। अमेरिका एक साथ 29 सैटलाइट्स लॉन्च कर चुका है।

🔴 पीएसएलवी-सी37 कार्टोसैट-2 सीरीज सैटलाइट मिशन को श्रीहरिकोटा से भारतीय समयानुसार सुबह 9:28 बजे प्रक्षेपित किया गया। ये सैटलाइट्स 28 मिनट बाद 9:56 पर ऑर्बिट में सफलतापूर्वक प्रक्षेपित हो गए। इन सभी सैटलाइट्स को पीएसएलवी-सी37 की मदद से छोड़ा गया, यह इस रॉकेट का 39वां मिशन रहा। इस मिशन के तहत जिस प्रमुख भारतीय सैटलाइट्स को लॉन्च किया गया, वह कॉर्टोसैट-2 सीरीज का है।

🔵 मंगलयान की कामयाबी के बाद इसरो की कमर्शल इकाई 'अंतरिक्ष' को लगातार विदेशी सैटलाइट्स लॉन्च करने के ऑर्डर मिल रहे हैं। इसरो पिछले साल जून में एक साथ 20 सैटलाइट्स लॉन्च कर चुका है। इससे पहले तक इसरो 50 विदेशी सैटलाइट्स लॉन्च कर चुका था। पीएसएलवी-सी37 से पहले 714 किलोग्राम वजन के कॉर्टोसैट-2 सीरीज के सैटलाइट को पृथ्वी पर निगरानी के लिए प्रक्षेपित किया गया। इसके बाद बाकी 103 सैटलाइट्स को पृथ्वी से करीब 520 किलोमीटर दूर पोलर सन सिंक्रोनस ऑर्बिट में एक-एक कर प्रविष्ट कराया गया।

🌹 एेसा हुआ प्रक्षेपण:
🔴 सबसे पहले पीएसएलवी-सी37 रॉकेट ने भारत के कार्टोसेट-2 सीरीज के सैटलाइट को अंतरिक्ष में स्थापित किया, जिससे भारतीय भूभाग की हाई रेजोल्यूशन इमेज हासिल करने में मदद मिलेगी। इसके बाद 103 सहयोगी उपग्रहों को पृथ्वी से करीब 520 किलोमीटर दूर ध्रुवीय सन सिंक्रोनस ऑर्बिट में प्रविष्ट कराया गया, जिनका अंतरिक्ष में कुल वजन 664 किलोग्राम है। हालांकि इतने वजनी हालात में इतनी सटीकता से लॉन्च आसान नहीं था, लेकिन सैटेलाइट एक दूसरे से टकराए नहीं, इसकी महारथ इसरो अपने पिछले प्रक्षेपणों के दौरान हासिल कर चुका है। 27 हजार किमी प्रति घंटे की रफ्तार महज 600 सेकंड के भीतर सभी 101 सैटेलाइट लॉन्च किए गए।
रॉकेट की खासियत: पीएसएलवी रॉकेट की यह 39वीं उड़ान है। इसका वजन 320 टन और ऊंचाई 44.2 मीटर है। इसमें इसरो के 2 नैनो सैटलाइट भी भेजे गए। यह रॉकेट 15 मंजिल इमारत जितना ऊंचा है। प्रक्षेपित किए जाने वाले सभी उपग्रहों का कुल वजन करीब 1378 किलोग्राम है।

🔵 इन देशों के रॉकेट जाएंगे स्पेस में : अमेरिका के 96 सैटलाइट्स, जिसमें सैन फ्रांसिस्को की एक कंपनी प्लेनेट के 88 छोटे सैटलाइट्स हैं। इसके अलावा इस्राइल, कजाकिस्तान, नीदरलैंड्स, स्विट्जरलैंड और यूएई के छोटे सैटलाइट्स स्पेस में भेजे गए।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...