गुरुवार, 5 जनवरी 2023

👉 कर्म का फल

यदि कर्म का फल तुरंत नहीं मिलता, तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गये। कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है, जो आज नहीं तो कल भुगतना ही पड़ेगा। कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होता है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कत्र्तव्य धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचय कर सका या नहीं। जो दण्ड भय से डरे बिना दुष्कर्मों से बचना मनुष्यता का गौरव समझना है और सदा सत्कर्मों तक ही सीमित रहता है, समझना चाहिए कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की ओर बढऩे का शुभारंभ कर दिया।
  
दंडमय से तो विवेक रहित पशु को भी अवांछनीय मार्ग पर चलने से रोका जा सकता है। मानवीय अंत:करण की विकसित चेतना तभी अनुभव की जा सकेगी, जब वह कुमार्ग पर चलने से रोके और सन्मार्ग के लिए प्रेरणा प्रदान करे। लाठी के बल पर भेड़ों को इस या उस रास्ते पर चलाने में गड़रिया सफल रहता है। सभी जानवर इसी प्रकार दंड भय दिखाकर उसे जोते जाते हैं। यदि हर काम का तुरंत दंड मिलता और ईश्वर बलपूर्वक किसी मार्ग पर चलने के लिए विवश करता, तो फिर मनुष्य भी पशुओं की श्रेणी में आता, उसकी स्वतंत्र आत्म चेतना विकसित हुई या नहीं, इसका पता ही नहीं चलता।
  
ईश्वर या खुदा ने मनुष्य को भले या बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता इसीलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अंतर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक संतापों से बचने एवं सत्परिणामों का आनंद लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो। उन्नति को अपनाने वाला विवेक और कर्त्तव्य परायणता यह दो ही कसौटी मनुष्यता का आत्मिक स्तर विकसित होने की है। इस आत्म विकास पर ही जीवनोद्देश्य की पूर्ति और मनुष्य जन्म की सफलता निहित है। ईश्वर खुदा चाहता है कि व्यक्ति अपनी स्वतंत्र चेतना का विकास करे और विकास के क्रम से आगे बढ़ता हुआ पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने की सफलता प्राप्त करे।
  
यदि ईश्वर को यह प्रतीत होता कि बुद्धिमान बनाया गया मनुष्य पशुओं जितना मूर्ख ही बना रहेगा, तो शायद उसने दण्ड के बल पर चलाने की व्यवस्था उसके लिए भी सोची होती। तब झूठ बोलते ही जीभ में छाले पडऩे, चोरी करते ही हाथ में फोड़ा उठ पडऩे, बेईमानी करते ही बुखार आ जाने, कुदृष्टिï डालते ही आँख दु:खने लगने, कुविचार आते ही सिर दर्द होने जैसे दण्ड मिलने की तुर्त-फुर्त व्यवस्था बनी रही होती, तो किसी के लिए भी दुष्कर्म करना संभव ही न होता। लोग जब उसमें लाभ की अपेक्षा प्रत्यक्ष हानि देखते तो दुष्कर्म करने की हिम्मत न करते। ऐसी स्थिति में मनुष्य की स्वतंत्र चेतना, विवेक बुद्धि और आंतरिक महानता के विकसित होने का अवसर ही नहीं आता और आत्म विकास के बिना पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकने की दिशा में प्रगति ही न होती। अतएव परमेश्वर के लिए यह उचित ही था कि मनुष्य को अपना सबसे बड़ा, सबसे बुद्धिमान और सबसे जिम्मेदार बेटा समझकर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्रदान करे और यह देखे कि वह मनुष्यता का उत्तरदायित्व संभाल सकने में समर्थ है या नहींï? परीक्षा के बिना वास्तविकता का पता भी कैसे चलता और उसे अपनी इस सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य में कितने श्रम की सार्थकता हुई यह कैसे अनुभव होता।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 समस्त शक्तियों का स्रोत

कोई भी व्यक्ति जितना कुछ वैभव, उल्लास और साधन सम्पत्ति अर्जित करता है, वह उपार्जन एक ही मूल्य पर होता है। वह मूल्य है- शक्ति। जिसमें जितनी क्षमता है, जितनी शक्ति है, वह उतना ही वैभव और उल्लास अर्जित कर लेता है। इन्द्रियों में शक्ति हो तो विभिन्न भोगों को भोगा जा सकता है और इन्द्रियाँ यदि अशक्त, असमर्थ हो जायें, तो आकर्षक से आकर्षक भोग भी उपेक्षणीय लगते हैं। उनकी ओर देखने का भी जी नहीं करता। नाड़ी संस्थान की क्षमता यदि क्षीण हो जाय, तो शरीर का सामान्य क्रियाकलाप भी ठीक प्रकार से नहीं चल पाता। मानसिक शक्ति यदि घट जाय, तो मनुष्य की गणना विक्षिप्त व्यक्तियों में होने लगती है और विक्षिप्तों जैसी नहीं भी हो, तो वह ऐसी हरकतें करने लगता है कि उसकी स्थिति उपहासास्पद बन जाती है। धन की शक्ति में यदि कोई व्यक्ति, शून्य हो तो वह दीन-हीन बना रहता है। अभावग्रस्तता से उसकी स्थिति दयनीयों जैसी बनी रहती है और वह जीवन की सामान्य आवश्यकतायें भी भली प्रकार पूरी नहीं कर पाता। मित्रता को भी शक्ति कहा जा सकता है, जिसका स्वरूप सामाजिक होता है। यदि सच्चा मित्र शक्ति न रहे, तो व्यक्ति अपने आप को एकाकी अनुभव करने लगता है और जीवन निरर्थक-निरीह लगने लगता है।
  
इन सभी शक्तियों में प्रधान है- आत्मबल। आत्मबल आध्यात्मिक पक्ष से संबंधित होने के कारण अन्य सभी शक्तियों से उच्च स्तर का समझा जाता है। यदि यह शक्ति पास में न रहे, तो मनुष्य प्रगति के पथ पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। जीवनोद्देश्य की पूर्ति आत्मबल से रहित व्यक्ति के लिए प्राय: असंभव ही रहती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि क्या आध्यात्मिक और क्या भौतिक, सभी क्षेत्रों में अभीष्टï सफलता प्राप्त करने के लिए शक्ति का संपादन नितांत आवश्यक है। शक्ति संपादन के संबंध में यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि इनका स्वरूप चाहे जो हो, स्रोत एक ही है।

आभूषण चाहें कान के बने या गले का, सोना का ही उपयोग किया जाता है। पृथ्वी पर व्याप्त समस्त ऊष्माओं का केन्द्र सूर्य ही है, चाहे वह शरीर की गर्मी हो या आग की। भारतीय मनीषियों ने इसी प्रकार समस्त शक्तियों का स्रोत साधन एक ही माना है और उसे गायत्री नाम दिया है। भौतिक जगत में पंचभूतों को प्रभावित करने वाली जितनी भी शक्तियाँ हैं और आध्यात्मिक जगत में जितनी भी विचारात्मक, भावनात्मक तथा संकल्पनात्मक शक्तियाँ हैं, उन सब का मूल उद्ïगम एवं अजस्र भण्डार एक ही है, जिसे गायत्री नाम से संबोधित किया गया है। इस भण्डार में शक्ति सागर में जितना भी गहरे उतरा जाय, उतना ही बहुमूल्य रत्न राशि उपलब्ध होने की संभावना बढ़ती चली जाती है।
  
मनीषियों ने परब्रह्मï परमात्मा की चेतना, प्रेरणा सक्रियता एवं समर्थता को गायत्री कहा है तथा इसे विश्व की सर्वोपरि शक्ति बताया है। विभिन्न देवशक्तियाँ जो अन्यान्य प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती हैं और विभिन्न देवनामों से पुकारी जाती हैं, इसी शक्ति के ज्योति स्फुलिंग है। वे समस्त शक्तियाँ उस परम शक्ति की ही किरणें हैं। उत्पादन, विकास एवं संहार में संलग्ïन ब्राह्मïी, वैष्णवी और शांभवी शक्तियों के प्रतीक प्रतिनिधि ब्रह्मïा, विष्णु, महेश परमब्रह्मï की इसी सर्वोपरि शक्ति से अपना काम चलाते हैं और अभीष्टï कार्यों को पूरा करने के लिए शक्तियाँ प्राप्त करते हैं। पंचतत्त्वों की चेतना को आदित्य, वरुण, मरुत, द्यौ और अंतरिक्ष कहकर पुकारते हैं। उनकी शक्ति का स्रोत भी परमब्रह्मï की वही चेतना है, जिसे गायत्री कहा गया है।

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