सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 14)

सभी में गुरु ही है समाया

परमेश्वर से एक हो चुके गुरुदेव की चेतना महासागर की भाँति है। सारा अस्तित्व उनमें समाहित है। हमारे प्रत्येक कर्म, भाव एवं विचार उन्हीं की ओर जाते हैं, वे भले ही किसी के लिए भी न किये जाये। इसलिए जब हम किसी को चोट पहुँचती है, दुःख पहुँचाते हैं, तो हम किसी और को नहीं सद्गुरु को चोट पहुँचाते हैं, उन्हीं को दुखी करते हैं। यह कथन कल्पना नहीं सत्य है।

महान् शिष्यों के जीवन की जीवन्त अनुभूति है- श्रीरामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य ने बैल को चोट पहुँचायी। बाद में वह दक्षिणेश्वर आकर परमहंस देव की सेवा करने लगा। सेवा करते समय उसने देखा कि ठाकुर की पाँव उस चोट के निशान थे। पूछने पर उन्होंने बताया, अरे! तू चोट के बारे क्या पूछता है, यह चोट तो तूने ही मुझे दी है। सत्य सुनकर उसका अन्तःकरण पीड़ा से भर गया।

महान् शिष्यों के अनुभव के उजाले में परखें हम अपने आपको। क्या हम सचमुच ही अपने गुरुदेव से प्रेम करते हैं? क्या हमारे मन में सचमुच ही उनके लिए भक्ति है? यदि हाँ तो फिर हमारे अन्तःकरण को सभी के प्रति प्रेम से भरा हुआ होना चाहिए। पापी हो या पुण्यात्मा हमें किसी को भी चोट पहुँचाने का अधिकार नहीं है। क्योंकि सभी में हमारे गु़रुदेव ही समाये हैं।

अपवित्र एवं पवित्र कहे जाने वाले सभी स्थानों पर उन्हीं की चेतना व्याप्त है। इसलिए हमारे अपने मन में किसी के प्रति कोई भी द्वेष, दुर्भाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि इस जगत् में गुरुदेव से अलग कुछ भी नहीं है। उन्हीं के चैतन्य के सभी हिस्से हैं। उन्हीं की चेतना के महासागर की लहरें हैं। इसलिए शिष्यत्व की महासाधना में लगे हुए साधकों को सर्वदा ही श्रेष्ठ  चिंतन, श्रेष्ठ भावना एवं श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा उनका अर्चन करते रहना चाहिए।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/alls
अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (भाग 5)

सत्ता का मद पहले से ही बहुत था, ओछापन जैसे जैसे बढ़ता जा रहा है वह अहंकार और भी बढ़ रहा है। ऐसे सरकारी कर्मचारी जो जनता का हित अहित कर सकते हैं- जिनके हाथ में लोगों को सुविधा देना या असुविधा बढ़ाना है उनकी शान और नाक देखते ही बनती है। बेकार मनुष्य समय गँवाते रहेंगे पर लोगों की बात सुनने में व्यस्तता का बहाना करेंगे। सीधे मुँह बोलेंगे नहीं।

बात अकड़ कर और अपमानजनक ढंग से करेंगे। इस ऐंठ से आतंकित जनता अपना काम पूरा न होते देखकर रिश्वत के लिये विवश होती है। शासन में या अन्यत्र बड़े संस्थानों में बड़े पदों पर अवस्थित लोगों का रूखा, असहानुभूति पूर्ण और निष्ठुर व्यवहार देखकर उन पर छाये हुए अहंकार के पद का कितना प्रभाव छाया हुआ है इसे भली प्रकार देखा जा सकता है।

सन्त तपस्वियों तक में यह अहंकार उन्माद भरपूर देखा जा सकता है। अपने घरों पर अपने लिये ऊंची गद्दी बिछाते हैं और दूसरे आगन्तुकों को नीचे बैठने की व्यवस्था रखते हैं। यह कैसा अशिष्ट और असामाजिक तरीका है। दूसरे के घर में जायें और वहाँ वे लोग ऊँचे आसन पर बिठायें- खुद नीचे बैठें तो बात कुछ समझ में भी आती है। पर अपने घर आया हुआ अतिथि तो देव है, उसे अपने से नीचा आसन नहीं देना चाहिए। बड़प्पन का अर्थ दूसरों को छोटा समझना या असम्मानित करना नहीं है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 16
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.16

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