सभी में गुरु ही है समाया
परमेश्वर से एक हो चुके गुरुदेव की चेतना महासागर की भाँति है। सारा अस्तित्व उनमें समाहित है। हमारे प्रत्येक कर्म, भाव एवं विचार उन्हीं की ओर जाते हैं, वे भले ही किसी के लिए भी न किये जाये। इसलिए जब हम किसी को चोट पहुँचती है, दुःख पहुँचाते हैं, तो हम किसी और को नहीं सद्गुरु को चोट पहुँचाते हैं, उन्हीं को दुखी करते हैं। यह कथन कल्पना नहीं सत्य है।
महान् शिष्यों के जीवन की जीवन्त अनुभूति है- श्रीरामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य ने बैल को चोट पहुँचायी। बाद में वह दक्षिणेश्वर आकर परमहंस देव की सेवा करने लगा। सेवा करते समय उसने देखा कि ठाकुर की पाँव उस चोट के निशान थे। पूछने पर उन्होंने बताया, अरे! तू चोट के बारे क्या पूछता है, यह चोट तो तूने ही मुझे दी है। सत्य सुनकर उसका अन्तःकरण पीड़ा से भर गया।
महान् शिष्यों के अनुभव के उजाले में परखें हम अपने आपको। क्या हम सचमुच ही अपने गुरुदेव से प्रेम करते हैं? क्या हमारे मन में सचमुच ही उनके लिए भक्ति है? यदि हाँ तो फिर हमारे अन्तःकरण को सभी के प्रति प्रेम से भरा हुआ होना चाहिए। पापी हो या पुण्यात्मा हमें किसी को भी चोट पहुँचाने का अधिकार नहीं है। क्योंकि सभी में हमारे गु़रुदेव ही समाये हैं।
अपवित्र एवं पवित्र कहे जाने वाले सभी स्थानों पर उन्हीं की चेतना व्याप्त है। इसलिए हमारे अपने मन में किसी के प्रति कोई भी द्वेष, दुर्भाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि इस जगत् में गुरुदेव से अलग कुछ भी नहीं है। उन्हीं के चैतन्य के सभी हिस्से हैं। उन्हीं की चेतना के महासागर की लहरें हैं। इसलिए शिष्यत्व की महासाधना में लगे हुए साधकों को सर्वदा ही श्रेष्ठ चिंतन, श्रेष्ठ भावना एवं श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा उनका अर्चन करते रहना चाहिए।
क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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परमेश्वर से एक हो चुके गुरुदेव की चेतना महासागर की भाँति है। सारा अस्तित्व उनमें समाहित है। हमारे प्रत्येक कर्म, भाव एवं विचार उन्हीं की ओर जाते हैं, वे भले ही किसी के लिए भी न किये जाये। इसलिए जब हम किसी को चोट पहुँचती है, दुःख पहुँचाते हैं, तो हम किसी और को नहीं सद्गुरु को चोट पहुँचाते हैं, उन्हीं को दुखी करते हैं। यह कथन कल्पना नहीं सत्य है।
महान् शिष्यों के जीवन की जीवन्त अनुभूति है- श्रीरामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य ने बैल को चोट पहुँचायी। बाद में वह दक्षिणेश्वर आकर परमहंस देव की सेवा करने लगा। सेवा करते समय उसने देखा कि ठाकुर की पाँव उस चोट के निशान थे। पूछने पर उन्होंने बताया, अरे! तू चोट के बारे क्या पूछता है, यह चोट तो तूने ही मुझे दी है। सत्य सुनकर उसका अन्तःकरण पीड़ा से भर गया।
महान् शिष्यों के अनुभव के उजाले में परखें हम अपने आपको। क्या हम सचमुच ही अपने गुरुदेव से प्रेम करते हैं? क्या हमारे मन में सचमुच ही उनके लिए भक्ति है? यदि हाँ तो फिर हमारे अन्तःकरण को सभी के प्रति प्रेम से भरा हुआ होना चाहिए। पापी हो या पुण्यात्मा हमें किसी को भी चोट पहुँचाने का अधिकार नहीं है। क्योंकि सभी में हमारे गु़रुदेव ही समाये हैं।
अपवित्र एवं पवित्र कहे जाने वाले सभी स्थानों पर उन्हीं की चेतना व्याप्त है। इसलिए हमारे अपने मन में किसी के प्रति कोई भी द्वेष, दुर्भाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि इस जगत् में गुरुदेव से अलग कुछ भी नहीं है। उन्हीं के चैतन्य के सभी हिस्से हैं। उन्हीं की चेतना के महासागर की लहरें हैं। इसलिए शिष्यत्व की महासाधना में लगे हुए साधकों को सर्वदा ही श्रेष्ठ चिंतन, श्रेष्ठ भावना एवं श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा उनका अर्चन करते रहना चाहिए।
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