शनिवार, 29 सितंबर 2018

👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 16)

👉 लेखक का निजी अनुभव  
 
🔷 साधारण स्तर के नर वानर कोल्हू के बैल की तरह पिसते और पीसते रहकर जिन्दगी के दिन गुजार देते हैं। पर जब भीतर से उत्कृष्टता का पक्षधर उल्लास उभरता है तो अन्तराल में बीज रूप में विद्यमान दैवी क्षमताएँ, जागृत, सक्रिय होकर अपनी महत्ता का ऐसा परिचय देने लगती हैं जिसे अध्यात्म का वह चमत्कार कहा जा सकता है, जो भौतिक शक्तियों की तुलना में कहीं अधिक समर्थ है।
  
🔶 उपासना प्रकरण में श्रद्धा-विश्वास की शक्ति ही प्रधान है। वही उस स्तर की बन्दूक है जिस पर किसी भी फैक्टरी में विनिर्मित कारतूस चलाए जा सकते हैं। उस दृष्टि से मात्र गायत्री मंत्र ही नहीं, साधक की आस्था के अनुरूप अन्यान्य मंत्र एवं उपासना विधान भी अपनी सामर्थ्य का वैसा ही परिचय दे सकते हैं। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में उपेक्षापूर्वक अस्त-व्यस्त मन से कोई भी उपासना क्रम अपनाया जाए, असफलता ही हाथ लगेगी।
  
🔷 परीक्षण के लिए प्रयोगशाला की तथा उसके लिए आवश्यक यन्त्र उपकरणों की जरूरत पड़ती है। इस सन्दर्भ में अच्छाई एक ही है कि मानव शरीर में विद्यमान चेतना ही उन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देती है, जो अत्यन्त सशक्त प्रयोग परीक्षणों के लिए भौतिक विज्ञानियों को मूल्यवान यन्त्र उपकरणों से सुसज्जित प्रयोगशाला को जुटाने पर सम्भव होते हैं।
  
🔶 इन दिनों विज्ञान के प्रतिपादन पत्थर की लकीर बनकर जन-जन की मान्यताओं को अपने प्रभाव क्षेत्र में समेट चुके हैं। आज की मान्यताएँ और गतिविधियाँ उसी से आच्छादित हैं और तदनुरूप प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कर रही हैं। अध्यात्म का स्वरूप विडम्बना स्तर का बनकर रह गया है, फलस्वरूप उसका न किसी साधनारत पर प्रभाव पड़ता है और न वातावरण को उच्चस्तरीय बनाने में कोई सहायता ही मिल पाती है। इस दुर्गति के दिनों से यही उपयुक्त लगा है कि यदि विज्ञान के प्रत्यक्षवाद को, यथार्थता को जिस प्रकार अनुभव कर लिया गया है, उसी प्रकार अध्यात्म को भी यदि सशक्त एवं प्रत्यक्ष फल देने वाला माना जा सकने का सुयोग बन सके तो समझना चाहिए कि सोना और सुगन्ध के मिल जाने जैसा सुयोग बन गया। विज्ञान शरीर और अध्यात्म प्राणचेतना मिलकर काम कर सकें तो समझना चाहिए कि सब कुछ जीवन्त हो गया। एक प्राणवान दुनियाँ समग्र शक्ति के साथ नए सिरे से नए कलेवर में उद्भूत हो गई। न विज्ञान झगड़ालू रहा और अध्यात्म के साथ जो कुरूपता जुड़ गई है, उसके लिए कोई गुंजाइश ही शेष रह गई है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 19

👉 चित्रों का भला और बुरा प्रभाव (भाग 3)

🔷 चित्र दर्शन की इस वैज्ञानिक प्रक्रिया को समझकर ही हमारे पूर्वजों ने नित्य मन्दिरों में भगवान की मूर्ति के दर्शन, साधु महात्माओं के दर्शनों का विधान बनाया होगा। एक भारतीय नागरिक का धर्म कर्तव्य है कि वह प्रातः सायं भगवान् तथा गुरुजनों के दर्शन करें उन्हें प्रणाम करें। सोने पूर्व, उठने पर शुभ दर्शन एक आवश्यक धर्म कर्तव्य माना जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे धार्मिक चित्र बहुत समय से हमें उच्च आदर्शों, सामाजिक मर्यादाओं त्याग, वैराग्य, संयम, बल, पौरुष, कर्तव्य आदि की उत्कृष्ट प्रेरणा देकर आत्म-विकास की ओर अग्रसर करते रहे हैं।

🔶 खेद है आज कला के नाम पर, चलचित्रों के माध्यम से, धन के लोभ के लिये समाज में बहुत ही भद्दे अश्लील चित्रों की बाढ़ सी आ गई है। यत्र-तत्र बाजार में इस तरह के चित्र अधिक मिलते हैं जिनमें दूषित हाव-भाव, भड़कीले पोशाक शारीरिक अंगों का फूहड़ प्रदर्शन मुख्य होते हैं। सिनेमा में तो अभिनेता और अभिनेत्रियों के अर्धनग्न शरीर उनकी अश्लील मुद्रायें भड़काने वाले तथा कथित ‘ऐक्टिंग‘ दर्शक पर कैसा प्रभाव डालता होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। समाज में बढ़ती हुई अश्लीलता, फूहड़पन, फैशनपरस्ती का एक कारण सिनेमा में दिखाये जाने वाले भद्दे चित्र भी हैं।

🔷 बाजार में खुले आम इस तरह की पत्र-पत्रिकायें बिकती देखी जा सकती हैं जिनमें बहुत ही गन्दे उत्तेजित चित्र होते हैं। भोले-भाले, अनुभवहीन यौवन में पैर रखने वाले युवक इनसे बहुत जल्दी ही प्रभावित हो जाते हैं। पैसा खर्च करके खरीदते हैं लेकिन ये गन्दे चित्र उनमें कामोत्तेजना भड़काने, कई दुर्गुण पैदा करने का बहुत बड़ा काम करते हैं। एक बुराई से अनेकों बुराइयां पैदा होती हैं और पतन का पथ प्रशस्त बन जाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए पृष्ठ 138

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