रविवार, 3 जून 2018

👉 उपदेश का सही मर्म

👉 गुड़-गुड़ कहने से मुंह मीठा नहीं होता।

🔶 सच ही है उपदेश का मर्म वही समझता है जो उसे धारण करना जानता हैं वाणी के साथ आचरण का अंग बन जाने वाला ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है और इसे धारण करने वाला ही सच्चा ज्ञानी है। लेकिन आज के समय में तो सिर्फ पढ़ा जाता हैं अमल नहीं किया जाता।

🔷 यह उस समय की बात है जब कौरव और पांडव गुरु द्रोणाचार्य जी के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। एक दिन गुरु द्रोण ने अपने सभी शिष्यों को एक सबक दिया- ‘सत्यम वद‘ मतलब सत्य बोलो। उन्होंने सभी शिष्यों से कहा की इस पाठ को भली भांति याद कर लें, क्योंकि उनसे यह पाठ कल पूछा जाएगा। अध्यापन काल समाप्त होने के बाद सभी शिष्य अपने-अपने कक्षों में जाकर पाठ याद करने लगे।

🔶 अगले दिन पून: जब सभी शिष्य एकत्रित हुए तो गुरु द्रोण ने सबको बारी-बारी से खड़ा कर पाठ सुनाने के लिए कहा। सभी ने गुरु द्रोण के सामने एक दिन पहले दिया गया शब्द दोहरा दिया, लेकिन युधिष्ठर चुप रहे। गुरु के पूछने पर उन्होंने कहा की वे इस पाठ को याद नहीं कर पाये हैं।

🔷 इस प्रकार 15 दिन  बीत गए, लेकिन युधिष्ठर को पाठ याद नहीं हुआ। 16 वें दिन उन्होंने गुरु द्रोण से कहा की उन्हें पाठ याद हो गया हैं और वे उसे सुनाना चाहते हैं। द्रोण की आज्ञा पाकर उन्होंने ‘सत्यम वद‘ बोलकर सुना दिया। गुरु ने कहा-युधिष्ठर, पाठ तो केवल दो शब्दों का था। इसे याद करने में तुम्हें इतने दिन क्यों लगें?

🔶 युधिष्ठर बोले- गुरुदेव, इस पाठ के दो शब्दों को याद करके सुना देना कठिन नहीं था,  लेकिन जब तक में स्वयं आचरण में इसे धारण नहीं करता, तब तक कैसे कहता की मुझे पाठ याद हो गया है।

🔷 मित्रों इसी तरह कितने सारे लोग है, लगभग सभी ने भगवद गीता - कुरान पढ़ी होगी, लेकिन युधिष्ठिर की तरह नहीं केवल ऊपर से पढ़ी होगी, शब्द-शब्द पढ़े होंगे।

🔶 जरा सोचिये अगर आज के लोगों ने सच में गीता - कुरान को पढ़ा होता तो आज जो हमारे मानव समाज की स्थिति हैं क्या ऐसी होती। सभी धर्म में यही हो रहा हैं, सभी लोगों ने धर्म को ऊपर-ऊपर पढ़ा हैं, लेकिन उसे जाना नहीं। और जब तक आप किसी चीज़ को जान नहीं लेते तब तक आपका उसे पढ़ना व्यर्थ हैं।

🔷 आप ही सोचिये गीता-कुरान इन सब में लिखा हुआ होता हैं की इनको पढ़ने पर मोक्ष प्राप्त होता हैं। लेकिन लग भग सभी लोग गीता-कुरान पढ़ते हैं फिर उन्हें मोक्ष क्यों नहीं होता, सीधी सी बात हैं क्यूंकि वो सिर्फ पढ़ते हैं, अमल नहीं करते उन बातों पर, अपने जीवन में नहीं ढालते उन बातों को जो की गीता-कुरान में बताई जाती।

🔶 तो मित्रों हमारा निवेदन हैं की आप जो भी पढ़ें, उसे सिर्फ पढ़ने तक ही सिमित न रहने दें उसे अपने जीवन में उतारें, उसे अमल करें।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 4 June 2018


👉 आज का सद्चिंतन 4 June 2018


👉 शान्त विचारों की शक्ति (भाग 2)

🔶 गम्भीर परिस्थितियों में मन का शाँत रहना इस बात का प्रतीक है कि व्यक्ति को किसी भारी शक्ति का सहारा मिल गया है। शान्त मन रहने से प्रतिकूल परिस्थितियाँ थोड़े ही काल में अनुकूल परिस्थितियों में परिणत हो जाती हैं। शाँत विचारों की शक्ति का दूसरे लोगों के मन पर स्थायी प्रभाव पड़ता है। वास्तव में हमारी ही शक्ति दूसरे की शक्ति के रूप में प्रकाशित होती है। यदि किसी व्यक्ति का निश्चय इतना दृढ़ हो कि चाहे जो परिस्थितियाँ आवें उसका निश्चय नहीं बदलेगा तो वह अवश्य ही दूसरे व्यक्ति यों के विचारों को प्रभावित करने में समर्थ होगा। जितनी ही किसी व्यक्ति की मानसिक दृढ़ता होती है उसके विचार उतने ही शान्त होते हैं। और उसकी दूसरों को प्रभावित करने की शक्ति उतनी ही प्रबल होती है।

🔷 शान्त विचारों का दूसरों पर और वातावरण पर प्रभाव धीरे−धीरे होता है। उद्वेगपूर्ण विचारों का प्रभाव तुरन्त होता है। हम तुरन्त होने वाले प्रभाव से विस्मित होकर यह सोच बैठते हैं कि शान्त विचार कुछ नहीं करते और उद्वेग पूर्ण विचार ही सब कुछ करते हैं। पर जिस प्रकार किसी बीज को वृक्ष रूप में परिणत होने के लिए शान्त शक्तियों को काम करने की आवश्यकता होती है, इसी प्रकार किसी विचार को फलित होने के लिये शान्त होने की आवश्यकता होती है और दूसरा कार्य दृश्य जगत में होता है।

🔶 शान्त विचारों से शरीर में आश्चर्य जनक परिवर्तन हो जाते हैं। लेखक का एक मित्र 20 वर्ष का युवक हो चुका था। इस समय भी वह ऊँचा और मोटाई में एक चौदह वर्षीय बालक के समान लगता था। उसने किसी शुभचिन्तक के सुझाने पर नियमित रूप से व्यायाम करना प्रारम्भ किया। थोड़े ही दिनों में वह चार इंच बढ़ गया और उसका शरीर भी पुष्ट हो गया। उसकी समझ थी कि व्यायाम ने उसे बढ़ा दिया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यायाम से उसे लाभ हुआ, पर उससे भी अधिक लाभ उसके निश्चय से हुआ। इस निश्चय के कारण प्रतिदिन के शान्त विचार उसकी भावना को प्रबल करते गये और इस प्रकार उसके शरीर में मौलिक परिवर्तन होते गये।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति, मई 1955 पृष्ठ
7

👉 THE SUBTLE DETERMINATORS OF HUMAN PERSONALITY

🔶 The dominant influences in the formation of human personality are generally believed to be environment and enterprise. But this belief holds true only to a certain extent. It is a matter of common observation that children born and brought up in similar circumstances develop major mental and emotional differences later. This is primarily on account of the basic life-elements, which go to make the person of an offspring.

🔷 These subtle influences come down over many previous generations from both paternal and maternal sides. They combine to maintain the continuity of hereditary characteristics and also mutate in a strange way to spawn entirely new traits and identities, thereby taking evolution forward.

🔶 Scientists have been able to uncover the fundamental basis of life of not only human beings but of all the life forms belonging to animal and plant worlds. Since the second half of the 20th century, a great amount of research has been made in this direction and almost daily new findings are published. This rapid and profuse work is propelled by advances in electron microscopy and cybernetics in which information from different fields are collated and integrated into a composite whole.

🔷 All living organisms from the simplest amoeba to the most complex human body have been formed by the same life-chemical, the DNA or deoxyribonucleic acid. The DNA contains in chemically coded form - the blueprint of life, i.e., all the information needed to build, control and maintain a living organism. The DNA has extremely tiny spring-like structures, which can be seen through an electron microscope. The defined stretch of DNA is called genes. The genes have memory banks and they continually feed the body cells with instructions about the formation and functioning of body organs. This way co-ordination among the billions of body cells is achieved.

🔶 DNA is found in every living organism except in human RBC and certain types of viruses. An adult human body has 600 billion “energy packets” of DNA. In shape and chemical composition, all of these are similar whether in humans or animals or even in grass blades. The key to all of life’s diversity is hidden in DNA. The particular order of its constituent bases determines whether an organism is a human or a bird, fish, insect or vegetable. An Indian-American scientist Dr. Hargovind Khurana made path-breaking discoveries about the structure of RNA (ribonucleic acid) and was awarded the Nobel Prize in 1968.

📖 From Akhand Jyoti Apr 2002

👉 भारत को ईसाई बनाने का षडयन्त्र (भाग 3)

🔶 ईसाई पादरियों तथा मिशनरियों का ऐसा ज्वलन्त आह्वान और भयानक विचार न केवल भारत के हिन्दुओं अपितु सारी गैर ईसाई जनसंख्या की आंखें खेल देने को एक खुली चुनौती है। अपने धर्म की रक्षा तथा भारतीय राष्ट्र की एकता के लिए क्या यह आवश्यक प्रतीत नहीं होता कि गैर-ईसाई जनता विदेशी मिशनरियों के अनुचित इरादों को असम्भव बना देने के लिए आवाज उठाए। यदि भारत की ईसाई जनसंख्या यों ही विदेशी मिशनरियों की गतिविधियों को उपेक्षा की दृष्टि से देख कर प्रमाद में ही पड़ी ही तो यह असम्भव बात न होगी कि ईसाई ‘ईसाई भारत’ के अपने ध्येय के बहुत कुछ समीप जा पहुंचें और तब तक क्या हिन्दू, क्या मुसलमान और क्या सिक्ख सभी धर्मों के मिट जाने का खतरा पैदा हो सकता है।

🔷 यह बात सही है कि ईसाई मिशनरियों को हिन्दुओं की अपेक्षा अन्य धर्म वालों पर अपना प्रपंच चलाना आसान नहीं पड़ता। वे मुख्यतः हिन्दुओं को ईसाई बनाने में जुटे हुए हैं, इसके दो मुख्य कारण हैं—पहला, अति धर्म-सहिष्णुता, वे धर्म-बन्धुओं के बीच इसी अति के दोष से ईसाइयत का प्रचार सहन करते जा रहे हैं। दूसरा यह कि गैर ईसाई अहिन्दुओं की धार्मिक रूढ़िवादिता के कारण ईसाई मिशनरियों को उनके बीच जाल बिछाने का अधिक अधिक अवसर नहीं मिलता अहिन्दू गैर ईसाइयों की रूढ़िवादिता उन्हें अपने बीच धंसने का साहस नहीं करने देती। किन्तु इसका यह अर्थ लगाना गलत होगा कि अहिन्दू गैर ईसाई ईसाइयों के धार्मिक षडयन्त्र से सुरक्षित है और यदि वे ऐसा सोचते हैं तो गहरी भूल करते हैं। अहिन्दू गैर ईसाइयों को भी इस षडयन्त्र की, जो ईसाइयों के बीच प्रचार-प्रपंच चला रखा है, उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और समझ लेना चाहिए कि हिन्दुओं पर किया गया आघात परीक्षा रूप में उन पर भी एक आघात है।

🔶 कैथोलिक ईसाई पत्रों के कथनों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि भारत के गैर ईसाई समुदाय से ईसाई मिशनरियों को ईर्ष्या है और वे उनकी विशाल जनसंख्या को फूटी आंखों भी नहीं देख पा रहे हैं। वे सम्पूर्ण भारत के गैर ईसाइयों को ईसाई बनाकर ‘ईसाई-भारत’ का स्वप्न देखते हैं और उसके लिए हर उचित-अनुचित उपाय करते जा रहे हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए पृष्ठ 35

👉 गुरुगीता (भाग 123)

👉 गुरूगीता के पाठ की महिमा न्यारी

🔶 गुरूगीता के महामंत्रों के मनन से शिष्य का त्राण होता है। इसका विधानपूर्वक पाठ करने से साधक के अस्तित्त्व में मंत्रयोग की सम्पूर्ण प्रक्रियाएँ घटित होती हैं। और फिर प्रारम्भ हो जाती है- अन्तस् के रूपान्तरण की आध्यात्मिक प्रक्रिया। यह सच उनको सहज में समझ आने योग्य है, जो मंत्र के वैज्ञानिक महत्त्व से परिचित हैं। मंत्र में प्रधान महत्त्व शब्दों के गुँथे होने की रीति का है। इसके अर्थ की भावना श्रेयस्कर तो है, पर इसके बिना भी मंत्र अपना चमत्कार दिखाए बिना नहीं रहते। वैसे यदि मंत्र रटन के साथ अर्थ चिन्तन जुड़ जाए, तो सोने में सुगन्ध वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। हालाँकि ऐसा न होने पर भी अकेली मंत्ररटन अपने चमत्कारों की सुनहरी चमक को बरकरार रखती है।

🔷 मंत्रों को रटने या मन ही मन उच्चारित करने से इसके सूक्ष्म कम्पन न केवल देह, प्राण व स्न्नायुमण्डल की प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं, बल्कि अस्तित्व की गहनता भी इनसे प्रेरित व परिवर्तित होती है। यह ऐसा अनुभव है, जो उन सभी को प्राप्त होता है, जो मंत्र के साधक हैं। इस साधना की प्रगाढ़ता में चित्त की वृतियाँ मंत्र की चेतना में विलीन होने लगती हैं और फिर क्रमिक रूप से चित्त मंत्र तदाकार होता है। बाद में यह तादात्म्य मंत्र के अधिदेवता से होते हुए मंत्र की सामर्थ्य के अनुसार परमात्म चेतना से हो जाता है। शाबर, डामर आदि क्षुद्र मंत्रों की बात छोड़ दे, तो गायत्री महामंत्र के साथ इस प्रक्रिया को घटित होते हुए अनुभव किया जा सकता है।

🔶 गुरूगीता- माला मंत्र है। माला मंत्रों का पाठ किए जाने की परम्परा है। इस पाठ करने से साधक के अन्तरतम में पहले गुरूतत्व की अनुभूति होती है। जिन्हें अभी तक गुरू की प्राप्ति नहीं हुई है, वे इसकी साधना से अपने सद्गुरू को पहचान सकते हैं, पा सकते हैं। जिन्हें सद्गुरू तो मिले हैं, परन्तु जो अभी अपनी देह में नहीं हैं, गुरूगीता की पाठ साधना उन्हें उनके गुरू से संवाद सुलभ करा सकती है। विधानपूर्वक यदि सहस्त्र पाठ भी हो सके, तो भी ऐसा करने वाले साधक की चेतना सूक्ष्म संकेत अवतरित होने लगती है। साधना सतत बनी रहे ,, तो साधक न केवल गुरूतत्त्व का साक्षाकार करता है, बल्कि उसे गुरूतत्त्व एवं परमात्मतत्त्व की एकरसता का भी बोध होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 186

👉 देवी संपति

🔶 यज्ञ (तन, मन, धन, लोकहित के लिये कार्य करना) तप (यज्ञ कर्म के लिये चित्त और इन्द्रियों को रोकना) दान, सत्संग, धार्मिक ग्रंथों का पठन पाठन, महात्माओं के दर्शन करने की इच्छा रखना, मन में सदैव शुभ और पवित्र विचारों को उठाते रहना, अपने कर्त्तव्य को सच्चाई और ईमानदारी से करना, अनाथ, गरीब, अपाहिजों पर दया करना और उनकी सहायता करना, विद्यादान अतिथि सेवा और मन का प्रसन्न होना आदि सभी उत्तम कर्म ईश्वर प्राप्ति के साधन हैं। गीता के 16वे अध्याय में भगवान ने इन्हीं गुणों को विस्तार के साथ देवी सम्पत्ति के नाम से कहा है और अर्जुन को बताया है कि दैवी सम्पत्ति से मोक्ष मिलता है।

🔷 भक्ति का अर्थ है सेवा। सर्वेश्वर सर्वाधार प्रभु सब प्रकार समर्थ और हमेशा तृप्त हैं, उन्हें किसी प्रकार की सेवा की आवश्यकता नहीं है। फिर उनकी सेवा का क्या मतलब और ढंग होना चाहिए? वास्तव में मन, वाणी और कर्म से प्राणी मात्र की सेवा और विशेष रूप से मनुष्य जाति की सेवा करना ही भगवान की भक्ति है। भक्ति ही मुक्ति का मार्ग है। भक्त की सभी बुरी आदतों में इतनी शीघ्रतापूर्वक परिवर्तन होना शुरू हो जाता है, जिसे देखकर सब आश्चर्यचकित हो जाते हैं। छल, कपट, स्वार्थ, ईर्ष्या आदि दोषों का नाश होकर उनके स्थान में सरलता, निष्कपटता, उदारता, प्रेम आदि शुभ गुण आने लगते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे अन्तःकरण पवित्र होने लगता है, जो एक मात्र प्रभु दर्शन का मन्दिर है।

📖 अखण्ड-ज्योति अक्टूबर 1941 पृष्ठ 20

👉 विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन

🔶 समाज का निर्माण परिवार से होता है और परिवार का विवाह से। हर नया विवाह एक नये समाज की रचना करता है। जिस प्रकार छोटी-छोटी कड़ियों को मिलाकर एक जंजीर बनती है, उसी तरह इन छोटे-छोटे परिवारों का समूह ही समाज कहलाता है। यदि सभ्य, सुविकसित, सुसंस्कृत समाज का निर्माण करना हो तो उसके लिए परिवारों के निर्माण पर ध्यान देना होगा। इस संदर्भ में यह आवश्यक है, कि विवाह का शुभारम्भ श्रीगणेश ऐसे वातावरण में हो, जो अन्त तक मंगलमय परिणाम ही उत्पन्न करता है। कहते है कि अच्छी शुरुआत में सफलता की आधी सम्भावना सन्निहित रहती है। जिसका आरम्भ ही दुर्बुद्धि एवं दुर्भावना के साथ होगा उसका विकास भी असन्तोष और संघर्षों के बीच होगा और यह क्रम अन्ततः उसे असफल ही बना देगा।

🔷 आज के अधिकाँश विवाह आगे चल कर असफल ही सिद्ध होते हैं। ऐसे कम ही जोड़े निकलेंगे जो एक मन दो शरीर बन कर रहते हों। परस्पर द्वेष दुर्भाव भरे हुए वे किसी तरह अपनी गाड़ी तो घसीटते रहते हैं, पर उसमें भीतर ही भीतर असन्तोष एवं अविश्वास की आग सुलगती रहती है। ऐसे असफल गृहस्थों की शृंखला सभ्य समाज की, सुविकसित एवं सुसंस्कृत समाज की रचना में भला क्या सहायक बन सकती है? आज यही विषम परिस्थिति चारों ओर फैली हुई है ।

🔶 समाज निर्माण की आवश्यकता सर्वत्र अनुभव की जा रही है। हर कोई जानता है कि व्यक्ति और समाज का उज्ज्वल भविष्य इसी बात पर निर्भर है कि समाज में श्रेष्ठ परम्पराएं प्रचलित हों। कोई मनस्वी व्यक्ति अपनी प्रतिभा से समाज का वातावरण बदलते हुये भी सफल होते हैं, पर अधिकतर होता यह है कि समाज की जैसी भी स्थिति एवं परम्परा होती है, उसी के अनुरूप व्यक्तियों का बनना और ढलना जारी रहता है। तदनुसार ही उस देश, समाज या जाति का उत्थान एवं पतन होता रहता है। यदि हमें नये समाज का निर्माण वस्तुतः करना हो, तो उसके मूल विवाद पर अत्यधिक ध्यान देना होगा। उसमें जो विषमता विशृंखलता एवं विकृति उत्पन्न हो गई है, उसे सुधारना होगा। इसके बिना समाज निर्माण, मानव प्रगति एवं विश्व शान्ति के सपने साकार न हो सकेंगे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1965 पृष्ठ 43
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/July/v1.43

👉 भारत को ईसाई बनाने का षडयन्त्र (भाग 2)

🔶 भारत में पादरियों का धर्म प्रचार हिन्दू धर्म को मिटाने का खुला षडयन्त्र है जो कि एक लम्बे अरसे से चला आ रहा है, अब उपेक्षावश और तीव्र तथा प्रबल हो गया है। ईसाई पादरियों के इस धर्म प्रचार का क्या उद्देश्य है? यह समय-समय पर किये उनके कथनों, लेखों तथा वक्तव्यों से सहज ही पता लग जाता है।

🔷 ‘‘लाइट आफ लाइफ’ केथोलिक पत्रिका के 1964 के जुलाई अंक में ईसाई नवयुवकों को परामर्श देते हुए निर्देश किया गया—‘‘ईसाई छात्रों तथा स्नातकों का यह कर्तव्य है कि वे ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिये पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखा करें और इस विषय में वे धर्म निरपेक्ष नीति वाली पत्र-पत्रिकाओं का लाभ उठा सकते हैं। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि वे शुरू-शुरू में ही अपने लेखों में ईसाइयत का प्रचार करने लगें। अच्छा तो यह होगा कि पहले वे सामान्य लेख लिख कर आगे चल कर के पत्रों में खुलकर ईसाई विचारधारा का प्रचार करें।’’

🔶 यह क्या है? ईसाई नवयुवकों को धर्मनिरपेक्ष पत्र-पत्रिकाओं में घुसने और उनके माध्यम से भारत में ईसाइयत फैलाने के लिए खुला प्रोत्साहन तथा आह्वान है। इसे धर्मनिरपेक्षता का अनुचित लाभ उठाने के लिए एक षडयन्त्र के सिवाय और क्या कहा जायगा? जहां धर्मनिरपेक्षता की नीति भारत के हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी को एक समान तथा सामान्य राष्ट्रीय विचारधारा में लाने का प्रयत्न कर रही है, वहां विदेशी मिशनरी ईसाई नवयुवकों की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर उन्हें अपने षडयन्त्र का सहायक अस्त्र बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। क्या भारत के राष्ट्रीय हित में यह सहन करने योग्य बात है?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए पृष्ठ 34

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 3 June 2018

👉 आज का सद्चिंतन 3 June 2018


👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...