🔷 प्रेम का तत्व सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त है किन्तु कही अधिक और कही कम। अपनत्व सभी में स्थित है पशु पक्षी मानव आदि सभी अपने का प्यार कतरे है। डाकू दूसरों की हत्या करता है किन्तु अपनी तथा अपने बाल बच्चों की सुरक्षा का ध्यान रखता है। हिंसक सिंह भी पशुओं का भक्षण करता है। किन्तु अपनी सिंहनी के प्रति प्रेम का ही व्यवहार करता है विकराल सर्प दूसरों के लिए काल है किन्तु अपनी नागिन के लिये प्रेम विह्वल है। यदि प्रेम या निजत्व न हो तो सृष्टि ही नष्ट हो जावे।
🔶 जब कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के लिए प्रति अपने “मैं” को छोड़ देता है तो उसे प्रेम कहते हैं जब कोई ‘सर्व’ के प्रति अपने ‘मैं’ को छोड़ देता है तो वह भक्ति कहलाती है। मानव में प्रभु के मिलन के लिए प्रेम आवश्यक है। श्री रामानुजाचार्य के पास एक व्यक्ति दीक्षित होने आया और बोला प्रभु के पाने के लिए आप मुझे दीक्षा दीजिए। श्री रामानुजाचार्य बोले तुमने किसी से प्रेम किया है उसने कहा कि नहीं हम तो प्रभु से मिलना चाहते हैं। तब रामानुजाचार्य बोले मैं दीक्षा देने में असमर्थ हूँ क्योंकि यदि तुम्हारे पा सप्रेम होता तो मैं उसे परिशुद्ध कर ईश्वर की ओर ले जाता लेकिन तुम में प्रेम ही नहीं है।
🔷 आज कल प्रेम के विषय में गलत भ्रान्ति है। काम को ही प्रेम समझा जाता है। इस भ्रम के फैलाने में सिनेमा गन्दे उपन्यास तथा कहानियों का प्रधान हाथ है। जो दर्शकों और पाठकों को गलत दिशा दे रहे हैं। काम प्रेम का आभास तथा भ्रम है। जैसे कोई व्यक्ति कोहरे का धुँआ समझ लेता है मृग मरुभूमि में प्रकाश के झिलमिलाने से उसे पानी समझ लेता है। और प्यास बुझाते को दौड़ता है। जिसे मृग तृष्णा कहते हैं। जैसे उसे आभास और भ्रम हो जाता है। वैसे ही मान को भी काम में प्रेम का आभास या भ्रम दिखाई देता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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