रविवार, 12 सितंबर 2021

👉 !! चिंता !!

एक राजा की पुत्री के मन में वैराग्य की भावनाएं थीं। जब राजकुमारी विवाह योग्य हुई तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।

राजा ने पुत्री की भावनाओं को समझते हुए बहुत सोच-विचार करके उसका विवाह एक गरीब संन्यासी से करवा दिया। राजा ने सोचा कि एक संन्यासी ही राजकुमारी की भावनाओं की कद्र कर सकता है।

विवाह के बाद राजकुमारी खुशी-खुशी संन्यासी की कुटिया में रहने आ गई। कुटिया की सफाई करते समय राजकुमारी को एक बर्तन में दो सूखी रोटियां दिखाई दीं। उसने अपने संन्यासी पति से पूछा कि रोटियां यहां क्यों रखी हैं? संन्यासी ने जवाब दिया कि ये रोटियां कल के लिए रखी हैं, अगर कल खाना नहीं मिला तो हम एक-एक रोटी खा लेंगे। संन्यासी का ये जवाब सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी। राजकुमारी ने कहा कि मेरे पिता ने मेरा विवाह आपके साथ इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें ये लगता है कि आप भी मेरी ही तरह वैरागी हैं, आप तो सिर्फ भक्ति करते हैं और कल की चिंता करते हैं।

सच्चा भक्त वही है जो कल की चिंता नहीं करता और भगवान पर पूरा भरोसा करता है। अगले दिन की चिंता तो जानवर भी नहीं करते हैं, हम तो इंसान हैं। अगर भगवान चाहेगा तो हमें खाना मिल जाएगा और नहीं मिलेगा तो रातभर आनंद से प्रार्थना करेंगे।

ये बातें सुनकर संन्यासी की आंखें खुल गई। उसे समझ आ गया कि उसकी पत्नी ही असली संन्यासी है। उसने राजकुमारी से कहा कि आप तो राजा की बेटी हैं, राजमहल छोड़कर मेरी छोटी सी कुटिया में आई हैं, जबकि मैं तो पहले से ही एक फकीर हूं, फिर भी मुझे कल की चिंता सता रही थी। सिर्फ कहने से ही कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास को जीवन में उतारना पड़ता है। आपने मुझे वैराग्य का महत्व समझा दिया।

शिक्षा:
अगर हम भगवान की भक्ति करते हैं तो विश्वास भी होना चाहिए कि भगवान हर समय हमारे साथ है। उसको (भगवान) हमारी चिंता हमसे ज्यादा रहती हैं।

कभी आप बहुत परेशान हों, कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा हो तो आप आँखें बंद करके विश्वास के साथ पुकारें, सच मानिये थोड़ी देर में आपकी समस्या का समाधान मिल जायेगा।

सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६२)

तत्वदर्शन से आनन्द और मोक्ष

इसी उपनिषद् में आगे क्रमशः इसे विक्षेप से आत्मा, आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी आदि उत्पन्न हुए बताये हैं। वस्तुतः यह परतें एक ही तत्व की क्रमशः स्थूल अवस्थायें हैं, जो स्थूल होता गया वह अधिकाधिक दृश्य, स्पर्श होता गया। ऊपरी कक्षा अर्थात् ईश्वर की ओर वही तत्व अधिक चेतन और निर्विकार होता गया। वायु की लहरों के समान विभिन्न तत्व प्रतिभासिक होते हुए भी संसार के सब तत्व एक ही मूल तत्व से आविर्भूत हुए हैं उसे महाशक्ति कहा जाये, आत्मा या परमात्मा सब एक ही सत्ता के अनेक नाम हैं।

विज्ञान की आधुनिक जानकारियां भी उपरोक्त तथ्य का ही प्रतिपादन करती हैं। कैवल्योपनिषद् में पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यताओं और अपने पूर्वात्म दर्शन को एक स्थान पर लाकर दोनों में सामंजस्य व्यक्त किया गया है और कहा है—

यत् परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत् ।
सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं नित्यं तत्वमेव त्वमेव तत् ।।16।।
अणोरणीयान्हमेव तद्वत्महान्
विश्वमिदं विचित्रम् ।
पुरातनोऽहं पुरुषोऽमीशो
हिरण्ययोऽहं शिवरूपमस्मि ।।20।।

अर्थात्—जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जिसे सूक्ष्म यन्त्रों से भी नहीं देखा जा सकता जो इस संसार के इन समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों की आत्मा है, वही तुम हो, तुम वही हो। और ‘‘मैं छोटे से भी छोटा और बड़े से भी बड़ा हूं, इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिये। मैं ही शिव और ब्रह्मा स्वरूप हूं, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूं।’’

उपरोक्त कथन में और वैज्ञानिकों द्वारा जीव-कोश से सम्बंधित जो अब तक की उपलब्धियां हैं, उनमें पाव-रत्ती का भी अन्तर नहीं है। प्रत्येक जीव-कोश का नाभिक (न्यूक्लियस) अविनाशी तत्व है वह स्वयं नष्ट नहीं होता पर वैसे ही अनेक कोश (सेल्स) बना देने की क्षमता से परिपूर्ण है। इस तरह कोशिका की चेतना को ही ब्रह्म की इकाई कह सकते हैं, चूंकि वह एक आवेश, शक्ति या सत्ता है, चेतन है, इसलिये वह अनेकों अणुओं में भी व्याप्त इकाई ही है। इस स्थिति को जीव भाव कह सकते हैं पर तो भी उनमें पूर्ण ब्रह्म की सब क्षमतायें उसी प्रकार विद्यमान् हैं, जैसे समुद्र की एक बूंद में पानी के सब गुण विद्यमान् होते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १००
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६२)

समस्त साधनाओं का सुफल है भक्ति

फिर उन्होंने ब्रह्मर्षि वसिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की ओर देखते हुए कहा- ‘‘आप दोनों तो जानते ही हैं कि मेरे प्राण तो ‘राम’ में बसते थे। ‘राम’ का नाम ही मेरे अस्तित्त्व का सारभूत तत्त्व है। देवाधिदेव भोलेनाथ यही कहते हैं। यही कारण है कि मैं और भोलेनाथ सदा ही श्रीराम को कहते-सुनते रहते हैं। अब जब यहाँ शबरी की कथा सुना रहे थे तो उसे सुनकर मेरे यहाँ विराज रहे भोलेनाथ एवं माता पार्वती के नेत्र अश्रु से भीग गए। उन्होंने नारद की बड़ी प्रशंसा करते हुए रामभक्त गिलहरी की कथा सुनायी। भोलेनाथ के मुख से सुनकर यह कथा मुझे बहुत भायी। आप आदेश दें तो यह कथा मैं आप सब को भी सुनाऊँ।’’
    
‘‘हम सब धन्य हो जाएँगे भगवन्!’’ वसिष्ठ, विश्वामित्र के साथ सप्तर्षिगण व देवर्षि नारद सहित अन्य ऋषियों एवं देवों ने कहा। उनमें से कोई भी इस अहोभाग्य को खोना नहीं चाहता था। महर्षि अगस्त्य तो श्रीराम कथा के परम आनन्द को वितरित करने के लिए व बटोरने के लिए सदा ही तैयार रहते थे। उन्होंने बिना पल की देर लगाए कहना शुरू किया, ‘‘घटना सेतुबन्धन के समय की है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम वानर-भालुओं के साथ सेतुबन्धन का कार्य सम्पन्न कर रहे थे। सभी इस कार्य में तत्पर व तल्लीन थे। भक्तराज महावीर हनुमान भी विशालकाय पर्वत शिलाओं को शीघ्र लाकर नल-नील के हाथों में थमा रहे थे।
    
यह अपूर्व दृश्य था। यह कहते हुए ऋषि अगस्त्य जैसे भावसमाधि में प्रवेश कर उस बीते युग को निहारने लगे। कुछ क्षणों के बाद उनके मुख से उच्चारित हुआ, उसी समय महावीर हनुमान ने देखा कि एक क्षुद्र प्राणी इधर-उधर दौड़ रहा है। उन्होंने उसे अपने हाथों में थाम लिया, तुम यहाँ क्यों दौड़-भाग कर रहे हो, यहाँ तुम्हें चोट लग सकती है। चोट से क्या डर, उस क्षुद्र प्राणी ने कहा- रामकाज में प्राण निकलें, मेरी तो यही कामना है। तुम क्या रामकाज कर रही हो गिलहरी? वह क्षुद्र प्राणी गिलहरी थी, उससे हनुमान ने पूछा। मैं आपकी ही भांति प्रभु के सेतुबन्धन में सहयोगी हूँ। अब आपकी भांति भारी-भरकम शिलाएँ तो ला नहीं सकती इसलिए मैं धूल में लोटकर अपने शरीर के रोएँ में धूल भर लेती हूँ, फिर जहाँ सेतु बन रहा है, वहाँ यह धूल झाड़ देती हूँ। बहुत ज्यादा न सही लेकिन कुछ सहयोग तो कर ही रही हूँ।
    
उस गिलहरी की बातें सुनकर महावीर हनुमान का भी कण्ठ रुद्ध हो गया। उनके भाव भीग गए। वह चाहते थे कि वे उसे भगवान तक पहुँचा दे। परन्तु गिलहरी ने उनसे कहा- तुम तो भली-भाँति प्रभु का स्वभाव जानते हो महाबली! वे भला अपने भक्त को कब बिसारते हैं। वे स्वयं ही मुझे बुला लेंगे, तब तक मुझे अपना काम करने दें। ऐसा कहकर वह गिलहरी हनुमान के हाथों से उछलकर अपने उसी काम में जुट गयी। हनुमान चकित हो उसकी भक्ति को निहारते रहे। उन्होंने सोचा- भगवान तो संकटहारी हैं, अगर यह भक्त संकट में पड़े तो वे जरूर उसे अपने पास बुला लेंगे। ऐसा सोचकर उन्होंने अपने पाँव के नाखून से बहुत धीरे से गिलहरी की पूँछ दबा दी। उस गिलहरी ने इस पीड़ा से तड़पकर राम नाम का स्मरण किया।
    
भक्त गिलहरी की पीड़ा से विकल भगवान् राम दौड़ कर आए और उस गिलहरी को अपने हाथों में उठा लिया। फिर हनुमान की ओर कृत्रिम रोष से देखते हुए गिलहरी से बोले- प्रिय गिलहरी! तुम महाबली को उनके इस कृत्य के लिए क्या दण्ड देना चाहती हो। उत्तर में गिलहरी मुस्करा दी और बोली- प्रभु! भला भक्तों के संकटमोचन, कभी किसी भक्त को संकट में डाल सकते हैं। इन्होंने मुझे आप तक पहुँचाने के लिए यह किया था। इसलिए इन्हें तो पुरस्कार मिलना चाहिए। गिलहरी के इस कथन पर हनुमान की आँखें भीग गयीं और श्रीराम मुस्करा दिए।’’ अपनी इस कथा को सुनाते हुए ऋषि अगस्त्य बोले- ‘‘भक्ति तो सभी साधनाओं का सुफल है।’’ अगस्त्य के इन वचनों पर पुलकित होते हुए देवर्षि बोल उठे- ‘‘आपने मेरे अन्तःकरण की बात कह दी। मेरा अगला सूत्र भी यही कहता है-
‘फलरूपत्वात्॥२६॥’
यह भक्ति फलरूपा है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११०

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