गुरुवार, 4 अगस्त 2016

👉 समाधि के सोपान (भाग 8) 4 AUG 2016 (In The Hours Of Meditation)


ओम तत् सत्
शिष्य प्रशंसा एवं कृतज्ञता से उत्तर देता है : --

🔴 ओ मेरे नाथ ! मेरे प्रभु ! मेरे सर्वस्व ! मुझे यही शिक्षा दी गई है। गुरु ही ईश्वर हैं। वे दिव्य सत्य में विसर्जित होने को व्यग्र हैं। उनका दर्शन ईश्वर का दर्शन है। मेरी आत्मा की मुक्ति के लिए उनका उत्साह अथक है। गुरु की आँखों से मैं भी दर्शन पाता हूँ। सच्चा प्रेम मृत्यु से भी अधिक बलवान है। अरे, वह जन्म से भी अधिक बलवान है। जन्म और मृत्यु उनके सान्निध्य से अलग कर सकते हैं ? मैं कहता हूँ- झूठ !! गुरु हैं। क्या मैं कभी ईश्वर से अलग किया जा सकता हूँ ? उनका नाम लेकर संघर्ष करते हुए मैं इस अंधकार समुद्र के उस पार हो जाऊँगा जहाँ सब ज्ञान और प्रकाश है। 

🔵 मैं निर्भयता पूर्वक, न समाप्त होने वाले भ्रम के इस जंगल में बढ़ता चला जाऊँगा क्योंकि वे मेरी सभी गतिविधियों को देख रहे हैं और यदि मैं गिर जाऊँ तो वे मुझे उठा देंगे। मेरे रास्ते में काँटे हैं, देखो ! वे उन्हें दूर कर देंगे। संशय और प्रलोभन के वन्य पशु मुझ पर भले आक्रमण करें। वे उनका वध कर देंगे। या कदाचित् वे मुझे उनके रास्ते में पड़ने देंगे जिससे कि मैं अपनी शक्ति को जान सकूँ। वे मुझे उनके साथ संघर्ष करने देंगे। और जब तक मनुष्य ने अपनी परीक्षा नहीं कर ली है तब तक वह उनकी (ईश्वर की) शक्ति को कैसे जान सकता है।

🔴 जन्म और मृत्यु मेरे लिए कुछ भी नहीं है। मैं सभी सीमाओं को काट डालूँगा। मैं सभी बंधनों के परे चला जाऊँगा। मैं उनमें दिव्यता के दर्शन करूँगा। हे गुरुवर ! ठीक वही सत्य जो मुझमें है वही तो आप में भी है। आप सूर्य हैं और मैं रश्मि हूँ और यह भी कि मैं सूर्य हूँ और आप रश्मि। उपनिषद् का महावाक्य 'तत् त्वम् असि ', तू वही है, आप पर भी लागू होता है तथा मुझ पर भी। ओ, उस अनिर्वचनीय एकत्व की चेतना ! गुरु को गुरुरूप में प्रणाम ! गुरु को ईश्वररूप में प्रणाम।

ओम् तत् सत !।
तत् त्वम् असि !!
अह ब्रह्मास्मि !!!

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

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