रविवार, 29 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७५)

एक से ही हों एकाकार
    
भक्त के जीवन में यह एक तत्त्व उसके भगवान् होते हैं। उसका हृदय सदा अपने आराध्य की स्मृति से स्पन्दित होता है। अपने आराध्य के प्रति उसकी भावनाएँ इतनी सघन होती हैं कि उसे यह अभ्यास करना नहीं पड़ता, बल्कि अपने आप बरबस होता चलता है। ध्रुव हो या प्रह्लाद, मीरा हो या रैदास इनके मन-प्राण, विचार- भावनाएँ सदा अपने भगवान् में रमे रहते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस को माँ कहते ही भाव समाधि घेर लेती थी। सच तो यह है कि भक्तों के लिए बड़ा सहज होता है—अपने भगवान् में रमना। वह अपने भगवान् में इतनी प्रगाढ़ता से रमता है कि सभी अवरोध अपने आप ही विलीन होते जाते हैं। 
    
बात मीरा की करें, तो उनके कृष्ण प्रेम की डगर सहज नहीं थी। इस डगर पर चलने वाली मीरा को राणा जी कभी साँप का पिटारा भेजते थे, तो कभी विष का प्याला, लेकिन इन विघ्नों से मीरा को कभी घबराहट नहीं होती। वह तो सदा यही कहती रहती- ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’। सच तो यह है कि भक्त के जीवन का दर्शन ही ‘दूसरो न कोई’ है। किसी और का चिन्तन उसे सुहाता नहीं है। तभी तो गोपियाँ ज्ञान सिखाने आए उद्धव को समझाने लगती हैं- ‘ऊधौ मन नाहीं दस-बीस, एक हुतो सो गयो स्याम संग को आराधै ईस’।
    
भक्त के लिए बड़ा सजह होता है एक तत्त्व का अभ्यास। क्योंकि वही जानता है ‘एक’ में छिपा सत्य। बात है तो खरी, पर कहे बिना रहा भी नहीं जाता। प्रेम की रीति तो भक्त ही जानता है। जिसे दुनिया प्रेम, प्यार का नाम देती है, वह तो वासनाओं की गंदेला कीचड़ में लिपटने, लिपटाने के सिवा और क्या है? देखा यही जाता है कि सारी उम्र प्यार-प्रेम का राग अलापने वाले अपने हठ, जिद एवं अहं को थामे रहते हैं। अब हठ, जिद एवं अहं के विषधरों को पालने वाले भला क्या जानेंगे कि प्रेम तो ‘सीस उतारै भुइँ धरै’ का सौदा है। कबीर ने जाना था इस सच को, तभी तो उन्होंने कहा कि ‘प्रेम गली अति साँकरी, जामे दुइ न समाहिं’। यानि कि प्रेम की  गली अति सँकरी है, इसमें दो आ ही नहीं सकते।
    
बड़ा गहरा अर्थ है इस बात में। जो प्रेम में जीता है, वही इस रहस्य को जानता है। जब प्रेम शुरू होता है, तब दो होते हैं, एक भक्त, दूसरा भगवान्। लेकिन भक्त की दीवानगी अपने भगवान् के लिए इतनी गहरी होती है कि अपने आप को मिटाने के लिए ठान लेता है। उसकी कोशिश होती है कि मेरा अस्तित्व भगवान् में विलीन हो जाए। भक्त रहे ही नहीं भगवान् ही बचे। और होता भी यही है कि भगवान् ही बचता है। 
    
भगवान् से प्रेम संसार में बड़ी विरल घटना के रूप में सामने आता है। बड़ी बड़भागी होती है वे आत्माएँ, जो मीरा बनकर प्रकट होती हैं। पर एक प्रेम- एक भक्ति की शुरूआत थोड़ी आसान है। और वह है गुरुभक्ति, अपने गुरु से प्रेम। पतंजलि प्रणीत एक तत्त्व के अभ्यास का यह बड़ा सरल एवं अनुभूत उपाय है। परम पूज्य गुरुदेव ने स्वयं अपने जीवन में यही सच साधा था। आज उनके शिष्यों के सामने भी यही सुपथ है। अपने गुरु का ध्यान, उन्हीं का चिन्तन, उनकी ही कथा, वार्ता और उन्हीं का ही काम। जो ऐसा करते हैं, उनके जीवन में एक तत्त्व का अभ्यास स्वयं ही होने लगता है। और इसके परिणाम स्वरूप योग साधना के विघ्नों का निराकरण भी होता जाता है। यह कथन न तो कोरी कल्पना है, और न ही किसी तार्किकता का निष्कर्ष। यह तो अनुभूति में सनी, पगी बात है, पढ़ने वाले चाहे तो वे भी कर लें। जिस गति से वे इस गुरुभक्ति की डगर पर चलेंगे, उसी तीव्रता से उनकी साधना में आने वाले विघ्नों का शमन होगा। पर यह सच निर्मल चित्त वालों को ही समझ में आएगा।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १२८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 अपना सुधार−संसार का सुधार

अपने सुधार के बिना परिस्थितियाँ नहीं सुधर सकतीं। अपना दृष्टिकोण बदले बिना जीवन की गतिविधियाँ नहीं बदली जा सकती हैं। इस तथ्य को मनुष्य जितनी जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा है। हम दूसरों को सुधारना चाहते हैं पर इसके लिए समर्थ वहीं हो सकता है जो पहले इस सुधार के प्रयोग को अपने ऊपर आजमा कर योग्यता की परीक्षा दे दे। दूसरे लोग अपना कहना न मानें यह हो सकता है पर हम अपनी बात स्वयं ही न मानें इसका क्या कारण है? अपनी मान्यताओं को यदि हम स्वयं ही कार्य रूप में परिणित न करेंगे तो फिर सभी स्त्री बच्चों से, मित्र पड़ौसियों से या सारे संसार से यह आशा कैसे करेंगे कि वे अपनी बुरी आदतों को छोड़कर उस उत्तम मार्ग पर चलने लगें जिसकी कि आप शिक्षा देते हैं।

अपना मन अपना है, उसे समझाना और सुधारना तो अपने वश क बात हो ही सकती है। बाहरी अस्वच्छता साफ करने में कुछ अड़चने आवें यह बात समझ में आती है पर अपना घर, अपना मन भी साफ सुथरा न बनाया जा सकने में कौन बहानेबाजी ठीक जँचेगी? यह कार्य कोई देवता या गुरु कर देगा यह सोचना व्यर्थ है। हर आदमी अपने को स्वयं ही सुधार या बिगाड़ सकता है, दूसरे लोग इस कार्य में सहायता कर सकते हैं पर रोटी खाने, दही जमने, विद्या पढ़ने की तरह मन को सुधारने का काम भी स्वयं करना पड़ेगा। हमारे बदले की कोई दूसरा रोटी खा लिया करे, कोई दूसरा टट्टी हो आया करे यह नहीं हो सकता इसी प्रकार यह भी नहीं हो सकता कि किसी दूसरे के आशीर्वाद या वरदान से हमारी मानसिक अस्वच्छता दूर हो जाय। यह कार्य स्वयं ही करना होगा हमें भी स्वयं ही करना पड़ेगा। संसार के सुधार का आन्दोलन करना चाहिए पर संसार में, समाज में सबसे पहला वह व्यक्ति कौन हो सकता है जिससे सुधार कार्य आरंभ किया जाय? वह हम स्वयं ही हो सकते हैं। अपने प्रयत्न से अपने को सुधार कर ही हम संसार और समाज की सेवा कर सकने के अधिकारी सिद्ध हो सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

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