मंगलवार, 6 जून 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 6 June 2023

🔷 दुनिया की तीन मूर्खताएँ उपहासास्पद होते हुए भी कितनी व्यापक हो गई हैं यह देखकर आश्चर्य होता है-

🔶 पहली यह कि लोग धन को शक्ति मानते हैं।
-दूसरी यह कि लोग अपने को सुधारे बिना दूसरों को धर्मोपदेश देते हैं।
-तीसरी यह कि कठोर श्रम से बचे रहकर भी लोग आरोग्य की आकाँक्षा  करते हैं।

🔷 संयम शरीर में अवस्थित भगवान् है। सद्विचार मस्तिष्क में निवास करने वाला परमेश्वर है। अंतरात्मा में  ईश्वर की और भी ऊँची झाँकी देखनी हो तो सद्भावनाओं के रूप में देखनी चाहिए। ईश्वर दर्शन के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं, उसे अपने भीतर ही देखा जाना चाहिए। उसे प्राप्त करने के लिए संयम, सद्विचार और सद्भाव का विकास करना चाहिए। यही है यथार्थ सत्ता और चैतन्य-चित्त, परिष्कृत आत्मा-परमात्मा की उपलब्धि। इसी भक्तियोग का साधक सच्चे अर्थों में जीवन लाभ व सच्च आनंद प्राप्त करता है।

🔶 धर्म पर श्रद्धा रखो, नीति को आचरण में उतारो, अपना उद्धार आप करो, हँसी और मुस्कराहट बिखेरो। जो कार्य करना पड़े उसमें दूसरों की भलाई के तत्त्व जोड़े रखो। अपनी रीति-नीति ऐसी बनाओ जिस पर स्वयं को संतोष मिले और दूसरों को प्रेरणा-यह आत्म कल्याण का मार्ग है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (अन्तिम भाग)

बुद्धिमान व्यक्ति अपने लाभ और हित के लिये हर बात के अच्छे-बुरे दो पहलूओं में से केवल गुण पक्ष पर ही दृष्टि डालता है। क्योंकि वह जानता है, कि विपक्ष पर ध्यान देने, उसको ही देखते रहने से मन को अशाँति के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा, दोष-दृष्टि रखने और दोषान्वेषक करने से घृणा तथा द्वेष का ही प्रादुर्भाव होता है, जिसका परिणाम कलह-क्लेश अथवा अशाँति असन्तोष के सिवाय और कुछ नहीं होता। इससे वस्तु अथवा व्यक्ति की तो कुछ हानि होती नहीं अपना हृदय कलुषित और कलंकित होकर रह जाता है।

अपने दृष्टि-दोष के कारण प्रायः अच्छी चीजें भी बुरी और गुण भी अवगुण होकर हानिकारक बन जाते हैं। जैसे स्वाँति-जल का ही उदाहरण ले लीजिये। स्वाँति की बूँद जब सीप के मुख में पड़ जाती है, तब मोती बन कर फलीभूत होती है और यदि वही बूँद साँप के मुख में पड़ जाती है तो विष का रूप धारण कर लेती हैं। वस्तु एक ही है किन्तु वह उपयोग और संपर्क के गुण दोष के कारण सर्वथा विपरीत परिणाम में फलीभूत हुई।

किसी में गुण की कल्पना न कर सकने के कारण दोषदर्शी अविश्वासी भी होता है। वह किसी की सद्भावना एवं सहानुभूति में भी कान खड़े करने लगता है। प्रेम एवं प्रशंसा में भी स्वार्थपूर्ण चाटुकारिता का दोष देखता है। इसलिये संपर्क में आने और स्नेहपूर्ण बरताव करने वाले हर व्यक्ति से भयाकुल और शंकाकुल रहा करता है। उसे विश्वास ही नहीं होता कि संसार में कोई निःस्वार्थ और निर्दोष-भाव से मिल कर हितकारी सिद्ध हो सकता है। विश्वास, आस्था, श्रद्धा, सराहना से रहित व्यक्ति का खिन्न असंतुष्ट और व्यग्र रहना स्वाभाविक ही है, जैसा कि दोष-दर्शी रहता भी है।

यदि आपको अपने अन्दर इस प्रकार की दुर्बलता दिखी हो तो तुरन्त ही उसे निकालने के लिए और उसके स्थान पर गुण-ग्राहकता का गुण विकसित कीजिये। इस दशा में आपको हर व्यक्ति, वस्तु और वातावरण में आनंद, प्रशंसा अथवा विनोद की कुछ-न-कुछ सामग्री मिल ही जायेगी। दूसरों के गुण-दोषों में से उस हंस की तरह केवल गुण ही ग्रहण कर सकेंगे, जोकि पानी मिले हुए दूध में से केवल दूध-दूध ही ग्रहण कर लेता है और पानी छोड़ देता है।

दूसरों की अच्छाइयों को खोजने, उनको देख-देख प्रसन्न होने और उनकी सराहना करने का स्वभाव यदि अपने अन्दर विकसित कर लिया जाये तो आज दोष-दर्शन के कारण जो संसार, जो वस्तु और जो व्यक्ति हमें काँटे की तरह चुभते हैं, वे फूल की तरह प्यारे लगने लगें। जिस दिन यह दुनिया हमें प्यारी लगने लगेगी, इसमें दोष, दुर्गुण कम दिखाई देंगे, उस दिन हमारे हृदय से द्वेष एवं घृणा का भाव निकल जायेगा और हमें हर दिशा और हर वातावरण में प्रसन्नता ही आने लगेगी। दुःख, क्लेश और क्षोभ, रोष का कोई कारण ही शेष न रह जायेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मई 1968, पृष्ठ 24



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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...