बन्धन तीन हैं। वासना, तृष्णा, और अहंता। वासनाओं की स्वामिनी जननेन्द्रिय है वह यौनाचार से ही तृप्त नहीं होती वरन् चिन्तन क्षेत्र में भी कामुकता के रूप में समय कुसमय छाई रहती और कल्पना चित्र बनाती रहती है। मनुष्य इसी से बन्धन में बँधता है। विवाह करता है। उसके साथ ही सन्तानोत्पादन का सिलसिला चल पड़ता है। स्त्री बच्चों की जिम्मेदारी साधारण नहीं होती। पूरा जीवन इसी प्रयोजन के लिए खपा देने पर भी उसमें कमी ही रह जाती है और मरते समय तक मनुष्य इन्हीं की चिन्ता करता रहता है। इस पूरे प्रपंच को ऐसा बन्धन समझना चाहिए जिसे बाँधता तो मनुष्य हँसी-खुशी से है पर फिर उसी बोझ से इतना लद जाता है अन्य कोई महत्वपूर्ण काम नहीं कर पाता।
अहन्ता से छुटकारा पाने के लिए शिष्टता, नम्रता, विनयशीलता, सज्जनता अपनाने पर तो आत्मसन्तोष और लोग सम्मान का लाभ मिलता है उस पर विचार करना चाहिए। उद्धत आचरणों में दूसरों पर छाप डालने के लिए जितना दम्भ अपनाना पड़ता ह उसका बचकानापन समझा जा सकता सके तो अहंकारी को अपने ऊपर आप हंसी आती है और शालीनता अपनाकर दूसरों को सम्मान देने का मार्ग चना जा सके तो अहंकार का दुर्गुण सहज शान्त हो सकता है। शरीर सत्ता को मलमूत्र की गठरी मानने वाला, मृत्यु के मुख में ग्रास की तरह अटका हुआ तुच्छ प्राणी किस बात का अहंकार करे?
आत्मा के यथार्थ और पवित्र स्वरूप को समझना ही आत्मज्ञान है। होता यह है कि हम भ्रमवश अपने ‘स्व’ को शरीर में इस कदर घुला लेते हैं कि अनुभव में नहीं आता रहता है कि हम मात्र शरीर हैं। उसी की इच्छाओं को अपनी इच्छा मान लेते हैं और उसी की तुष्टि से प्रसन्नता अनुभव करने लगते हैं। आत्मा की चर्चा तो प्रसंगवश करते हैं पर कभी ऐसा आभास नहीं होता है कि हमारा ‘स्व’ शरीर से पृथक है और उसकी समस्याएँ आवश्यकताएँ शरीर से भिन्न हैं।
अहन्ता से छुटकारा पाने के लिए शिष्टता, नम्रता, विनयशीलता, सज्जनता अपनाने पर तो आत्मसन्तोष और लोग सम्मान का लाभ मिलता है उस पर विचार करना चाहिए। उद्धत आचरणों में दूसरों पर छाप डालने के लिए जितना दम्भ अपनाना पड़ता ह उसका बचकानापन समझा जा सकता सके तो अहंकारी को अपने ऊपर आप हंसी आती है और शालीनता अपनाकर दूसरों को सम्मान देने का मार्ग चना जा सके तो अहंकार का दुर्गुण सहज शान्त हो सकता है। शरीर सत्ता को मलमूत्र की गठरी मानने वाला, मृत्यु के मुख में ग्रास की तरह अटका हुआ तुच्छ प्राणी किस बात का अहंकार करे?
आत्मा के यथार्थ और पवित्र स्वरूप को समझना ही आत्मज्ञान है। होता यह है कि हम भ्रमवश अपने ‘स्व’ को शरीर में इस कदर घुला लेते हैं कि अनुभव में नहीं आता रहता है कि हम मात्र शरीर हैं। उसी की इच्छाओं को अपनी इच्छा मान लेते हैं और उसी की तुष्टि से प्रसन्नता अनुभव करने लगते हैं। आत्मा की चर्चा तो प्रसंगवश करते हैं पर कभी ऐसा आभास नहीं होता है कि हमारा ‘स्व’ शरीर से पृथक है और उसकी समस्याएँ आवश्यकताएँ शरीर से भिन्न हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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