गुरुवार, 5 अक्टूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 5 Oct 2023

बन्धन तीन हैं। वासना, तृष्णा, और अहंता। वासनाओं की स्वामिनी जननेन्द्रिय है वह यौनाचार से ही तृप्त नहीं होती वरन् चिन्तन क्षेत्र में भी कामुकता के रूप में समय कुसमय छाई रहती और कल्पना चित्र बनाती रहती है। मनुष्य इसी से बन्धन में बँधता है। विवाह करता है। उसके साथ ही सन्तानोत्पादन का सिलसिला चल पड़ता है। स्त्री बच्चों की जिम्मेदारी साधारण नहीं होती। पूरा जीवन इसी प्रयोजन के लिए खपा देने पर भी उसमें कमी ही रह जाती है और मरते समय तक मनुष्य इन्हीं की चिन्ता करता रहता है। इस पूरे प्रपंच को ऐसा बन्धन समझना चाहिए जिसे बाँधता तो मनुष्य हँसी-खुशी से है पर फिर उसी बोझ से इतना लद जाता है अन्य कोई महत्वपूर्ण काम नहीं कर पाता।                          

अहन्ता से छुटकारा पाने के लिए शिष्टता, नम्रता, विनयशीलता, सज्जनता अपनाने पर तो आत्मसन्तोष और लोग सम्मान का लाभ मिलता है उस पर विचार करना चाहिए। उद्धत आचरणों में दूसरों पर छाप डालने के लिए जितना दम्भ अपनाना पड़ता ह उसका बचकानापन समझा जा सकता सके तो अहंकारी को अपने ऊपर आप हंसी आती है और शालीनता अपनाकर दूसरों को सम्मान देने का मार्ग चना जा सके तो अहंकार का दुर्गुण सहज शान्त हो सकता है। शरीर सत्ता को मलमूत्र की गठरी मानने वाला, मृत्यु के मुख में ग्रास की तरह अटका हुआ तुच्छ प्राणी किस बात का अहंकार करे?                                                         

आत्मा के यथार्थ और पवित्र स्वरूप को समझना ही आत्मज्ञान है। होता यह है कि हम भ्रमवश अपने ‘स्व’ को शरीर में इस कदर घुला लेते हैं कि अनुभव में नहीं आता रहता है कि हम मात्र शरीर हैं। उसी की इच्छाओं को अपनी इच्छा मान लेते हैं और उसी की तुष्टि से प्रसन्नता अनुभव करने लगते हैं। आत्मा की चर्चा तो प्रसंगवश करते हैं पर कभी ऐसा आभास नहीं होता है कि हमारा ‘स्व’ शरीर से पृथक है और उसकी समस्याएँ आवश्यकताएँ शरीर से भिन्न हैं।     

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है

जब तक आप दूसरों पर आश्रित रहते हैं या समझते हैं कि हमारे कष्टों को कोई और दूर करेगा, तब तक बहुत बड़े भ्रम में हैं। जो उलझनें आपके सामने हैं, उनका दु:खदायी रूप अपनी त्रुटियों के कारण है। उन त्रुटियों को दूर करके आप स्वयं ही अपनी उलझनें सुलझा सकते हैं।

संसार में सफलता प्राप्त करने की आकांक्षा के साथ ही अपनी योग्यता में वृद्धि करना भी आरंभ कीजिए। आपका भाग्य किस प्रकार लिखा जाए, इसका निर्णय करते समय विधाता आपकी आतंरिक योग्यताओं की परख करता रहता है। उन्नति करने वाले गुणों को यदि अधिक मात्रा में जमा कर लिया गया है, तो भाग्य में उन्नति का लेखा लिखा जाएगा और यदि उन्नायक गुणों को अविकसित पड़ा रहने दिया गया है, दुर्गुणों को, मूर्खताओं को अंदर भर कर रखा गया है, तो भाग्य की लिपि दूसरी होगी।

विधाता लिख देगा कि `इसे तब तक दु:ख-दुर्भाग्यों में ही पड़ा रहना होगा, जब तक कि योग्यताओं का संपादन न करे।’ अपने भाग्य को जैसा चाहें वैसा लिखाना, अपने हाथ की बात है। यदि आप आत्मनिर्भर हो जाएँ, जैसा होना चाहते हैं उसके अनुरूप अपनी योग्यताएँ बनाने में प्रवृत्त हो जाएँ, तो विधाता को विवश होकर अपनी मनमरजी का भाग्य लिखना पड़ेगा। जब आत्मविश्वास के साथ सुयोग्य मार्ग की तलाश करेंगे, तो वह किसी न किसी प्रकार मिल कर ही रहेगा।

📖 अखण्ड ज्योति -सितम्बर 1943

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